शिक्षा को वेद के छह अङ्गों में से सर्वप्रथम प्रमुख अङ्ग माना गाया है । जिसेवेद की नासिका कहा जाता है , शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य , । हमारें शास्त्रों में विविध प्रकार का वर्णन है उनमें से पाणिनीय शिक्षा सरल एवं स्पष्ट भाषा में लिखा गया एक महत्वपूर्ण एवं प्रमाणिक ग्रन्थ है जिसके रचयिता आचार्य पाणिनि है । यह पद्यात्मक शैली में लिखा गया ग्रन्थ है । जिसमें 63 - 64 श्लोक है ।
अथ शिक्षां प्रवक्ष्यामि पाणिनीयं मतं यथा । शास्त्रानुपूर्व तद्विद्याद् यतोक्तं लोकवेदयोः ।।
हिन्दी अर्थ - पाणिनि मत के अनुसार शिक्षा नामक वेदाङ्ग को कहूँगा । उसे लोक तथा वेद में कहे हुए अनुसार तथा शास्त्रों के प्रवर्तक गुरुओं की परम्परा से प्राप्त समझे ।
वर्ण संख्या -
त्रिषष्टिश्चतुःषटिर्वा वर्णा शम्भुमतेमताः । प्राकृते संस्कृते चापि स्वयं प्रोक्ताः स्वयंभुवा ॥ ३॥
प्रकृति के अनुकूल संस्कृत भाषा में शम्भू के मत में तिरसठ या चौंसठ वर्ण होते है , ब्रह्मा जी ने इसे स्वयं कहा है ।
वर्णगणना -
स्वरा विंशतिरेकश्च स्पर्शानां पञ्चविंशतिः । यादयश्च स्मृता ह्यष्टौ चत्वारश्च यमाः स्मृताः ॥ ४॥
अनुस्वारो विसर्गश्च क–पौ चापि पराश्रितौ । दुःःस्पृष्टश्चेति विज्ञेयो ऋकारः प्लुत एव च ॥ ५ ॥
स्वर - २१ , स्पर्श - २५ , यकारादि ( अन्तस्थ और उष्म ) = ८ , यम - ४ , अनुश्वार - १ , विसर्ग - १ , जिह्वामूलीय उपध्मानीय - २ , प्लुत लृकार - १ = ६३
अनुस्वार के ह्रस्व , दीर्घ या रङ्ग रुप में दो संख्या लेने पर ( ६४ )
वर्णोत्पत्तिप्रक्रिया -
आत्मा बुद्ध्या समेत्यार्थान्मनो युङ्क्ते विवक्षया । मनः कायाग्निमाहन्ति सः प्रेरयति मारुतम् ॥ ६ ॥
मारुस्तूरसि चरन्मन्द्रं जनयति स्वरम् । प्रातःसवनयोगं तं छन्दो गायत्रमाश्रितम् ॥ ७॥
प्रातः सवन में प्रयोज्य और गायत्री छन्द से विशेषतया सम्बद्ध मन्द्र ( गाम्भीर ) स्वर को उत्पन्न करता है - हृदय में । माध्यन्दिन सवन में कण्ठ देश में प्रयोज्य त्रिष्टुप् छन्द से मध्यम स्वर को उत्पन्न करता है - कण्ठ में । सायं सवन में प्रयोज्य तथा जगती छन्द से तार स्वर को उत्पन्न करता है - शिर में ।
वर्ण भेद -
( १ ) स्वर ( २ ) काल ( ३ ) स्थान ( ४ ) आभ्यन्तर प्रयत्न ( ५ ) बाह्यप्रयत्न
स्वरकृतवर्णभेद, कालकृतवर्ण भेद -
तीन स्वर - उदात्त , अनुदात्त , स्वरित ।
