सूरदास की कथा

सूरदास की कथा

सर्वाधिक प्राचीन स्रोत ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ और ‘अष्टसखान की वार्ता’ के अनुसार सूर का जन्म सं० 1535 में दिल्ली के निकट सीही नामक गांव में बसने वाले एक गरीब ब्राह्मण परिवार में हुआ। सूरदास जन्मांध थे या बाद में अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवि मिल्टन की तरह अंधे हुए – इस बात को लेकर बड़ा विवाद है। लेकिन सूरदास ने बार-बार अपने पदों में स्वयं को अंधा कहा है- ‘सूर कहा कहौं द्विविध आंधरो । ‘


माता-पिता की निर्धनता और अपनी अंधता के कारण सूरदास को परिवार का स्नेह नहीं मिल सका और बचपन में ही विरक्त होकर घर से निकल पड़े। मथुरा और आगरा के बीच यमुना नदी के तीर गऊघाट पर सूरदास वैराग्यभाव से विनय के पद रचते और गाकर भक्तों के हृदय को आनंद विभोर कर देते थे। एक बार बल्लभाचार्य ब्रज जाते हुए गऊघाट पर रुक गए। सूरदास ने उन्हें विनय के पद सुनाये। बल्लभाचार्य मुग्ध हो गए और उधर सूरदास बल्लभाचार्य जैसे गुरु को प्राप्त कर कृतकृत्य हो उठे।


बल्लभाचार्य ने सूरदास को पुष्टिमार्ग में दीक्षित करते हुए कहा कि सूर होकर अपने पदों में इतनी दीनता क्यों प्रकट करते हो, कुछ भगवत – लीला का वर्णन करो – ‘सूर ह्वै के ऐसो काहे को घिघियातु है कछु भगवत लीला वर्णन करि’। तब से सूरदास दीन-भाव के पद बनाना छोड़कर लीला के पद रचने लगे।


सूरदास बल्लभाचार्य द्वारा स्थापित पुष्टिसम्प्रदाय (वैष्णव भक्ति की एक शाखा जिसमें भगवान की कृपा को सब कुछ माना जाता है और भगवान को सखा भाव से भजा जाता है) के सर्वश्रेष्ठ भक्त कवि थे। बल्लभाचार्य के बाद उनके सुपुत्र विट्ठलनाथ ने पुष्टि सम्प्रदाय के सर्वश्रेष्ठ आठ कवियों की एक मंडली बनाई, जो अष्टछाप के नाम से प्रसिद्ध है। सूरदास इसी अष्टछाप के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भक्त कवि थे ।


सगुण शाखा के अंतर्गत कृष्ण भक्तिधारा के अनन्य भक्त कवि सूरदास के पच्चीस ग्रंथ कहे जाते हैं, पर इनमें से अनेक प्रामाणिक सिद्ध नहीं होते और कुछ (सूरसागर) के अंश मात्र हैं। सूरदास की प्रामाणिक रचनाएँ हैं ( सूरसागर, सूर-सारावली, साहित्य-लहरी, सूरपंच्चीसी, सूरसाठी तथा सूरदास के विनय के पद आदि ।

सूरदास की कविता में वात्सल्य और शृंगार का मणिकांचन योग देखने को मिलता है। आचार्य सूरदास शुक्ल ने लिखा है “ शृंगार और वात्सल्य के क्षेत्र में जहाँ तक इनकी दृष्टि पहुँची वहाँ तक और किसी कवि की नहीं।” इन दोनों क्षेत्रों में तो इस महाकवि ने मानो औरों के लिए कुछ छोड़ा ही नहीं। बाल मनोदशाओं और बाल-क्रीड़ाओं के सूक्ष्म-से-सूक्ष्म हर पहलू का जैसा रूपांकन सूर के काव्य में उपलब्ध होता है, अन्यत्र दुर्लभ है। सूक्ष्म निरीक्षणों से भरा हुआ सूर का बालवर्णन मनोविज्ञान की अनेक प्रक्रियाओं को दरसाता है। माता जसोदा कान्हा को पालने में झुला रही है और आनंदित हो रही है – ‘जसोदा हरि पालनै झुलावै’। मुँह में दही लेपे बाल कृष्ण अद्भुत सुंदर दिख रहे हैं – ‘सोभित कर नवनीत लिए । ‘


