ऋग्वेद संहिता सम्पूर्ण UGC.NET

The Vedic literature, specifically the Rigveda, holds significant importance in the field of UGC NET. Its profound insights and ancient wisdom provide valuable material for research and study. Exploring the Rigveda within the context of UGC NET allows for a deep understanding of the origins of Indian culture and philosophy. 

 ॥वैदिक साहित्य॥

(क) वैदिक साहित्य का सामान्य परिचय-

 

भारतीय संस्कृति में वेदों का स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं सर्वोच्च है। भारतीय संस्कृति की मुख्य आधारशिला 'वेद' ही हैं। हिन्दुओं के रहन-सहन, आचार-विचार एवं धर्म-कर्म तथा संस्कृति को समझने के लिये वेदों का ज्ञान आवश्यक है। भारतीय संस्कृति में वेद सनातन वर्णाश्रम धर्म के मूल ग्रन्थ हैं। अपने दिव्य चक्षु के माध्यम से साक्षात्कृतधर्मा ऋषियों के द्वारा अनूभूत अध्यात्मशास्त्र के तत्वों की विशाल विमल राशि का नाम वेद है। मनु के अनुसार वेद पितरों, देवों का वह सनातन चक्षु है जिसके माध्यम से कालातीत और देशातीत का भी दर्शन सम्भव है। "पितृदेवमनुष्याणां वेदचक्षुः सनातनम्”- मनुस्मृति । वेदों में वर्णित विषयों का स्मृति, पुराणों तथा धर्मशास्त्रों में विस्तारपूर्वक वर्णन प्राप्त होता है। वेदों की व्याख्या उपनिषद्, दर्शन तथा धर्मशास्त्रों में विभिन्न प्रकार से उपलब्ध होती है, जिसमें उपनिषद् तथा दर्शन वेदों की 'आध्यात्मिक' व्याख्या को प्रस्तुत करते हैं। दर्शनों में पूर्व मीमांसा दर्शन मुख्य रूप से वेदों में प्रतिपादित कर्मकाण्ड के विषयों पर ही आधारित है। वेद विश्व के सभी प्राचीन साहित्य ग्रन्थों में सर्वप्राचीन ग्रन्थ हैं। ऋषियों ने 'पश्यन्ती' तथा 'मध्यमा' वाणी का आश्रय लेकर अपने हृदय में वेदों का ज्ञान प्राप्त किया था। तथा 'वैखरी' वाणी का आश्रय लेकर अपने शिष्यों और प्रशिष्यों को यह वेदज्ञान दिया।

वेद शब्द की व्युत्पत्ति एवं अर्थ-

वेद शब्द की व्युत्पत्ति ज्ञानार्थक 'विद ज्ञाने' धातु से 'घञ्' प्रत्यय करने पर सिद्ध होती है। इसका अर्थ है - 'ज्ञान' । अतः वेद शब्द का अर्थ होता है - 'ज्ञान की राशि या संग्रह' । सर्वज्ञानमयो हि सः- मनुस्मृति । पाणिनिव्याकरण की दृष्टि के अनुसार वेद शब्द की व्युत्पत्ति चार धातुओं से विभिन्न अर्थों में होती है ।

1. विद् सत्तायाम् +श्यन् (होना, दिवादि)।

2 विद् ज्ञाने + शप् लुक् (जानना, अदादि)।

3. विद विचारणे + श्रम् (विचारना, रुधादि)।

4. विट्ठू लाभ + श (प्राप्त करना, तुदादि) ।

इसके लिए कारिका है-

"सत्तायां विद्यते ज्ञाने, वेत्ति विन्ते विचारणे । विन्दति विन्दते प्राप्तौ, श्यन्लुक्नम्शेष्विदं क्रमात्” ।।

ऋक्प्रातिशाख्य की व्याख्या में 'विष्णुमित्र' ने वेद का अर्थ किया है ।“विद्यन्ते ज्ञायन्ते लभ्यन्ते एभिर्धर्मादिपुरुषार्था इति वेदाः "-

विष्णुमित्र। अर्थात् जिन ग्रन्थों के द्वारा धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूपी पुरुषार्थ-चतुष्टय के अस्तित्व का बोध होता है, तथा जिनसेपुरुषार्थ-चतुष्टय की प्राप्ति होती है।

आचार्य 'सायण' वेद शब्द की व्याख्या करते हैं- “इष्टप्राप्त्यनिष्ट-परिहारयोरलौकिकम् उपाय यो ग्रन्थो  वेदयति, स वेदः”- (तैत्तिरीय संहिता) अर्थात् जो ग्रन्थ दृष्ट-प्राप्ति और अनिष्ट-निवारण का अलौकिक उपाय बताता है, उसे वेद कहते हैं।

वेदों के अर्थ में प्रयुक्त मुख्य शब्द- वेदों के अर्थ में श्रुति, निगम, आगम, त्रयी, छन्दस् आम्नाय, स्वाध्याय इन शब्दों का भी प्रयोग होता है।

1. श्रुति- वेदों को गुरु शिष्य परंपरा से श्रवण के द्वारा सुरक्षित रखे जाने पर श्रुति कहा गया है।

2. निगम - निगम का अर्थ सार्थक या अर्थबोधक है। वेदों को साभिप्राय, सुसंगत और गंभीर अर्थ बताने के लिये 'निगम' कहा जाता है।

3. आगम - आगम शब्द का प्रयोग वेद और शास्त्र दोनों के लिए होता है।

4. त्रयी- त्रयी शब्द का प्रयोग वेदों के लिए होता है। त्रयी का अर्थ है - तीन वेद, ऋक्, यजु और साम वेद। इसके अन्तर्गत चारों वेदों को रखा गया है।