तीन कालकृत नियम - ह्रस्व , दीर्घ , प्लुत ।
स्वर - उदात्ते निषादगान्धारावनुदात्तः ऋषभ धैवतौ । स्वरितप्रभवा ह्येते षड्ज मध्यम पञ्चमाः ॥ १२ ॥
उदात्त स्वर = निषाद गान्धार ।
अनुदात्त स्वर = ऋषभ , धैवत ।
स्वरित मूलक स्वर = षड्ज , मध्यम , पञ्चम
वर्णस्थानगणना -
वर्णो के आठ उच्चारण के स्थान है ।
अष्टौ स्थानानि वर्णानामुर: कण्ठः शिरस्तथा । जिह्वामूलं च दन्ताश्च नासिकोष्ठौ च तालु च ।। १३ ।।
(१ ) उरः (२) कण्ठ (३) शिर (४) जिह्वामूल (५) दन्त (६) नासिका (७) ओष्ठ (८) तालु
चारायणीय शिक्षा में ( १९ ) दिये गए हैं ।
उष्मगति भेदा/विसर्गभेद = (८)
ओभावश्च विवृत्तिश्च शषसा रेफ एव च । जिह्वामूलमुपध्मा च गतिरष्टविधोष्मणः ॥ १४॥
(१) ओकार होना (२) विवृत्ति होना (३) शकार होना (४) षकार होना (५) सकार होना (६) रेफ (७) जिह्वामूलीय (८) उपध्मानीय होना ।।
वर्णविशेषस्थाननिरुपण -
हकारं पञ्चमैर्युक्तमन्तस्थाभिश्च संयुतम् । उरस्यं तं विजानीयात्कठ्यमाहुरसंयुतम् ॥ १६॥
परवर्ती वर्ग के पञ्चम वर्ण ङ , ण , न , म , ञ , से और अन्तस्थसंज्ञक ( य , व , र , ल , ) वर्णों से संयुक्त हकार - उरः स्थानक होता है । और इनसे असंयुक्त हकार - कण्ठस्थानक होता है ।
वर्णोच्चारणस्थान -
कण्ठ्यावहाविचुयशास्तालव्या ओष्ठजावुपू । स्युर्मूर्धन्या ऋटुरषा दन्त्या ऌतुलसाः स्मृताः ।। १७ ।।
कण्ठ - अ , ह = तालु - इ , य , श = ओष्ठ - उ , पवर्ग = मूर्धा - ऋ , र , प , टवर्ग = दन्त - लृ , ल , स , तवर्ग ।।
जिह्वामूले तु कुः प्रोक्तो दन्त्योष्ठो वः स्मृतौ बुधैः। एऐ तु कण्ठतालव्या ओऔ तु कण्ठोष्ठजौ स्मृतौ ॥ १८ ॥
जिह्वामूल - कवर्ग = दन्तोष्ठ - व = कण्ठतालु - ए , ऐ = कण्ठोष्ठ - ओ , औ ।।
ए , ओ , ऐ , औ , वर्णविचार -
अर्धमात्रा तु कण्ठ्स्य एकाररैकारयोर्भवेत् । ओकारौकारयोर्मात्रा तयोर्विवृतसंवृतम् ॥ १९ ॥
एकार और ऐकार में कण्ठ्य स्वर की अर्ध मात्रा विवृत कहलाती है । ओकार और औकार के पूर्वभाग में कण्ठ्य स्वर की एक मात्रा संवृत कहलाती है ।
अर्धमात्रा तु कण्ठ्स्य एकाररैकारयोर्भवेत् । ओकारौकारयोर्मात्रा तयोर्विवृतसंवृतम् ॥ १९ ॥
ऐकार और औकार में कण्ठ्यस्थानक अवर्ण की आद्य अर्धमात्रा विवृत कहलाती है । एकार और ओकार में आद्य कण्ठ्यस्थनक अवर्ण की अर्धमात्रा संवृत कहलाती है ।
