मध्यकालीन हिन्दी कविता

मध्यकालीन हिन्दी कविता

हिन्दी कविता की एक हजार वर्षो की विकास-यात्रा में मध्यकालीन काव्य को साहित्य की प्रवृत्तियों के आधार पर भक्तिकाल और रीतिकाल के रूप में अभिहित किया जाता हैं । कालक्रम की दृष्टि से भक्तिकाल पूर्वमध्य काल और रीतिकाल उत्तर मध्यकाल कहा जाता है ।

मध्यकाल भारत में सामाजिक राजनीतिक दृष्टि से उथल पुथल भरा और संघर्षो का काल रहा है । मध्य-पूर्व एशिया के देशों से शासन के रूप में एक विभिन्न जाति के आगमन से भारत में परिवर्तन की तेज लहर दृष्टिगत होती है ।

राजनीतिक पटल पर मुस्लिम और हिन्दू शासकों और सामंतों के बीच राजनीतिक सत्ता के लिए संघर्ष चला । सामाजिक सत्ता पारम्परिक वर्णाश्रम व्यवस्था के अनुसार तथोक्त ऊँची जातियों के पास थी ।

सामाजिक रूप से निम्न स्तर पर जीवन जिनें वाली जातियों की बडी संख्या थी । वर्ण व्यवस्था से बाहर पडी हुई दलित जातियाँ भी थी । मुस्लिम धर्म आने के बाद मुस्लिम धर्म एक विकल्प के रूप में इन जातियों के लोगों को सुलभ हो गया ।

बहुत सी अस्पृश्य या दलित जातियों ने धर्मान्तरण कर स्लाम को स्वीकार कर लिया था । समाज में सामाजिक दृष्टि से नए ढंग की गतिशीलता दिखाई पडती है । इनमें नया सामाजिक आत्मविश्वास दिखाई देता है ।

इस काल के कविता के भावबोध में अपनी पूर्ववर्ती कविता की तुलना में आए परिवर्तन को लक्ष्य करते हुए ग्रियर्सन ने लिखा है , कोई भी मनुष्य जिसे प्रन्द्रहवीं तथा बाद की शताब्दियों का साहित्य पढने का मौका मिला है , उस भारी व्यवधान को लक्ष्य किए बिना नही रह सकता , जो पुरानी और नई धार्मिक भावनाओॆ में विद्यमान है ।

हम अपने को ऐसे धार्मिक आंदोलन के सामने पाते हैं , जो उन सब आंदोलनों से कहीं अधिक व्यापक और विशाल है , क्योकि इसका प्रभाव आज भी विद्यमान है । इस युग में धर्म ज्ञान का नहीं बल्कि भावावेश का विषय गो गया था ।

हिन्दी कविता के भाव-बोध में आए इस बदलाव को चिह्नित करते हुए चिन्तकों – आलोचकों ने इसे भक्तिकाल नाम दिया । उत्तर भारत में इस भक्तिकाल के उद्भव और विकास को लेकर आलोचकों में मैतक्य नहीं है ।

भक्ति के उदय के सम्बन्ध में आ.रामचन्द्र शुक्ल देश में इस्लामी राज्य सत्ता की प्रतिष्ठा को मानते है । इससे हिन्दू जनता के हृदय में हताशा , निराशा फैल गई थीं । इस हताश-निराश जाति के सामने ईश्वर के सामनें जाने के सिवा रास्ता क्या था ? जबकि आ,हजारी प्रसाद द्विवेदी का मत है कि भारत में इस्लाम नहीं भी आया होता तों भी भक्तिकाल अपनी स्वाभाविक गति से आता । वह इसे भारतीय चिंता की प्राणधारा का सामाजिक विकास मानते है ।

हिन्दी के भक्ति काल के साहित्य की शुरूआत इसी नीची समझने जाने वाली जातियों में जन्मे लोगों के सांस्कृतिक विकास से हुई । इनके ऊपर नए इस्लाम धर्म के साथ साथ पूर्व के सिद्ध और नाथ कवियों व सन्तों का प्रभाव पडा ।

उत्तर भारत में भक्ति का प्रारम्भ निर्गुण भक्तों / सन्तों से माना जाता है । ये सभी सन्त प्रायः सामाजिक रूप से पिछडीं जातियों में उत्पन्न थे । इन सन्तों ने समाज में व्याप्त सामाजिक स्तर भेद , असमानता और ऊँच – नीच की भावना को धर्म – विरूद्ध माना । वेद और धर्मशास्त्रों के नाम पर प्रचलित धार्मिक- सामाजिक मान्यताओं और रूढियों का तीव्र खण्डन किया सन्तों ने । ब्राह्मण और शूद्र की मानवीय समानता की घोषणा भक्त सन्तों ने की । इन्होनें रहनी अर्थात् आचार व्यवहार री शुद्धता को प्रमुखता दी । ईश्वर उनके लिए त्राता के रूप में नहीं बल्कि मित्र या प्रियतम के रूप में काम्य है । इन सन्तों के द्वारा रचित दोहों या पदों को निर्गुण भक्ति – काव्य के अन्तर्गत गिना जाता है ।