 

5. छन्दस्- छन्दस् शब्द 'छदि संवरणे' चुरादिगणी धातु से बनता है। इसका अर्थ है - 'ढकना या आच्छादित करना' । चारों वेदों के लिए 'छन्दस्' शब्द का प्रयोग होता है। पाणिनि ने “बहुलं छन्दसि” (अष्टा.2.4.39, 73,76) सूत्रों के द्वारा वेदों को छन्दस् कहा है। यास्क ने छन्दस शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए निरुक्त में 'छन्दांसि छादनात्' कहा है।

6. आम्नाय- आम्नाय शब्द 'ना अभ्यासे' भ्वादिगणी धातु से बनता है। यह वेदों के प्रतिदिन अभ्यास या स्वाध्याय पर बल देता
 दण्डी ने 'दशकुमारचरित में वेदों के लिए आम्नाय का प्रयोग करते हुए कहा है- अधीती चतुर्षु आम्नायेषु'-
(दण्डी)। अर्थात् चारों वेदों का ज्ञाता ।

7. स्वाध्याय- स्वाध्याय शब्द 'स्व' अर्थात् 'आत्मा' के विषय में मनन चिन्तन तथा प्रतिदिन अभ्यास पर बल देता है। शतपथ ब्राह्मण में वेदों के लिए स्वाध्याय शब्द का प्रयोग हुआ है। "स्वाध्यायोऽध्येतव्यः" अर्थात् वेदों का अध्ययन करना चाहिए । उपनिषदों में भी वेदों के अर्थ में
स्वाध्याय शब्द का प्रयोग है- 'स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न  प्रमदितव्यम्' (तैत्ति. उप. 1.11.1)
अर्थात वेदों के अध्ययन और प्रचार में प्रमाद न करे ।

वेदों का रचनाकाल-

वेदों का रचनाकाल निर्धारण वैदिक साहित्येतिहास की एक जटिल- समस्या है। विभिन्न विद्वानों ने भाषा, रचनाशैली,

धर्म एवं दर्शन, भूगर्भशास्त्र, ज्योतिष, उत्खनन में प्राप्त सामग्री, अभिलेख आदि के आधार पर वेदों का रचनाकाल

निर्धारित करने का प्रयास किया है,

किन्तु इनसे अभी तक कोई सर्वमान्य रचनाकाल निर्धारित नहीं हो पाया है। इसका कारण यही है कि सबका किसी न

किसी मान्यता के साथ पूर्वाग्रह है।

18वीं शती के अन्त तक भारतीय विद्वानों की यह धारणा थी कि वेद अपौरुषेय है, अर्थात किसी मनुष्य की रचना नहीं है।

संहिताओं, ब्राह्मणों, दार्शनिक ग्रन्थों, पुराणों तथा अन्य परवर्ती साहित्य में अनेक उद्धरण मिलते हैं जिनमें वेद के अपौरुषेयत्व का कथन मिलता है।

वेद भाष्यकारों की भी परम्परा वेद को- अपौरुषेय ही मानती रही। इस प्रकार वेद के अपौरुषेयत्व की विद्वानों के द्वारा वेदाध्ययन का महत्त्वपूर्ण प्रयास किया गया, यह धारणा प्रतिष्ठित होने लगी कि वेद अपौरुषेय नहीं, मानव ऋषियों की रचना है, अतएव उनके कालनिर्धारण की सम्भावना को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। फलस्वरूप, अनेक पाश्चात्य विद्वानों के द्वारा इस दिशा में प्रयास किया गया। वैदिक आर्य-संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृति है, इस तथ्य को चूँकि पाश्चात्य मानसिकता अंगीकार न कर सकी, इसलिये वेदों का रचनाकाल ईसा से सहस्त्राब्दियों पूर्व मानना उनके लिये सम्भव नहीं था, क्योंकि विश्व की अन्य संस्कृतियों की सत्ता इतने सुदूरकाल तक प्रमाणित नहीं हो सकती थी, यद्यपि उन्होंने इतना अवश्य स्वीकार किया कि वेद विश्व का प्रचीनतम साहित्य है।

इस प्रकार वेद विश्व का प्राचीनतम वाङ्मय है इस विषय में भारतीय तथा पाश्चात्य सभी विद्वान् एकमत हैं, वैमत्य केवल इस बात में है कि इसकी प्राचीनता कालावधि में कहाँ रखी जाय। वेद के रचनाकाल-निर्धारण की दिशा में अब तक विद्वानों ने जो कार्य किये हैं तथा एतद्विषयक अपने मत स्थापित किये है उनका यहाँ संक्षेप में उल्लेख किया गया है-

 

मैक्समूलर-

वैदिक वाङ्मय के निश्चित कालनिर्धारण की दिशा में मैक्समूलर ने सर्वप्रथम प्रयास किया था, इसलिये सभी विद्वानों का ध्यान उनकी ओर आकृष्ट हो गया । प्रारम्भ में अधिकांश विद्वानों ने उसके इस मत को प्रामाणिक माना। बाद में कुछ ही ऐसे विद्वान थे जो मैक्समूलर के समर्थक बने रहे। अधिकांश ने अपनी धारणा बदल ली और उसके मत की काफ़ी आलोचना की। मैक्समूलर ने गौतम बुद्ध के आविर्भाव को अपना आधार माना है ।

बुद्ध ने वैदिकी हिंसा का खंडन किया है, अतः वैदिक काल बुद्ध के जन्म से पूर्व होना चाहिए। इस आधार पर उन्होंने वैदिक काल को चार भागों में विभक्त किया है-