संवृतं मात्रिकं ज्ञेयं विवृतं तु द्विमात्रिकम् । घोषा वा संऋताः सर्वे अघोषा विवृतः स्मृताः ॥ २० ॥
संवृत = एकमात्रिक ,
विवृत = द्विमात्रिक ,
ह्रस्व अवर्ण = संवृत ,
दीर्घ अवर्ण = विवृत ,
सभी घोषवान वर्ण = संवृत ,
सभी घोषवान = विवृत ,
स्वराणामूष्मणां चैव विवृतं करणं स्मृतम् । तेभ्योऽपि विवृतावेङौ ताभ्यामैचो तथैव च ॥ २१ ॥
स्वर, उष्म वर्ण = विवृत, एड् = विवृततर, ऐच् = विवृततम् ।
अनुस्वार-अयोगवाहस्थानविशेषाः यम-
अनुस्वार और यमसंज्ञक वर्णों का स्थान -नासिका, । अयोगवाह वर्ण अपने आश्रयभूत स्वपूर्ववर्ति स्वर के स्थान को लेने वाले होते हैं।
वर्णोच्चारणविधि-
व्याघ्री यथा हरेत्पुत्रान्दंष्ट्राभ्यां न च पीडयेत् । भीता पतनभेदाभ्यां तद्वद्वर्णान्प्रयोजयेत् ॥ २५ ॥
जिस प्रकार बाघिन गिरने के तथा छेद हो जाने के भय से भयभीत हो दाँतों से बच्चों को ले जाती है, पीड़ा नहीं देती है, उसी प्रकार वर्णों के उच्चारण में भी अधिक शिथिल न हो या न अतीव आघात हो ।
अयोगवाह वर्ण- (6),
1. अनुस्वार 2. बिसर्ग 3. जिह्वामूलीय 4. उपध्यानीय 5. यम 6. नासिका ।
अनुस्वार स्वरूपम्-
स्वर के पीछे आने वाले अनुस्वार को हकार, रेफ और श ष स होने पर सदा = दन्तमूलकस्थान, और इसका उच्चारण लौकी की वीणा के ध्वनि के तुल्य ध्वनि वाला बना कर उच्चारित करना चाहिए।
रङ्ग मात्रा-
रङ्ग का उच्चारण तकँ के उच्चारण काल के समान करना चाहिए ।
रङ्ग की दो मात्रा होती है।
हृदये चैकमात्रस्त्वर्धमात्रस्तु मूर्धनि । नासिकायां तथार्धं च रङ्गस्यैवं द्विमात्रता ॥ २८ ॥
रङ्ग की हृदय में 1 मात्रा, शिर में = 1/2 मात्रा,
नासिका में = 1/2 मात्रा, इस प्रकार रङ्ग की द्विमात्रिकता होती है। द्विमात्रिक उदा. "वृत्तं जघन्वों।"
कम्पस्वरोच्चारण वैशिष्ट्य-
मध्ये तु कम्पयेत्कम्पमुभौ पार्श्वे समौ भवेत् । सरङ्गं कम्पयेत्कम्पं रथीवेति निदर्शनम् ॥ ३० ॥
कम्पस्वर को उच्चारण काल में 'स्वरमध्यभाग' में कम्पित कर के उच्चारित करना चाहिए। मध्य भाग में पूर्व तथा उत्तर के भागों को उदात्त रूप में अथवा अनुदात्त रूप में तुल्य बनाकर उच्चारित करना चाहिए। कम्प स्वर में रङ्ग भी हो तो रङ्गसहित स्वर को कम्पित करके उच्चारित करना चाहिए। उदाहरण- (रथीव) ।
अधम पाठक लक्षण-
"गीती शीघ्री शिरः कम्पी तथा लिखितपाठकः।, अनर्थज्ञोऽल्पकण्ठश्च षडेते पाठकाधमाः ।। ३२ ॥
