हिंदी मंथन पाठ्य-पुस्तक

 ( 2 ) परोपकारी चींटियाँ 

इस कहानीं से यह सीख मिलती है कि दुसरों का भला करने वाला सदा सुखी रहते है । इतना ही नहीं अच्छी संगति से बुरी आदतें भी दूर हो जाती है । 

एक गाँव में एक सेठ रहता था । धनवान  होनें पर भी वह बहुत कंजूस था । वह न तो किसी की मदत करता था , न ही स्वयं 

पेटभर का खाता था । परंतु उसे गुड खाने की आदत थी । इसके घर में आटा दाल चावल कुछ भी नही होता था । बस उसकी चारपाई के पास एक आले में गुड आवश्य रहता था । जब भी उसे भूख लगती वह एक टुकडा गुड खाकर पानी पी लेता था ।

कंजुस सेठ के घर में बहुत सी चींटियाँ रहती थीं । उन्हें बहुत खुश होता था क्योंकि घर में खाने पीने का कोई सामान नही था इसलिए कुछ चीटिंया तो बिना खाने के मर गईं और जो बचीं वे बहुत कमजोर हो गईं । 

एक दिन एक चींटा वहाँ पहुचा उसके कमजोर चींटियों को देखा तो आश्चर्य चकित होकर पुछा - '' चींटियों  . तुम तो बहुत परिश्रमी हो तो फिर इतनी कमजोर कैसे हो गईं ?''

चींटियों ने कहा - '' इस घर में खाने पीने का समान नहीं है । ''  चींटा बोला -'' तो क्या यह सेठ कुछ भी नहीं खाता  ?

चींटियाँ आले की ओर इशारा करती हुए बोलीं - वह देखो उस आले में रखा हुआ गुड ही सेठ की खुराक है ।

चींटा मुस्कुरा उठा , वह झट आले पर चढ गया । चींटियाँ उसकी मंशा समझ चुकी थीं । वें बोलीं - दया करों चींटे , यदी तुम यह गुड खा जाओगे , तो फिर वह सेठ क्या खाएगा ? 

चींटे ने उसकी बात अनसुनी कर दी और बडे मजे से गुड खाते देखा तो आग बबूला हो गया । उसने अपने दोनों कानों को हाथ लगाया और प्रतिज्ञा की कि अब से वह गुड भी नहीं खाएगा ।

कंजूस दिन-रात भूखा रहने लगा दिससे उसके शरीर की शक्ति कम  होने लगी । इससे चींटियाँ चिंतित हो  उठीं । आखिर उन्होंने आपस में योजना बनाई और कंजूस को बचाने का निश्चय किया । 

एक दिन चींटियाँ झुंड बनाकर निकलीं और कहीं से एक लीची उठाकर ले आईं । उन्होंने वह कंजूस की चारपाई पर रख दी ।कंजूस ने लीची देखी तो बहुत प्रसन्न हुआ और ईश्वर की कृपा मानकर बडे आनन्द से खा ली । 

दूसरे दिन चींटियाँ फिर बाहर निकलीं और जामुन उठाकर ले आईं । कंजूस ने वह बडे मजे से खा लिया । 

यह सिलसिला इसी तरह चलता रहा । चींटियाँ बाहर निकलतीं और कुछ न कुछ खाने की वस्तु ले आतीं । एक बार जब वे सब मिलकर एक पका हुआ आम ढकेलतीं हुई ला रही थीं तो कंजूस ने उन्हें देख लिया । उसे समझते देर न लगी कि वह रोज जो कुछ खाता था वह ईश्वर की नहीं बल्कि इन चीटियों की कृपा थी । 

सेठ की आँखे खुल चुकी थी । उसने सोचा - एक ओर ये दयालु चींटियाँ हैं जो जी - जान से उसके लिए खाना लाती हैं । दूसरी ओर उस जैसा कंजूस जो किसी को लिए कुछ नहीं करता । धिक्कार है उस पर और उसके धन पर । 

कंजूस सेठ , अब कंजूस नहीं बल्कि दयालु बन चुका था । वह दीन - दुखियों कि सेवा करने लगा । वे परोपकारी चींटियाँ भी उसके परिवार का हिस्सा बनकर खुश थीं । 

  

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