(क) 1200 ई.पू. से 1000 ई.पू. । यह छन्द-काल है । इसमें निविद् आदि स्फुट वैदिक मन्त्रों की रचनाएँ हुई ।

(ख) 1000 ई.पू. से 800 ई.पू. । यह मन्त्र-काल है । इसमें वैदिक संहिताओं की रचना हुई और उनका संकलन हुआ।

(ग) 800 ई.पू. से 600 ई.पू. । यह ब्राह्मणकाल है। इसमें ब्राह्मण ग्रन्थों की रचना हुई ।

(घ) 600 ई.पू. से 400 ई.पू. । यह सूत्रकाल है । इसमें श्रौतसूत्रों, गृह्यसूत्रों आदि की रचना हुई । कुछ समय तक यह

मत अत्यन्त प्रचलित रहा, किन्तु बाद में स्वयं मैक्समूलर ने इस मत को अमान्य कर दिया। 1400 ई.पू. के बोगाज़कोई के शिलालेख की प्राप्ति के बाद यह मत सर्वथा निरस्त हो गया।

ए. बेबर-

ए. बेबर जर्मन के विद्वान हैं इनका कथन है - "वेदों का समय निश्चित नहीं किया जा सकता । वे उस तिथि के बने हुए हैं जहाँ तक पहुँचने

के लिए हमारे पास उपयुक्त साधन नहीं है । वर्तमान प्रमाण हम लोगों को उस समय के उन्नत शिखर तक पहुँचाने में असमर्थ हैं"।

प्रो. वेबर कहते हैं कि "वेदों के समय को कम से कम 1200 ई.पू. या 1500 ई.पू. के बाद का कथमपि स्वीकार नहीं किया जा सकता"।

प्रो. वेबर ने अपनी पुस्तक "History of indian literature" में यहाँ तक लिख दिया है कि वेदों का काल निर्धारण के लिए प्रयत्न करना सर्वथा बेकार है - "Any such of attempt of defining the relic antiquity is absolutely fruitless"

जैकोबी-

प्रसिद्ध जर्मन वैदिक विद्वान् श्री याकोबी ने भी ज्योतिष को आधार माना है। उन्होंने ध्रुव तारा को अपना लक्ष्य बनाया है विवाह-संस्कार में

'ध्रुवं पश्य' विधि है । ध्रुव तारा भी अपने स्थान से पीछे हटता है । उस आधार पर विचार करके उन्होंने ऋग्वेद का समय (4500-2500
ने ई.पू.) माना है ।

बालगंगाधर तिलक-

श्री तिलक ने 'ज्योतिष-गणना' के आधार पर ऋग्वेद का रचनाकाल (6 हजार ई.पूर्व से 4 हजार ई.पू.) माना है। उन्होंने विभिन्न नक्षत्रों में

'वसन्त-संपात' (Vernal Equinox, वर्नल इक्विनोक्स) के आधार पर यह तिथि निर्धारित की है। उन्होंने वैदिक काल को चार भागों में

विभक्त किया है और विभिन्न स्तरों में वैदिक साहित्य के अंगों का उल्लेख किया है ।

याद करने के लिए सूत्र 

अदिति काल - 6000-4000- निविद् मंत्र (गद्य-पद्यात्मक)

मृगशिरा काल - 4000-2500- ऋग्वेद के अधिकांश सूक्त।

कृत्तिका काल - 2500- 1400 चारों वेदों का संकलन ।

सूत्र काल -1400-500- सूत्र ग्रन्थ दर्शन ग्रन्थ ।

इनके अनुसार वेदों की रचना 6000 ई.पू. तथा संहिता रूप 2500 ई.पू. से 1400 ई.पू. के मध्य हुई है ।

एम. विण्टरनित्स-

अपने इतिहास में विन्टरनित्स ने सभी मतों की विस्तृत आलोचना के बाद अपना समन्वयात्मक मत दिया है कि वैदिक काल 2500 ई.पू. से 500 ई.पू. तक माना जा सकता है । इस प्रकार ऋग्वेद का समय 2500 ई.पू. है ।

भारतीय परम्परागत विचार-

(1) श्री स्वामी दयानन्द सरस्वती -

आर्यसमाज के प्रवर्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती ने वेदों आदि के सन्दर्भों के द्वारा प्रतिपादित किया है कि वेदों का उद्भव परमात्मा से सृष्टि

के प्रारम्भ में हुआ। उसने अग्नि से ऋग्वेद, वायु से यजुर्वेद और सूर्य से सामवेद को प्रकट किया। उससे ही अथर्ववेद भी प्रकट हुआ।

 (2) श्री अविनाशचन्द्र दास -

श्री दास ने ऋग्वेद में प्राप्त भूगोल एवं भूगर्भ- संबन्धी साक्ष्य के आधार पर ऋग्वेद का रचनाकाल 25 हजार वर्ष ई. पूर्व माना है। ऋग्वेद के एक मन्त्र में वर्णन है कि सरस्वती नदी पर्वत (हिमालय) से निकलकर समुद्र में मिलती है। पुरातत्त्व की गणना के अनुसार यह समुद्र

राजस्थान में था। अब उस सरस्वती नदी और राजस्थान के समुद्र का लोप हो गया है। यह घटना 25 हजार वर्ष ई.पू. की है। उस समय दोनों की सत्ता थी । अतः ऋग्वेद इससे पूर्व बन चुका था ।

(3) श्री शंकर वालकृष्ण दीक्षित -

श्री दीक्षित ने उर्युक्त रूप से ‘शतपथ ब्राह्मण' का समय 2500 ई.पू. मानकर चारों वेदों की रचना के लिए 1000 वर्ष का समय मानकर