गाते हुए पढ़ने वाला, शीघ्र पढ़ने वाला, शिर हिलाते हुए पढ़ने वाला, स्वलिखित स्तोत्र को पढ़ने वाला, अर्थ को बिना जाने पढ़ने वाला, अल्प पाठ का कण्ठस्थ करने वाला ये छह पाठक अधम हैं ।
पाठक गुण-
"माधुर्यमक्षरव्यक्तिः पदच्छेदस्तु सुस्वरः । धैर्यं लयसमर्थं च षडेते पाठका गुणाः ।। ३३ ॥
मधुरत्व, स्पष्ट अक्षरों का उच्चारण, पदों का विभाग, सुस्वर, सुन्दर, लययुक्त, ये छह पाठक के गुण हैं ।
सोमयागेषु वाचः स्थानानां प्रयोगस्य नियमाः-
प्रातः सवन' में नित्य 'बाघ' के गर्जन के समान 'उरः' स्थित 'गम्भीर' वर्ण से शास्त्रादि वाक्य पढ़ें।
माध्यन्दिन (बीच के सवन में) 'चकवे' की ध्वनि सदृश 'कण्ठ' स्थित स्वर से शास्त्रादि वाक्य पढ़ें।
तृतीय सवन' में 'तार' स्वर को 'मयूरकोकिल-हंस' सदृश 'शिरः' स्थित 'नाद' के समान स्वर से शास्त्रादि वाक्य पढ़ें।
आभ्यन्तर प्रयत्न-
“अचोऽस्पृष्टा यणस्त्वीषन्नेमस्पृष्टाः शलः स्मृताः । शेषाः स्पृष्टा हलः प्रोक्ता निबोधनुप्रदानतः ।। ३८ ॥
अच्- अस्पृष्ट=विवृत
यण् - ईषत्स्पृष्ट, ईषद्विवृत
शल्- अर्धस्पृष्ट =ईषद्विवृत,
हल - स्पृष्ट
बाह्यप्रयत्न-
मोनुनासिका नहीं नादिनो हषः स्मृताः । ईषन्नादा यणो जश्च श्वासिनस्तु खफादयः ॥ ३९ ॥
ञम्- अनुनासिक, ह, र अनुनासिक रहित, ह, झष - नाद यण्, जश्- ईषन्नाद, खफ़ादि- श्वास प्रयत्न ।
वेदाङ्ग-
छन्दः पादौ तु वेदस्य हस्तौ कल्पोऽथ पठ्यते । ज्योतिषामयनं चक्षुर्निरुक्तं श्रोत्रमुच्यते ।। ४१ ।।
शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य मुखं व्याकरणं स्मृतम्। तस्मात्साङ्गमधीत्यैव ब्रह्मलोके महीयते" ॥ ४२ ॥
छन्द- पैर, निरुक्त- कान, कल्प- हाथ, शिक्षा - नाक, ज्योतिष- आँख, व्याकरण- मुख ।
हस्त में स्वरनिर्देश प्रकार-
उदात्तं प्रदेशिनीं विद्यात्प्रचयं मध्यतोङ्गुलिम् । निहतं तु निधिक्यां स्वरितोपकनिष्ठिकाम् ।। ४४ ।।
उदात्त स्वर - अगूठा तर्जनी के मूल में अग्रभाग जुड़ने पर।
अनुदात्त स्वर - कनिष्ठिका के अग्रभाग जुड़ने पर।
स्वरित स्वर - अनामिक के अग्रभाग जुड़ने पर ।
प्रचय स्वर - मध्यमा के अग्रभाग जुड़ने पर ।
उदात्त = तर्जनी , अनुदात्त = कनिष्ठिका , स्वरित = अनामिका , प्रचय = मध्यमा ।।
पदशय्या :- ( ९ ) प्रकार
अन्तोदात्तमाद्युदात्तमुदात्तमनुदात्तं नीचस्वरितम् । मध्योदात्तं स्वरितं द्व्युदात्तं त्र्युदात्तमिति नवपदशय्या ॥ ४५ ॥
स्वरों के अवस्थितिविशेष से पद 9 प्रकार के होते हैं।
