॥सामवेद-संहिता॥
‘सामन्’ या साम का अर्थ – गीतियुक्त मंत्र है। ऋग्वेद के मंत्र (ऋक् या ऋचा) जब विशिष्ट गान-पद्धति से गाये जाते हैं तब उनको सामन (साम) कहते हैं। अतएव पूर्वमीमांसा में गीति या गान को साम कहा गया है। ‘गीतिषु सामाख्या’ (पूर्व.मी. 2.1.36) । ऋग्वेद में स्तोत्ररूप या गीतिरूप मंत्र को ‘अंगूष्यं साम’ (ऋग. 1,62,2) कहा है । ऋग्वेद और सामवेद का अन्योन्याश्रित संबन्ध है (ऋचा + गान) सामन् है । गीतियुक्त ऋचा साम हो जाती है। इसे छान्दोग्य और बृहदारण्यक उपनिषदों में अनेक रूप से प्रकट किया गया है-
या ऋक् तत्
साम । (छान्दो.उप. 1.3.4) ऋचि अध्यूढं साम । (छा.उप. 1.6.1) सा च अमश्चेति
तत् साम्नः सामत्वम् । (वृहदा. उप. 1.3.22) सामन् (साम्)= गीतियुक्त मंत्र।
सा + अम = साम। स/सा- ऋग्वेद, अम- संगीत, = सामवेद ।
सा- (ऋच्चा/पत्नी), अम- (गान/पुरुष) = सामन।
अर्थात् ऋग्वेद और सामवेद का संबन्ध पति-पत्नी के तुल्य है।सामवेद =
प्राणतत्त्व (‘साम प्राणं प्रपद्ये’) ।
सामवेद की 3 प्रमुख शिक्षाएं
(1) समत्व की भावना जागृत करना। (2) समन्वय की भावना । (3) प्राणशक्ति या आत्मशक्ति को उद्बुद्ध करना।
महत्व- इसमें सौर ऊर्जा वर्णित है। यह
जागरूकता का प्रतीक है। इसकी उत्पत्ति सूर्य से मानी जाती है अर्थात् यह
वेद ‘सूर्यपुत्र’ कहलाता है। सामवेद का सार द्युलोक है। ऋग्वेद के गायन को
सामग कहते हैं।
सामवेद स्वरूप
सामवेद के दो भाग हैं- (1) पूर्वार्चिक (2) उत्तरार्चिक । आर्चिक = ऋचाओं का समूह या संकलन । ❖ –
(1) पूर्वार्चिक – काण्ड = (5) 1. आग्नेय –
अग्नि देवता, 2. ऐन्द्र – इन्द्र, 3. पवमान- सोम, 4. आरण्य – इन्द्र,
अग्नि, सोम, 5. माहानाम्नी आर्चिक – इन्द्र, विभाजन- कांड = 5, अध्याय,
खंड, मत्र- 650, अध्याय 1 से 5 की ऋचाओं को ‘ग्राम-गान’ कहते हैं। अध्याय-6
= ‘आरण्य कांड’,
‘दशति’ अर्थात (10) ऋचाएँ पूर्वार्चिक के मंत्रों को ‘सामयोनिमंत्र, ‘सामयोनि’ या केवल ‘योनि’ ‘छन्दसंहिता’ भी कहते हैं।
(2) उत्तरार्चिक- अध्याय = 21, प्रपाठक = = 8, सूक्त = 287, मंत्र = 1225, सामवेद की मंत्र संख्या-
पूर्वार्चिक = 650, उत्तरार्चिक = 1225 = (1875) सम्पूर्ण मन्त्रसंख्या। सामवेद में ऋग्वेदीय मंत्र = 1504 + 267
(पुनरूक्त मन्त्र)= 1771, सामवेद में नवीन
मंत्र = 99 + 5 (पुनरूक्त मन्त्र) = 104, 1771 + 104 = (1875) सम्पूर्ण
मत्रसंख्या। सामवेद की शाखाएं – (1000), “सहस्त्रवर्त्मा सामवेदः” (महा.प.)
‘गाये सहस्त्रवर्तनि । गायत्रं त्रैष्टुभं जगत्- सामवेद । वर्तनि=प्रकार,
मार्ग या भेद । सामवेद शाखा- सामवेद की प्रमुख 13 शाखाओं का वर्णन प्राप्त
होता है- 1. राणायन्(राणायनि), 3. व्यास, 2. शाट्यमुग्रय (सात्यमुग्रि), 4.
भागुरि, 5. औलुण्डी 7. भानुमान
औपमन्यव, 6.
गौल्गुलवि, 8. कारालि (दाराल), 9. मशक गार्ग्य (गार्ग्यसावर्णि) 10.
वार्षगव्य वार्षगण्य, 11. कुथुम (कुथुमि, कौथुमि), 12. शालिहोत्र, 13.