ऋग्वेद का रचनाकाल 3500 ई.पू. माना है ।

प्रमुख विद्वानों के अनुसार वेदों का काल-

निष्कर्ष -4000-1000 ई.पू. वेदों का रचना काल माना गया है।

वैदिक साहित्य का विभाजन-


वैदिक साहित्य को सुविधा की दृष्टि से चार भागों में बाँटा गया है-

(1) वैदिक संहिताएँ, (2) ब्राह्मण ग्रन्थ, (3) आरण्यक ग्रन्थ, (4) उपनिषद्,

वैदिक संहिताएँ-

वेदों की चार संहिताएँ हैं

1. ऋग्वेद संहिता, 2. यजुर्वेद संहिता, 3. सामवेद संहिता 4. अथर्ववेद संहिता ।

व्याकरण के अनुसार संहिता का अर्थ है "परः संनिकर्षः संहिता" (अष्टा. 1.4.109) पदों का संधि आदि के द्वारा समन्वित रूप संहिता

कहा जाता है । इस दृष्टि से मंत्रभाग को संहिता कहते हैं ।

संहिताओं के ऋत्विक्-

यज्ञ के चार ऋत्विज-

1. होता, 2. अध्वर्यु  3. उद्गाता 4. ब्रह्मा ।

1. होता - यह यज्ञ में ऋग्वेद की ऋचाओं का पाठ करता है, अतएव ऋग्वेद को 'होतृवेद' भी कहा जाता हैं। ऐसी देवस्तुति वाली ऋचाओं का परिभाषिक नाम "शस्त्र" है। लक्षण- "अप्रगीत-मन्त्र-साध्या स्तुतिः शस्त्रम्" अर्थात् गानरहित स्तुतिपरक मन्त्र।

2. अध्वर्यु - यजुर्वेद के मंत्रों का पाठ करता है। यही यज्ञ भी करता है और यज्ञ में घृत आदि की आहुति देता है ।

3. उद्गाता- यह सामवेद के मन्त्रों का पाठ करता है, तथा देवस्तुति में मन्त्रों का गान करता है।

4. ब्रह्मा - ब्रह्मा यज्ञ का संचालन करता है, वही यज्ञ का अधिष्ठाता और निर्देशक होता है यह चतुर्वेदवित् होता है। त्रुटियों के संशोधन के

कारण इसको यज्ञ का भिषज, वैद्य कहा जाता है ।। ऋग्वेद के एक मंत्र में चारों ऋत्विजों के कम्मों का निर्देश है-

“ऋचां त्वः पोषमास्ते पुपुष्वान्, गायत्रं त्वो गायति शक्करीषु । ब्रह्मा त्वो वदति जातविद्यां यज्ञस्य मात्रां विमिमीत उ त्वः " । (ऋग्.
10.71.11)

क्रमानुसार सारणी

ऋग्वेद     =   होता  =  मैत्रावरुण  = अच्छावाक्    =  ग्रावस्तुत   

यजुर्वेद    = अध्वर्यु  = प्रतिप्रस्थाता  = नेष्टा  =  उन्नेता

सामवेद   = उद्गाता  = प्रस्तोता  =  प्रतिहर्ता = सुब्रह्मण्य

अथर्ववेद  =   ब्रह्मा  = ब्राह्मणाच्छसी = आग्नीघ्र = पोता

वैदिक वाङ्मय का द्विविध विभाजन -


वेदों में वर्णित विषय की दृष्टि से समस्त वैदिक वाङ्मय को दो भागों में बाँटा गया है-

1. कर्मकाण्ड- वेद, ब्राह्मण।  2. ज्ञानकांड- आरण्यक, उपनिषद।

1. कर्मकाण्ड- 'वेदों' और 'ब्राह्मण ग्रन्थों' को "कर्मकाण्ड” के अन्तर्गत रखा जाता है, क्योंकि इनमें विविध यज्ञों के कर्मकाण्ड की पूरी

प्रक्रिया दी गयी है। वेदों में यज्ञीय कर्मकाण्ड से संबद्ध मंत्र हैं और ब्राह्मण ग्रन्थों में उनकी विस्तृत व्याख्या है।

2. ज्ञानकांड- “ज्ञानकांड" के अन्तर्गत 'आरण्यक ग्रन्थ' और 'उपनिषद' हैं । आरण्यक ग्रन्थों में यज्ञिय क्रियाकलाप की आध्यात्मिक एवं

दार्शनिक तत्त्वों की समीक्षा की गयी है। इनमें ब्रह्म, ईश्वर, जीव, प्रकृति, मोक्ष आदि का वर्णन है । एव आरण्यक और उपनिषदों को

ज्ञानकांड कहा जाता है ।

: वेदाङ्ग- :

वेदों के ज्ञान के लिए सहायक ग्रन्थों को वेदाङ्ग कहा गया है। ये वेदों के व्याकरण, यज्ञों के कालनिर्धारण, शब्दों के निर्वचन, मंत्रों की

पद्यात्मक रचना, यज्ञीय क्रियाकलाप का सांगोपांग विवेचन एवं मंत्रों के उच्चारण आदि विषयों से संबद्ध हैं। वेदांग 6 हैं-

1. शिक्षा 2. व्याकरण 3. छन्द  4. निरुक्त  5. ज्योतिष  6. कल्प

“शिक्षा व्याकरणं छन्दो निरुक्तं ज्योतिषं तथा । कल्पश्चेति षडङ्गानि वेदस्याहुर्मनीषिणः” ।।