1. अन्तोदान 2. आयुदात्त 3. उदात्त 4. अनुदात्त 5. अनुदात्तस्वरित 6. मध्योदात्त 7. स्वरित 8. ब्युदात्त 9. त्र्युदात्त ।
पाणिनीय शिक्षा मूलपाठ
अथ शिक्षां प्रवक्ष्यामि पाणिनीयं मतं यथा। शास्त्रानुपूर्वं तद्विद्यात् यथोक्तं लोकवेदयोः॥ १ ॥
प्रसिद्धमपि शब्दार्थमविज्ञातमबुद्धिभिः । पुनर्व्यक्तीकरिष्यामि वाच उच्चारणे विधिम् ॥ २॥
त्रिषष्टिश्चतुःषटिर्वा वर्णा शम्भुमतेमताः । प्राकृते संस्कृते चापि स्वयं प्रोक्ताः स्वयंभुवा ॥ ३॥
स्वरा विंशतिरेकश्च स्पर्शानां पञ्चविंशतिः । यादयश्च स्मृता ह्यष्टौ चत्वारश्च यमाः स्मृताः ॥ ४॥
अनुस्वारो विसर्गश्च क–पौ चापि पराश्रितौ । दुःःस्पृष्टश्चेति विज्ञेयो ऋकारः प्लुत एव च ॥ ५ ॥
आत्मा बुद्ध्या समेत्यार्थान्मनो युङ्क्ते विवक्षया । मनः कायाग्निमाहन्ति सः प्रेरयति मारुतम् ६ ॥
मारुस्तूरसिचरन्मन्द्रं जनयति स्वरम् । प्रातःसवनयोगं तं छन्दो गायत्रमाश्रितम् ॥ ७॥
कण्ठे माध्यन्दिनयुगं मध्यमं त्रैष्टुभानुगम् । तारं तार्तीयसवनं शीर्षण्यं जागतानुगतम् ॥ ८॥
सोदीर्णो मूर्ध्न्यभिहतो वक्रमापद्य मारुतः । वर्णाञ्जनयते तेषां विभागः पञ्चधा स्मृतः ॥ ९॥
स्वरतः कालतः स्थानात्प्रयत्नादनुप्रदानतः । इति वर्णविदः प्राहुर्निपुणं तन्निबोधत ॥ १०॥
उदातानुदात्तश्च स्वरितश्च स्वरास्त्रयः । ह्रस्वो दीर्घः प्लुत इति कालतो नियमा अचि ॥ ११॥
उदात्ते निषादगान्धारावनुदात्त ऋषभधैवतौ । स्वरित्प्रभवा ह्येते षड्जमध्यमपञ्चमाः ॥ १२॥
अष्टौ स्थानानि वर्णानामुर: कण्ठः शिरस्तथा । जिह्वामूलं च दन्ताश्च नासिकोष्ठौ च तालु च १३॥
ओभावश्च विवृत्तिश्च शषसा रेफ एव च । जिह्वामूलमुपध्मा च गतिरष्टविधोष्मणः ॥ १४॥
ययोभावप्रसमुकारादिपरं पदम् । स्वरान्तं तादृशं विद्यादन्यद्व्यक्तमूष्मणः ॥ १५॥
हकारं पञ्चमैर्युक्तमन्स्थाभिश्च संयुतम् । औरस्यं तं विजानीयात्कठ्यमाहुरसंयुतम् ॥ १६॥
कण्ठ्यावहाविचुयशास्तालव्या ओष्ठजावुपू । स्युर्मूर्धन्या ऋटुरषा दन्त्या ऌतुलसाः स्मृताः १७
जिह्वामूले तु कुः प्रोक्तो दन्त्योष्ठो वः स्मृतो बुधैः। एऐ तु कण्ठतालव्या ओऔ तु कण्ठोष्ठजौ स्मृतौ ॥ १८॥
अर्धमात्रा तु कण्ठ्या स्यादेकारैकारयोर्भवेत् । ओकारौकारयोर्मात्रा तयोर्विवृतसंवृतम् ॥ १९॥
संवृतं मात्रिकं ज्ञेयं विवृतं तु द्विमात्रिकम् । घोषा वा संऋताः सर्वे अघोषा विवृतः स्मृताः ॥२०॥