भक्तिकाल को राम विलास शर्मा ‘लोक जागरण’ कहते हैं तो नामवर सिंह इसे ‘सांस्कृतिक आंदोलन’ मानते हैं। नामवर सिंह के अनुसार – “भक्तिकाल एक व्यापक सांस्कृतिक आन्दोलन था, जिसके मूल में यह धारणा निहित थी कि विद्यमान व्यवस्था में कहीं कोई भारी गड़बड़ी हो गई है। सभी भक्त कवियों की रचनाओं में इस प्रकार के भाव मिलते हैं। इस गड़बड़ी के कारणों और इनसे उबरने के उपायों के संबंध में मतभेद है। निर्गुण शाखा के कवि इसमें परिवर्तन चाहते थे और धार्मिक बाह्याचार को इसका कारण समझते थे। सगुण मत वालों के अनुसार इस बुराई की जड़ यह है कि वर्णाश्रम व्यवस्था में शिथिलता आ गई है, सभी वर्णों के लोग अपने कर्त्तव्य से च्युत हो गए हैं। इसलिए इसको सुधारने का तरीका यह है कि इस व्यवस्था को फिर से पुराने आदर्श के अनुसार ढाला जाए।

भक्ति काल के साहित्य को प्रायः दो कोटियों में विभाजित किया जाता है “निर्गुण भक्ति साहित्य और सगुण भक्ति साहित्य। निर्गुण भक्ति साहित्य को भी सन्त काव्य और सूफी काव्य में विभाजित किया जाता है। सन्त साहित्य में सामाजिक असन्तोष का स्वर बहुत तीव्र है। वर्णाश्रम व्यवस्था और जाति-पाँति आधारित समाज-व्यवस्था सन्त कवियों को स्वीकार नहीं थी। सूफी साहित्य में लोक में प्रचलित प्रेम कथानकों को आधार बनाकर प्रेमाख्यानों की रचना की गई। भक्ति आन्दोलनों की शुरुआत निर्गुण मत वालों के साथ हुई और सगुण मत के भक्तों ने उसे पर्याप्त विकसित किया।

सगुण भक्ति को राम और कृष्ण के साकार रूप की आराधना के आधार पर राम भक्ति और कृष्ण भक्ति शाखा के रूप में पहचान मिली। इसके मूल में अवतारवाद की कल्पना और पुनर्जन्म में विश्वास है। राम के प्रति वैधीभक्ति और कृष्ण के प्रति रागानुगा भक्तिपूरित रचनाएं लिखी गईं। ये भगवान के रूप को मानवीय और उनसे सम्बन्ध को व्यक्तिगत रूप में स्वीकारते हैं। सूरदास, मीरा, रसखान आदि कृष्णभक्ति के प्रमुख कवि हैं। कृष्ण भक्ति शाखा के सूरदास की भक्ति में ‘भावाकुल व्यक्तिवाद’ मिलता है। रामभक्ति शाखा के तुलसीदास प्रमुख कवि हैं। इनमें ‘मर्यादावाद’ प्रमुख है (आचार्य रामचंद्र शुक्ल सूरदास को ‘लोकमंगल की सिद्धावस्था’ और तुलसीदास को ‘लोकमंगल की साधनावस्था’ का कवि मानते हैं ।

ढाई-तीन सौ वर्षों के भक्तिकाल को हिन्दी का स्वर्ण-युग कहा जाता है। इसी काल में कबीर ने कहा “संस्कीरत कूप जल भाखा बहता नीर”। लगभग सभी भक्त-कवि इस बात पर सहमत हैं। सभी ने लोकभाषा या देशभाषा की श्रेष्ठता को स्वीकारा। संस्कृत की श्रेष्ठता के बाद भी भक्त कवियों ने लोकभाषा में रचनाएं कीं। कबीर ने पंचमेल सधुक्कड़ी, जायसी और तुलसी ने अवधी, मीराँ ने राजस्थानी और सूरदास ने ब्रजभाषा में काव्य लिखा।