ये वेदांग सामान्यतया सूत्रशैली में लिखे गए है ।

वेदपाठ दो प्रकार के होते हैं।

1. प्रकृति पाठ 2. विकृति पाठ

1. प्रकृति पाठ = संहितापाठ = पदपाठ = क्रमपाठ

2. विकृति पाठ = जटा = माला = शिखा = रेखा = ध्वज = दण्ड = रथ = घन

1. जटा-पाठ 2. माला 3. शिखा 4. रेखा 5. ध्वज 6. दण्ड 7. रथ 8. घन

"जटा माला शिखा रेखा ध्वजो दण्डो रथो घनः । अष्टौ विकृतयः प्रोक्ताः क्रमपूर्वा महर्षिभिः” ।

इनमें घनपाठ सबसे बड़ा और कठिन होता है। 'घनपाठ' में प्रथम पद की आवृत्ति (5) बार होती है। वैदिक छन्दों के भेद- 1. पादाक्षर, 2. अक्षर ।

वंशमण्डल-

द्वितीय मण्डल से सप्तम मण्डल तक 'वंशमण्डल' कहते है। इसका दूसरा नाम 'परिवार मण्डल' है।, ये इस प्रकार से हैं- गृत्समद, विश्वामित्र, वामदेव, अत्रि, भारद्वाज, वशिष्ठ । वेदों की विभिन्न व्याख्या पद्धतियां-

(1) यास्क- यास्क के अनुसार मंत्रों के तीन प्रकार के अर्थ होते है ।

1. आधिभौतिक (प्राकृतिक),

2. आधिदैविक (देवविशेष से संबद्ध),

3. आध्यात्मिक (परमात्मा या जीवात्मा से संबद्ध) । 

मुख्य रूप से मंत्रों का प्रतिपाद्य एक परमात्मा ही है । विभिन्न गुणों और कर्मों के आधार पर उसके ही अन्य देवतावाचक नाम हैं। वेदों के परंपरागत अर्थ का ज्ञान आवश्यक है। परंपरागत अर्थ जानने वाले को 'पारोवर्यवित्' कहते थे। -“परोवर्यवित्सु तु खलु वेदितृषु भूयोविद्यः प्रशस्यो भवति”- (नि.1.16) यास्क की व्याख्या पद्धति 'वैज्ञानिक' है ।

(2) आचार्य सायण- वेदों की व्याख्या करने वाले आचार्यों में आचार्यसायण का स्थान अग्रगण्य है। वे अकेले ऐसे आचार्य हैं, जिन्होंने सभी वेदों तथा ब्राह्मण-ग्रन्थों आदि की भी व्याख्या की है। उन्होंने परम्परागत शैली को अपनाया है। तथा यज्ञ-प्रक्रिया को सर्वत्र प्रधानता दी है। वे वेदों में इतिहास मानते हैं। पाश्चात्त्य विद्वान "प्रो. रुडोल्फ रोठ” ने सायण की बहुत आलोचना की है। लौकिक इतिहास मानने के कारण स्वामी दयानन्द जी और कई लोगों ने दोष निकाले हैं। परन्तु मैक्समूलर, विल्सन, गेल्डनर आदि विद्वान् सायण के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करते हैं और मानते हैं कि सायण के भाष्य के आधार पर ही वैदिक वाङ्मय में उनकी गति हो सकी है। वस्तुतः पाश्चात्त्य जगत् को वेदों का ज्ञान देने वाले आचार्य सायण ही हैं।

 

(3) स्वामी दयानन्द सरस्वती- महर्षि दयानन्द आर्यसमाज के संस्थापक हैं। ये आधुनिक युग में वेदों के पुनरुद्धारक

माने जाते हैं। उन्होंने नैरुक्त-प्रक्रिया का आश्रय लेकर वेदों की नई व्याख्या प्रस्तुत की है। उन्होंने शुक्र यजुर्वेद की

संपूर्ण संस्कृत और हिन्दी में व्याख्या की है तथा ऋग्वेद की व्याख्या मंडल 7 के 80 सूक्त तक ही कर सके।

वेदों का महत्त्व-

अनेक दृष्टियों से वेदों को महत्त्वपूर्ण माना गया है।' संकेतरूप में कुछ तथ्य दिए जा रहे हैं- 

धार्मिक महत्व - 

वेद आर्यधर्म की आधारशिला हैं। धर्म के मूलतत्त्वों को जानने के एकमात्र साधन वेद हैं। वेदोऽखिलो धर्ममूलम् ।

मनु.2.6 मनु ने वेदों को सारे ज्ञानों का आधार मानकर उन्हें 'सर्वज्ञानमय' कहा है, अर्थात् वेदों में सभी प्रकार के ज्ञान

और विज्ञान के सूत्र विद्यमान हैं ।

"यः कश्चित् कस्यचिद् धर्मो, मनुना परिकीर्तितः । स सर्वोऽभिहितो वेदे, सर्वज्ञानमयो हि सः” ।। (मनु. 2.7)

महर्षि पतंजलि ने महाभाष्य के प्रारम्भ में ब्राह्मण का अनिवार्य कर्तव्य बताया है। कि वह निःस्वार्थभाव से वेदांङ्गों के

सहित वेदों का अध्ययन करे ।“ब्राह्मणेन निष्कारणो धर्मः षडङ्गो वेदोऽध्येयो ज्ञेयश्च” । (महा.आह्निक 1.) मनु ने

वेदाध्ययन पर इतना अधिक बल दिया है कि ब्राह्मण के लिए वेदाध्ययन ही परम तप है । जो वेदाध्ययन न करके

अन्य  शास्त्रों में रुचि रखता है वह इस जन्म में ही सपरिवार शूद्र की कोटि में है -

वेदमेव सदाऽभ्यस्येत् तपस्तप्यन् द्विजोत्तमः । वेदाभ्यासो हि विप्रस्य तपः परमिहोच्यते ।। (मनु. 2.166)

योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम् । स जीवन्नेव शूद्रत्वमाशु गच्छति सान्वयः ।। (मनु. 2.168)

सांस्कृतिक महत्त्व- वेद भारतीय संस्कृति के मूल स्रोत हैं । भारतीय संस्कृति का यथार्थ ज्ञान वेदों और वैदिक वाङ्मय

से ही प्राप्त होता है । प्राचीन समय में वस्तुओं के नाम आदि तथा मानव के कर्तव्यों का निर्धारण वेदों से ही किया गया था ।

सर्वेषां तु स नामानि कर्माणि च पृथक् पृथक् । वेदशब्देभ्य एवादौ, पृथक् संस्थाश्च निर्ममे ।। (मनु. 1.21 )

वेदों के प्रमुख विषय-

वेद - उपवेद - देवता - ऋत्विज - मुख्याचार्य - वर्ण्य विषय  - वेदप्रतीक - तत्व - लोक  ।।

ऋग्वेद -  आयुर्वेद  - अग्नि - होता - पैल -शस्त्र  - शरीर - वाक्तत्व - भूलोक ।।

यजुर्वेद -  धनुर्वेद - वायु - अध्वर्यु - वैशम्पायन - यज्ञ - मन - मनस्तत्व - अन्तरिक्ष ।।

सामवेद - गान्धर्ववेद -  आदित्य - उद्गाता - जैमिनि - स्तुतिस्तोम - बुद्धि - प्राणतत्व - द्युलोक ।।

अथर्ववेद - स्थापत्यवेद - अङ्गिरा - ब्रह्मा - सुमन्तु - प्रायश्चित्त - आत्मा -।। 

॥संहिता साहित्य॥ ॥ऋग्वेद-संहिता॥

'ऋक्' का अर्थ स्तुतिपरक मत्र हैं: "ऋच्यते स्तूयतेऽनया इति ऋक्” । जिंन मन्त्रों के द्वारा देवों की स्तुति की जाती है,

उन्हें (ऋक्, ऋच, ऋचा) कहते हैं। ऋग्वेद में विभिन्न देवों की स्तुति वाले मंत्र हैं, अतः इसे ऋग्वेद कहते हैं। ऋग्वेद में

ब्रह्मप्राप्ति, वाक्तत्व या शब्द ब्रह्म की प्राप्ति, प्राण या तेजस्विता की प्राप्ति अमरत्व के साधन तथा ब्रह्मचर्य के द्वारा

ओजस्विता आदि का वर्णन है। ऋचा तीन प्रकार की होती है -

(1) परोक्षकृत, (2) प्रत्यक्षकृत, (3) आध्यात्मिक।

ऋग्वेद की शाखाएँ-

महाभाष्य में ऋग्वेद की (21) शाखाएं वर्णित है। 'एकविंशतिधा बाहृच्यम्' - (महर्षि पतंजलि 150 ई.पू.) प्रमुख रूप से पाँच शाखाएं हैं-

(1) शाकल - वर्ण्य-विषय, मंत्रसंख्या इत्यादि। (1017) सूक्त)

(2) वाष्कल- यह शाखा उपलब्ध नहीं है। (1025) सूक्त 8 अधिक शाकल में। बाष्कल शाखा के रचयिता- 'सुयज्ञ' ।

(3) आश्वलायन- यह संहिता और इसका ब्राह्मण सम्प्रति उपलब्ध नहीं है। इस शाखा के श्रौतसूत्र और गृह्यसूत्र ही उपलब्ध हैं।

(4) शांखायन- यह उपलब्ध नहीं है। इसके ब्राह्मण, आरण्यक, और श्रौतसूत्र प्राप्त हैं।

(5) माण्डूकायनी- यह शाखा संप्रति अप्राप्य है।

* चरणव्यूह के रचयिता- शौनक हैं।

ऋग्वेद विभाजन के दो प्रकार-

(1) अष्टक, अध्याय, वर्ग, मंत्र (2) मंडल, अनुवाक, सूक्त, मंत्र।

1. अष्टक क्रम-

पूरे वेद में आठ भाग हैं जिन्हें (अष्टक) कहा जाता है। प्रत्येक अष्टक में आठ अध्याय हैं। इस प्रकार ऋग्वेद में सम्पूर्ण

(64) अध्याय हैं । प्रत्येक अध्याय में वर्गों की संख्या भिन्न है।

(अष्टक = 8, अध्याय = 64, वर्ग = 2024, मंत्र = 10580,) ऋग्वेद में बालखित्य सूक्तों सहित = 1028 सूक्त हैं।

2. मण्डलक्रम-

मण्डल= 10, बालखिल्य सूक्त= 11 सूक्त+80 मंत्र, अनुवाक = 85, सूक्त=1017+11=1028, मंत्र = 10580,

ऋग्वेद मण्डलों की संज्ञा, ऋषि,सूक्त तथा मन्त्र- मण्डल संज्ञा

ऋग्वेद के प्रमुख सन्दर्भ-

ऋग्वेद का प्रारम्भिक सूक्त = अग्नि,

ऋग्वेद का अन्तिम सूक्त -संज्ञान,

ऋग्वेद का पाठप्रणयनकर्ता- वाभ्रव्य,

ऋग्वेद का पदपाठकर्ता -शाकल्य,

ऋग्वेद पर सम्पूर्ण भाष्य -सायण,

ऋग्वेद पर सबसे प्राचीन भाष्य -स्कन्दस्वामी।

याज्ञवल्क्य 'जनक' की सभा में थे।

ऋग्वेद में 'अघ्य' शब्द का सम्बन्ध 'गाय' से है।

“गीतिषु सामाख्या पुरुषार्थानां वेदयिता वेद उच्यते” (भट्टभास्कर)

“मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम्”- (आपस्तम्ब-जैमिनि)

"आरण्यकश्च वेदेभ्यः औषधिभ्यो ऽमृतं यथा" (कृष्णद्वैपायन)।

“ ब्राह्मणं नाम कर्मणः तन्मत्राणां व्याख्यानग्रन्थः” (विष्णुमित्रः)।

देवताओं के स्तुतिपरक मंत्र ऋक् ।

ऋग्वेद का मुख्यकर्म उपासना ।

विभिन्न ऋचाओं का संग्रह- ऋग्वेद संहिता।

संहिता- संकलन/संग्रह का बोधक है।

ऋग्वेद में 'स्वरित' स्वर-ऊपर की ओर होता है, तथा 'उदात्तस्वर' अचिह्नित होता है।

दशतयी ऋग्वेद,

'आद्युदात्तवेदशब्द'- ग्रन्थवाचकः, 'अन्त्योदात्तवेदशब्द'- कुशमुष्टिवाचक।

(1) ऋक्- भूलोक (अग्नि देवता प्रधान)

(2) यजु- अन्तरिक्ष (वायु)

(3) साम- द्युलोक (सूर्य),

यजुर्वेद में प्राप्त दूसरी व्याख्या-

(1) ऋग्वेद- वाक्तत्व (ज्ञानतत्व या विचारतत्व का संकलन)।

(2) यजुर्वेद- मनस्तत्व (चिन्तन, कर्मपक्ष, कर्मकांड, संकल्प का संग्रह) ।

(3) सामवेद- प्राणतत्व (आन्तरिक ऊर्जा, संगीत, समन्वय का संग्रह) ।

इन तीनों तत्वों के समन्वय से ब्रह्म की प्राप्ति होती है।

'कितव' सूक्त ऋग्वेद में है।

'ऋक्लक्षण' शौनक का ग्रन्थ है।

* मंत्रद्रष्टा ऋषिकाएं=

ऋग्वेद ऋषिकाएँ = 24 (224 मंत्र)

अथर्ववेद ऋषिकाएँ = 5 (198 मंत्र) 24+5=(29), 224+198=422 सम्पूर्ण ऋ.म.सं.।

ऋग्वेद में प्रमुख (20) छन्द हैं जिनमें (7) छन्दों का मुख्य रूप से उपयोग हुआ है।

(1) गायत्री (24) (2) उष्णिक (28) (3) अनुष्टुप (32) (4) बृहती (36) (5) पङ्गि (40) (6) त्रिष्टुप (44) (7) जगती (48) = गाउअवृपंत्रीज याद करने के लिए ।।

ऋग्वेद के महत्वपूर्ण सूक्त-

(1) पुरुषसूक्त (10/90) 

 यह चारो वेदों में है। इसमें परमात्मा के विराट रूप का वर्णन तथा समस्त सृष्टि का वर्णन है। यह सूक्तअपनी उदात्त भावना, दार्शनिकता, भाव गांभीर्य और अन्तर्दृष्टि के लिये विख्यात है।

पुरुष एवेद सर्वम्- (ऋ. 10-10-2) ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद (ऋ. 10.10-12)

(2) नासदीयसूक्त (10/129) 

 यह सूक्त वैदिक ऋषियों के प्रतिभा ज्ञान और अलौकिक दार्शनिक चिन्तन का

परिचायक है। सृष्टि से पूर्व केवल संकल्प काम उत्पन्न हुआ।

(3) हिरण्यगर्भ सूक्त- (10/121) 

प्रजापति ऋषि । यह (10) मंत्रों में विभक्त है । प्रजापति सृष्टिआरम्भ में

हिरण्यगर्भ सुवर्ण पिण्ड के रूप में प्रकट हुआ वही सृष्टि का नियामक भी है। हिरण्यगर्भ समवर्तवाग्रे-

(ऋ.10-121-1) य आत्मदा बलदा... (ऋ.10-121-21) कस्मै देवाय हविषाविधेम ।

(4) अस्य वामीय सूक्त- (10/164) 

(52 मंत्र) इसमें दर्शन, अध्यात्म मनोविज्ञान, भाषाविज्ञान, ज्योतिष भौतिक

विज्ञान सम्बन्धी तथ्य वर्णित हैं। भारतीय तथा पाश्चात्य विद्वानों द्वारा इस सूक्त को अत्यन्त क्लिष्ट और दुर्बोध माना गया है।
इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहु (मं. 46), द्वा सुपर्णा सयुजा (मं. 20), अयं यज्ञो भुवनस्य नाभि..... (मं. 35),

(5) श्रद्धा  सूक्त (10/151) 

मंत्र श्रद्धा की परिभाषा- श्रद्धा काम (संकल्प) की पुत्री है उसे कामायनी कहते हैं।

श्रद्धां हृदय्ययाकूव्या श्रद्धया विन्दते वसु (मं-4), श्रद्धे श्रद्धामयेह नः। (मं-5), ऋतवाकेन सत्येन श्रद्धया । (ऋ.9-

113,2), ऋतं वदन्, सत्यं वदन, श्रद्धां वदन्। (ऋ.113,4) श्रधि श्रुत श्रद्धिवं ते वदामि। श्रद्धया सत्यमाप्यते।

(6) वाक्सूक्त ( 10/125 ) 