स्वराणामूष्मणां चैव विवृतं करणं स्मृतम् । तेभ्योऽपि विवृतावेङौ ताभ्यामैचो तथैव च ॥ २१॥
अनुस्वार यमानां च नासिका स्थानमुच्यते । अयोगवाहा विज्ञेया आश्रयस्थानभागिनः ॥ २२॥
अलाबुवीणानिर्घोषो दन्तमूल्यस्वराननु । अनुस्वारस्तु कर्तव्यो नित्यम् होः शषसेषु च ॥ २३॥
अनुस्वारे विवृत्यां तु विरामे चाक्षरद्वये । द्विरोष्ठ्यौ तु विगृह्णीयाद्यत्रोकारवकारयोः ॥ २४॥
व्याघ्री यथा हरेत्पुत्रान्दन्ताभ्यां न तु पीडयेत् । भीता पतनभेदाभ्यां तद्वद्वर्णान्प्रयोजयेत् ॥ २५॥
यथा सौराष्ट्रिका नारी तक्रꣳ इत्यभिभाषते । एवम् रङ्गाः प्रयोक्तव्याः खे अराꣳ इव खेदया ॥२६
रङ्गवर्णं प्रयुञ्जीरन्नो ग्रसेत्पूर्वमक्षरम् । दीर्घस्वरं प्रयुञ्जीयात्पश्चान्नासिक्यमाचरेत् ॥ २७॥
हृदये चैकमात्रस्त्वर्धमात्रस्तु मूर्धनि ।नासिकायां तथार्धं च रङ्गस्यैवं द्विमात्रता ॥ २८॥
हृदयादुत्करे तिष्ठन्कांस्येन समनुस्वरम् । मार्दवं च द्विमात्रं च जघन्वाꣳ इति निदर्शनम् ॥ २९॥
मध्ये तु कम्पयेत्कम्पमुभौ पार्श्वौ समौ भवेत् । सरङ्गं कम्पयेत्कम्पं रथीवेति निदर्शनम् ॥ ३०॥
एवं वर्णाः प्रयोक्तव्या नाव्यक्ता न च पीडिताः । सम्यग्वर्णप्रयोगेन ब्रह्मलोके महीयते ॥ ३१॥ ॥
गीती शीघ्री शिरःकम्पी तथा लिखितपाथकः । अनर्थज्ञोऽल्पकण्ठश्च षडेते पाठकाधमाः ॥ ३२
माधुर्यमक्षरव्यक्तिः पदच्छेदस्तु सुस्वरः । धैर्यं लयसमर्थं च षडेते पाठका गुणाः ॥ ३३॥
शङ्कितं भीतमुत्कृष्टमव्यक्तमनुनासिकम् । काकस्वरं शिरसि गतं तथ स्थानविवर्जितम् ॥ ३४॥
उपांशु दष्टं त्वरितं निरस्तं विलम्बितं गद्गदितं प्रगीतम् । निष्पीडितं ग्रस्तपदाक्षरं च वदेन्न न दीनं न तु सानुनास्यम् ॥ ३५॥
प्रातः पठेन्नित्यमुरःस्थितेन स्वरेण शार्दूलरुतोपमेन । मध्यंदिने कण्ठगतेन चैव चक्राह्वसंकूजितसन्निभेन ॥ ३६
तारं तु विद्यात्सवनं तृतीयं शिरोगतं तच्च सदा प्रयोज्यम् । मयूरहंसान्यमृतस्वराणां तुल्येन नादेन शिरःस्थितेन ॥ ३७॥
अचोऽस्पृष्टा गणस्त्वीषन्नमस्पृष्टा शलः स्मृताः । शेषाः स्पृष्टा हलः प्रोक्तानिबोचानुप्रदानतः॥३८
ञमोनुनासिका नह्रो नादिनो हझषः स्मृताः ।ईषन्नादा यणो जश्च श्वासिनस्तु खफादयः ॥ ३९॥
ईषत्छ्वासांश्चरो विद्याद्गोर्धामैतत्प्रचक्षते । दाक्षीपुत्रः पाणिनिना येनेदं व्यापितं भुवः ॥ ४०॥
छन्दः पादौ तु वेदस्य हस्तः कल्पोऽथ पठ्यते । ज्योतिषामयनं चक्षुर्निरुक्तं श्रोत्रमुच्यते ॥ ४१॥