इस समय तक ब्रजभाषा काव्यभाषा के रूप में सर्वस्वीकृत हो चुकी थी। अवधी में ‘रामचरित मानस जैसा महाकाव्य रचने वाले तुलसीदास को भी अपनी निपुणता दिखाने के लिए ब्रजभाषा में काव्य रचना करनी पड़ी। भक्तिकाल पर टिप्पणी करते हुए नामवर सिंह कहते हैं “यह एक ऐसा दौर था, जिसमें पहली बार आम जनता सांस्कृतिक मोर्चे पर सक्रिय हुई। उसने पहली बार अपने संत और कवि पैदा किए। चमार (रैदास), जुलाहे (कबीर), डोम (नाभादास), धुनिया (दाइ), छीपी (नामदेव), नाई (सेन), कसाई (सधना) आदि ने अपनी आशाओं और आकांक्षाओं को वाणी दी।

भक्ति काल का आरम्भिक उल्लास और जीवंतता प्रायः मंद पड़ने लगी। सामाजिक असंतोष को वाणी देने वाली ऊर्जा धीरे-धीरे शिथिल पड़ने लगी। भक्ति की लौ मंद पड़ने लगी। ऐहिकता बढ़ने लगी। संघर्ष का दौर खत्म हो चुका था। राजनीति में भी संघर्ष की जगह ऐश्वर्य-विलास ने ले ली थी। इस प्रवृत्ति पर टिप्पणी करते हुए नामवर सिंह कहते हैं – “साहित्य जहाँ उत्पादक वर्ग से सम्बन्धित था, वहाँ अब उपभोक्ता वर्ग के विलास की वस्तु बनने लगा। कवि झोंपड़ी छोड़कर राजमहलों में पहुँचने लगे। इससे हिन्दी कविता में एक नई प्रवृत्ति शुरू हुई।”

भक्तिकाल की कविता के केन्द्र में ईश्वर था, यद्यपि ईश्वर की लीलाभूमि यह जगत् था। इसलिए भक्तिकालीन काव्य के ईश्वरोन्मुख होने के कारण ‘प्राकृत जनों का गुणगान करने से काव्य-कर्म के सांसारिक होने का भय था। कवियों के लिए यह देस ‘बिराना’ था अर्थात् संसार त्याज्य था। संसार सुन्दर होते हुए भी त्याग की वस्तु था। पर जैसे ही ईश्वर के प्रति आस्था क्षीण हुई, काव्य-विषय भी बदला। ‘राधा-कन्हाई’ कविता के केन्द्र में होते हुए सुमिरन के बहाने हो गए। राधा-कृष्ण के प्रेम की आड़ में कवियों ने लौकिक श्रृंगार के फुटकर पदों की रचना प्रारम्भ कर दी।

उत्तर-मध्यकाल के आते आते राजनीतिक संघर्ष सीमित होने लगा था। मुगल साम्राज्य का वैभव स्थापित हो चुका था। यह समृद्धि और विकास का समय है। भक्तिकाल से यह इसी अर्थ में भिन्न है कि इसमें विलासिता ही मुख्य कर्म हो गया। नवाब, सामंत, मनसबदार, जागीरदार सभी आकंठ भोगविलास में डूबे हुए थे ।

हिन्दी में रीति-काव्य के विकसित होने के बहुत से कारण बताए जाते हैं। हला है – संस्कृत में इसकी लम्बी परंपरा, दूसरा है – भाषा कवियों को मिलने वाला राज्याश्रय। काव्य-रचना भी इस विलासतापूर्ण जीवन में शामिल हो गई। कुछ राजा भी स्वयं काव्य-रचना का शौक रखते थे। जो शासक स्वयं कवि-कर्म न कर पाते, वे कवियों को आश्रय देते। राज्याश्रय प्राप्त कर कवि उन्हें रिझाने के लिए काव्य रचने लगे। इससे इस काल में काव्य-सृजन स्वयं उद्देश्य बन गया। काव्य के बाहर काव्य का प्रयोजन सीमित हो जाने से काव्य के विषय-वस्तु और काव्य-उपादान भी सीमित हो गए। कविता लोक जीवन से कटकर दरबारों की सजावट की वस्तु बन गई। आश्रयदाता को संतुष्ट करना कवियों का उद्देश्य बन गया। इस काल की कविता पर नामवर सिंह कहते हैं – “इस दौर में दरबारी कवियों को फारसी की प्रेमपूर्ण कविता का भी मुकाबला करना था।

रीतिकाल के कवियों के सामने फारसी के कवि आदर्श और चुनौती थे। इन सब का परिणाम यह निकला कि सीमित उपादानों में कवि-प्रतिभा कुंठित होने लगी।” इस युग की कविता पर टिप्पणी करते हुए ठाकुर ने लिखा कि – “मीन मृग खंजन कमल नैन’ और ‘जस और प्रताप की कहानी’ सीखकर ‘लोगन कवित्त कीबो खेल करि जानो है।”