8 मंत्रों मेें वाक्तत्व, शब्दब्रह्म , शब्दतत्व , वाग्देवी का ब्रह्म के रूप में वर्णन है । वाक्तत्व सर्वत्र व्याप्त है । यह इन्द्र , अग्नि , सोम , मित्र , वरूण , आदि की ऊर्जा का स्तोत्र है , यह राष्ट्रनिर्मात्री शक्ति है । पूरा सूक्त उत्तम पुरूष में ( वाक् आम्भृणी ) ऋषि द्वारा आत्मविवेचन के रूप में प्रस्तुत है ।

अहं राष्ट्री संगमनी वसूनाम - ( मंत्र-३ ) 

अहमेव स्वयमिदं वदामि देवेभिरुत मानुषेभिः ( मन्त्र ५ )

अहमेव वात इव प्रवामि - आरभमाणा भुवनानि विश्वा ( मन्त्र ८ ) 

( 7 ) संज्ञान सूक्त ( 10/191 ) 

4 मन्त्रों में सामाजिक सौहार्द , सामंजस्य यह अस्तित्व ऐकमत्य और संगठन का उपदेश है । यह सामाजिक , रास्ट्रीय और आर्थिक चिन्तन में समन्वय की भावना का प्रतिपादक है । 

सं गच्छध्वं सं वदध्वं , स वो मनांसि जानताम् ( मं-2 ) 

समानो मन्त्रः समितिः संमानी समानं मनः सह चित्तमेषाम् ।

समानी व आकूतिः समाना हृदयानी वः ।

( 8 ) दानस्तुति सूक्त ( 10/107 ) 

इसमें दान की प्रक्रिया महिमा का गुणगान है , दानी अमर हो जाता है ।

न भोजा ममुर्न न्यर्थमीयुः ।

उच्चा दिवि दक्षिणावन्तो अस्थुः ।

म स सखा यो व ददाति सख्ये ।

मोघमन्त्र विदन्ते अप्रचेताः ।

केवलाघो भवति केवलादी ।

( 9 ) अक्षसूक्त ( 10/34 )

14 मन्त्रों में अक्ष ( द्यूत , जुआ  खेलना ) की कई शब्दों में निन्दा की गयी है । 

अक्षैर्मा दीव्यः कृषिमित् कृषश्व वित्ते रमस्व बहु मन्यमानः ।

( 10 ) विवाहसूक्त ( 10/85 )

सूर्या ( सूर्य की पुत्री उषा ) का सोम ( चन्द्रमा ) से विवाह का वर्णन है । 

अघोरचक्षुपतिघ्री एधि ।

शं नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे ।

सम्राज्ञी श्वशुरे भव । 

आख्यानसूक्त - 

दृष्टचरितमाख्यानं ,, जिसे आखों से देखा गया हो उसे आख्यान कहते है । 

विष्णु के तीन पैर ( त्रिविक्रम ) ( 10/95 ) - तीन पैर से द्युलोक , भुलोक और अन्तरिक्षलोक को नापने का वर्णन । अतः विष्णु को त्रिविक्रम कहते है । 

सोम-सूर्या-विवाह- (10/85) 

सोम और सूर्या के विवाह का वर्णन है।

श्यावाश्व सूक्त- (5.61) इस सूक्त में श्यावाश्व और राजा रथवीथि की कन्या का वर्णन किया गया है।

मण्डूक सूक्त (7/103) इसमें वर्षा ऋतु में बोलते मेंढकों की वेदपाठी ब्राह्मणों से तुलना की गई है।

इन्द्र-वृत्र-युद्ध (1/80) (इन्द्र-सूर्य, वृत्र- मेघ), वर्षाकाल में इन दोनों का युद्ध चलता रहता है ।

संवाद सूक्त-

(1) पुरुरवा उर्वशी संवाद सूक्त (10/95)

इसमें राजा पुरूरवा (पुरुरवस्) और उर्वशी का संवाद वर्णित है। पुरुरवा का उर्वशी नामक अप्सरा के प्रणय सम्बन्ध का वर्णन वर्णित है, इसका रूप विक्रमोर्वशीय भी में मिलता है।

पुरुरवो मा मृथा मा प्र पप्तो- (मं. 15)

(2) विश्वामित्र नदी सूक्त (3/33) (ऋषि देवता) पणि, सरमा।

(3) यम यमी संवाद सूक्त (10/10)

यमी यम से सृष्टि के लिये प्रणय याचना करती है।

पापमाहुर्यः स्वसारं निगच्छात्। (ऋ. 10-10 )

(4) सरमा पणि संवाद सूक्त 10/108

कृपण व्यापारी द्वारा इन्द्र की गाय चुरा लेना वर्णित है।

बृहस्पतिर्या अविन्दन निगूढाः, सोमो ग्रावाण ऋषयश्च विप्राः । (ऋ .10-10-8,11)

वैदिक खिल सूक्त-

खिल का अभिप्राय परिशिष्ट प्रक्षिप्त ।

समस्त खिल सूक्त (5) अध्याय, (86) खिल सूक्त। सर्वप्रथम खिल सूक्तों का संकलन (प्रो. जी.व्यूलर) ने एक

प्राचीन काश्मीरी पाण्डुलिपि से किया था।

प्रमुख विद्वानों के अनुसार खिल सूक्तों की संख्या- मैक्समूलर- 32, आउफ्रेख्त - 25, सातवलेकर- 36,

विशिष्ट खिल सूक्त-

सौपर्ण सूक्त, श्री सूक्त, (बालखिल्यमूक्त संख्या-11 ऋग्वेद अष्टम मण्डल),पवमानी सूक्त,ब्रह्मसूक्त, रात्रिसूक्त,कृत्यासूक्त, शिवसंकल्पसूक्त, संज्ञान सूक्त, महानान सूक्त, निविद अध्याय, मैथ अध्याय, कुन्ताप सूक्त।

ऋग्वेद स्मपूर्ण 


 

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