शिक्षा प्राणं तु वेदस्य मुखं व्याकरणं स्मृतम् । तस्मात्साङ्गमधीत्येव ब्रह्मलोके महीयते ॥ ४२॥
उदात्तमाख्याति वृषोऽङ्गुलीनां प्रदेशिनीमूलनिविष्टमूर्धा ।उपान्तमध्ये स्वरितं धृतं च कनिष्ठिकायामनुदात्तमेव।४३॥
उदात्तं प्रदेशिनीं विद्यात्प्रचयो मध्यतोङ्गुलीम् । निहतं तु कनिष्ठिक्यां स्वरितोपकनिष्ठिकाम् ४४
अन्तोदात्तमाद्युदत्तमुदात्तमनुदातं नीचस्वरितम् ।मध्योदात्तं स्वरितं द्व्युदात्तं त्र्युदात्तमिति नवपदशय्या॥ ४५॥
अग्निः
बोमः प्रवो वीर्यं हविषं स्वर्बृहस्पतिरिन्द्राबृहस्पती
।अग्निरित्यन्तोदात्तं सोम इत्याद्युदत्तं प्रेत्युदात्तं दीर्घं
नीचस्वरितम् ॥ ४६॥
हविषां मध्योदात्तंस्वरिति स्वरितं बृहस्पतिरिति ।द्व्युदात्तमिन्द्राबृहस्पती इति त्रुदात्तम् ॥ ४७॥
अनुदात्तो हृदि ज्ञेयो मूर्ध्न्युदात्त उदाहृतः । स्वरितः कर्णमूलीयः सर्वास्ये प्रचयः स्मृतः ॥ ४८॥
चाषस्तु वदते मारां द्विमात्रो चैव वायसः । शिखी रौति त्रिमात्रस्तु नकुलस्त्वर्धमात्रकः ॥ ४९॥
कुतीर्थादागतं दग्धमपवर्णं च भक्षितम् । न तस्य पठे मोक्षोऽस्ति पापार्हरिव किल्बिषात् ॥ ५०॥
सुतिर्थदागतं व्यक्तं स्वाम्नाय्यं सुव्यवस्थितम् । सुस्वरेण सुवक्रेण प्रयुक्तं ब्रह्म राजते ॥ ५१॥
मन्त्रो हीनः स्वरतो वर्णतो वा मिथ्याप्रयुक्तो न तदर्थमाह । स वग्वज्रो यजमानं हिनस्ति यथेन्द्रशत्रुः स्वरतोऽपराधात् ॥ ५३॥
अनक्षरं हतायुष्यं विस्वरं व्याधिपीडितम् । अक्षता शस्त्ररूपेण वज्रं पतति मस्तके ॥ ५४॥
हस्तहीनं तु योऽधीते स्वरवर्णविवर्जितम् । ऋग्यजुःसामभिर्दग्धो वियोनिमधिगच्छति ॥ ५५॥
हस्तेन वेदं योऽधीते स्वरवर्णाथसंयुतम् । ऋग्यजुःसामभिः पूतो ब्रह्मलोके महीयते ॥ ५५॥
शङ्करः शङ्करीं प्रादाद्दाक्षीपुत्रायधीमते । वाङ्मयेभ्यः समाहृत्य देवीं वाचमिति स्थितिः ॥ ५६॥
येनाक्षरसमाम्नायमधिगम्य महेश्वरात् । कृत्स्नं व्याकरणं प्रोक्तं तस्मै पाणिनये नमः ॥ ५७॥
येन धौता गिरः पुंसां विमलैः शब्दवारिभिः । तमश्चाज्ञानजं भिन्नं तस्मै पाणिनये नमः ॥ ५८॥
अज्ञानान्धस्य लोकस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै पाणिनये नमः ॥ ५९॥
त्रिनयनमभिमुखनिःसृतामिमां य इह पठेत्प्रयतश्च सदा द्विजः ।स भवति धनधान्यपशुपुत्रकीर्तिमानमतुलं च सुखं समश्नुते दिवीति दिवीति ॥ ६०॥
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