जैमिनि, इन 13 शाखाओं में से केवल 3 प्राप्त हैं-
(1) कौथुमीय शाखा, (2) राणायनीय शाखा, (3) जैमिनीय शाखा।
(क) कौथुमीय शाखा-
यह सामवेद की सर्वप्रसिद्ध शाखा है इसमें (1875) मंत्र हैं । विभाजन = अध्याय, खण्ड, मंत्र। कौथुम का प्राचीन रूप – ‘कौसुम’ (रूपान्तर कौथुम) कौथुम शाखा से सम्बद्ध है – पुष्पसूत्र । इस शाखा के उच्चारण की दो पद्धतियां हैं। (1) नागर (2) भद्रा
(ख) राणायनीय शाखा-
इसका विभाजन कौथुमीय के सदृश है तथा पाठभेद और उच्चारणभेद है।
(ग) जैमिनीय शाखा-
इसकी संहिता ‘डॉ. रघुवीर’ ने लाहौर से प्रकाशित की थी। मंत्र संख्या = 1687, कौथुम से 188 मंत्र कम।
गान संख्या = 3681, 959 गान अधिक। जैमिनि के शिष्य- तलवकार। सामवेद के प्रतिपाद्य विषय-
यह मुख्य रूप से उपासना का वेद है । मुख्य
रूप से अग्नि, इन्द्र, सोम इन देवों की स्तुति-उपासना से सम्बद्ध मंत्र
प्राप्त होते हैं। इसमें सोमयाग और पवमान सोम से संबद्ध मंत्रों की संख्या
अधिक है। सामवेदीय संगीत-
स्वर- स्वर संख्या निर्देश प्रकार- उदात्त-
1, अनुदात्त-3, स्वरित-2 । स्वर – 7, ग्राम-3 (मन्द्र, मध्य, तीव्र),
मूर्च्छनाएं-21, तान- 491 मूल स्वर लौकिक स्वर-
(1) उदात्त – निषाद (नि) गान्धार (ग)।
(2) अनुदात्त – ऋषभ (रे) धैवत (ध)।
(3) स्वरित – षड्ज (स) मध्यम (म) पंचम ( प )
। नारदीय शिक्षा के अनुसार तीन स्वर- 1. आर्चिक- एकस्वर, ऋचाओं पर आश्रित ।
2. गाथिक – दो स्वर, गाथाओं पर आश्रित । 3. सामिक – तीन स्वर, सामवेदीय
मत्र । आर्चिकं गाथिकं चैव सामिकं च स्वरान्तरम् कृतान्ते सर्वशास्त्राणां
प्रयोक्तव्यं विशेषतः ॥ एकान्तरः स्वरो ह्यृक्षु गाथासु द्व्यन्तरः स्वरः ।
सामसु त्र्यन्तरं विद्याद् एतावत् स्वरतोऽन्तरम् ॥
सामविकार –
किसी भी ऋचा ( मंत्र ) को गान का रूप देने के लिए कुछ परिवर्तन किए जाते है , इन्हे सामवेद की पारिभाषिक शब्दावली में विकार कहा जाता है , ये छः प्रकार के है । –
(१) स्तोभ (२) विकार (३) विश्लेषण (४) विकर्षण (५) अभ्यास (६) विराम ।।
सामविकार – संगीत के अनुकूल शाब्दिक परिवर्तन को सामविकार कहते है ।
सामगान – सामगान के लिये , पर्क बर्हिष आदि नामों का प्रयोग होता है ।
(१) पूर्वगान – प्रकृतिगान – सामवेद के पूर्वार्चिक खण्ड में पठित मंत्र । इसके दो भेद है । ( ग्रामगेयगान ) ( आरण्यगेयगान
(२) उत्तरगान – उत्तरार्चिक के मन्त्रों पर आश्रित गान ।
सामगान के चार भेद –
(१) ग्रामगेयगान – प्रकृतिगान/वेयगान ‘। यह ग्राम या सार्वजनिक स्थानों पर गाया जाता है ।
(२) आरण्यगान या रण्यक – गेयगान – वन पवित्र स्थान पर गाया जाता है । अतः इसे रहस्यगान भी कहते है ।
आरण्यकाण्ड के सामयोनि मंत्रो को छांदसी ‘ कहते थे और उनके गान को छांदस कहा जाता था ।
(३) ऊहगान – ऊह का अर्थ है – विचार पूर्वक विन्यास । यह सामगान एवं विशेष धार्मिक अवसरों पर गाया जाता था । ऊह कि प्रकृति या आधार वेयगान या प्रकृतिगान है ।
(४) उह्यगान – / रहस्यगान – उह्यगान रहस्यगान है । रहस्यात्म होने के कारण सर्वसाधारण के सामने इसका गान निसिद्ध माना गया है । यह विकृतिगान , कहलाता है ।
।। सामवेद में प्रयुक्त पारिभाषिक शब्द ।।
शस्त्र – स्तोत्र – स्तोम – और – विष्टुति ।
(१) शस्त्र = अप्रगीत – मंत्रसाध्या स्तुतिः शस्त्रम् । गान रहित मंत्र द्वारा स्तुति ।
(२) स्तोत्र = प्रगीत – मंत्रसाध्या स्तुतिः स्तोत्रम् । गानयुक्त मंत्रों द्वारा स्तुति ।
(३) स्तोम = तृच – तीन ऋचा वाले सुक्त ) रूपी स्तोत्रों का आवृत्ति पूर्वक गान । आवृत्तियुक्तं तत्साम स्तोम इत्यभिधियते ।
(४) विष्टुति = विशेष प्रकार की स्तुति । विष्टुति स्तोत्र रूपी तृचों के द्वारा सम्पादित होती है ।
स्तोमों के ९ भेद है ,
(१) त्रिवृत् (२) पंचदश (३) सप्तदश (४) एकविंश (५) चतुर्विंश (६) त्रिणव (७) त्रयस्त्रिंश (८) चतुश्चत्वारिंश (९) अष्टचत्वारिंश
सामगान विभाग ।।
सामगान में पाच विभक्तियां ( विभाग ) होते है ।
(१) प्रस्ताव (२) उद्गीथ (३) प्रतिहार (४) उपद्रव (५) निधन ।।
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