केशवदास की ‘कवि प्रिया’ और ‘रसिक प्रिया’ से रीतिकालीन कविता का प्रारम्भ माना जाता है। लक्षण ग्रन्थों की रचना-परंपरा चिंतामणि त्रिपाठी से चली। इसके बाद तो लक्षण ग्रन्थों की बाढ़ सी आ गई। इससे कविता लिखने की एक विशिष्ट रूढ़ि बन गई। लक्षण ग्रन्थकर्त्ता पहले एक छंद में किसी रस, छंद या अलंकार के लक्षण बता देते फिर उसी के उदाहरण रूप में मुक्तक कविता लिख देते। कहने की जरूरत नहीं कि संस्कृत साहित्य में कवि और शास्त्रकार दो भिन्न व्यक्ति हुआ करते थे । प्रायः आचार्य अपने सिद्धांत की स्थापना के लिए प्रसिद्ध कवियों की रचनाओं से उदाहरण दिया करते थे। लेकिन हिन्दी में यह अन्तर समाप्त हो गया । एक ही व्यक्ति साहित्य-सिद्धान्तों की स्थापना और कवि-रचना दोनों कर रहा था। इससे हिंदी में संस्कृत काव्य शास्त्र के चिंतन की संक्षिप्त उद्धरिणी ही प्रस्तुत हो गई। उदाहरण देने के लिए काव्य-रचने के कारण इस दौर के कवियों में उस स्वच्छंद कल्पना और मौलिक उद्भावना के दर्शन नहीं मिलते।

रीतिकाल को आलोचकों और इतिहासकारों ने दो प्रमुख श्रेणियों में बाँटा है. – रीतिबद्ध और रीतिमुक्त । रीतिबद्ध श्रेणी की पहचान रीति सिद्ध के रूप में भी होती है। ये कवि लक्षण ग्रन्थों के रूप में काव्य-सृजन कर रहे थे। रीति भक्त कवि रीतिबद्ध लक्षणों से मुक्त थे।
रीतिकाल का मूल्याङ्कन करते हुए आ. रामचन्द्र शुक्ल का मत है, ‘ग्रन्थों के कर्त्ता भावुक, सहृदय और निपुण कवि थे। उनका उद्देश्य कविता करना था, न कि काव्यांगों का शास्त्रीय विवेचन करना । अतः उनके द्वारा बड़ा भारी कार्य यह हुआ कि रसों (विशेषत: शृंगार रस) और अलंकार के बहुत ही सरल और हृदयग्राही उदाहरण अत्यंत प्रचुर परिमाण में प्रस्तुत हुए। ऐसे सरस और मनोहर उदाहरण संस्कृत के सारे लक्षण-ग्रन्थों से चुनकर इकट्ठे करें तो भी उनकी इतनी अधिक संख्या न होगी।’ रीतिकाल के महत्त्वपूर्ण कवियों में केशवदास, बिहारी, देव, मतिराम, भिखारीदास पद्माकर आदि हैं। इनके अतिरिक्त कुछ कवि रीति-मुक्त भी थे।

इस समय रीतिबद्ध परिपाटी पर रचना करने वाले कवियों से अलग कुछ कवि रीति-मुक्त रचनाएं भी करते थे। इनमें घनानन्द, बोधा, ठाकुर आदि हैं। इनमें रूढ़ि पालन कम और स्वच्छंदता अधिक मिलती है। इसीलिए इन्हें रीतिमुक्त की संज्ञा से अभिहित किया जाता है। ये कवि शृंगारी हैं पर इनके यहाँ रूढ़ियों का पालन नहीं मिलता है। इनमें नायिका भेद का रूढ़ि विधान नहीं है, प्रेमी और प्रिय के बीच दूती की भी कोई भूमिका नहीं है। रीतिबद्ध काव्य बहिर्जगत को ही देखता-दिखाता है जबकि रीतिमुक्त काव्य बहुत हद तक अन्तर्मुखी है।
रीति काल का मूल्याङ्कन करते हुए नामवर सिंह कहते हैं, “हिंदी का रीतिकाव्य सामंती विलास का सुन्दर दर्पण है।”… काव्य भाषा के रूप में ब्रजभाषा का एकछत्र शासन स्थापित हो गया और यह ब्रजभाषा भी वाक्सिद्ध कवियों के हाथों सज-सँवर कर अत्यन्त लोचयुक्त, ललित और व्यंजक काव्यभाषा बन गई। रीतिकाव्य ने हिन्दी में एक बहुत बड़े काव्य-रसिक सहृदय समाज का निर्माण किया, जिसका प्रभाव आधुनिक दिनों तक परिलक्षित होता रहा। अनेक सीमाओं के बावजूद रीतिकाल ने हिन्दी साहित्य में में भी बहुत युग काव्य-कला और शब्द-साधना की चेतना जगाई, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।”

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