श्रृंगार के दोनों पक्ष संयोग और वियोग में सूर का काव्योत्कर्ष देखते ही बनता है। सूर की गोपियों का प्रेम कोई सीमा नहीं जानता। वह कोई बंधन नहीं मानता, न संयोग में न वियोग में। उसका लक्ष्य है – तन्मयता । कृष्ण के वियोग में गोपियों के साथ व्रज की पूरी प्रकृति वियोग में जल रही है ‘विरह वियोग श्याम सुंदर के ठाढ़े क्यों न जरे।’ मैनेजर पाण्डेय के शब्दों में” सूर का प्रेम आज भी रूढ़ि मुक्त समाज और प्रेम के लिए संघर्ष में प्रेरणाप्रद है।”


भ्रमरगीत’ की वाग्विदग्धता विलक्षण है। आचार्य शुक्ल गोपियों के वाक् चातुर्य पर रीझकर लिखते हैं, “सूर का सबसे मर्मस्पर्शी वाग्विदग्धपूर्ण अंश ‘ भ्रमरगीत’ है जिसमें गोपियों की वचनवक्रता अत्यंत मनोहारिणी है। ऐसा सुंदर उपालंभ काव्य और कहीं नहीं मिलता।” उद्धव का ज्ञान धरा का धरा रह जाता है जब गोपियाँ उन्हें असफल व्यापारी की संज्ञा देती हैं- “आयो घोष बड़ो व्यापारी” गोपियाँ अपने वाक्चातुर्य से निर्गुण भक्ति की धज्जियां उड़ा देती हैं। वे कहती हैं कि यह निर्गुण निराकार कृष्ण कौन है, किस देश का वासी है, मुझे नहीं मालूम – निर्गुन कौन देस को वासी’। जिस भक्ति में भगवान का कोई रूप-रंग ही न हो, वह भक्ति किस काम की – ‘अविगत-गति कछु कहत न आवै।”

विनय के पद [1]

अविगत-गति कछु कहत न आवै ।

ज्यों गूँगे मीठे फल कौ रस अंतरगत ही भावै ।

परम स्वाद सबही सु निरंतर अमित तोष उपजावै ॥

मन-बानी कौं अगम अगोचर, सो जानै जो पावै ।

रूप-रेख – गुन-जाति-जुगति-बिनु निरालंब कित धावै ॥

सब बिधि अगम बिचारहि ताते सूर सगुन-पद गावै ॥

विनय के पद [2]

हमारे प्रभु औगुन चित न धरौ ।

समदरसी है नाम तुम्हारौ, सोई पार करौ ।

इक लोहा पूजा मैं राखत, इक घर बधिक परौ।

सो दुबिधा पारस नहिँ जानत, कंचन करत खरौ ।

इक नदिया इक नार कहावत, मैलौ नीर भरौ ।

जब मिलि गए तब एक बरन है, गंगा नाम परौ ।

तन माया, ज्यौं ब्रह्म कहावत, सूर सु मिलि बिगरौ ।

कै इनकौ निरधार कीजिये, कै प्रन जात टरौ ।

बाल लीला के पद [3]

जसोदा हरि पालनै झुलावै ।

हलरावै, दुलराइ मल्हावै, जोइ सोइ कछु गावै ।

मेरे लाल कौं आउ निँदरिया, काहँ न आनि सुवावै ।

तू काहै नहिँ बेगहिँ आवै, तोकौं कान्ह बुलावै ।

कबहुँ पलक हरि मूँदि लेत हैं, कबहुँ अधर फरकावै ।

सोवत जानि मौन है कै रहि, करि करि सैन बतावै ।

इहिँ अन्तर अकुलाइ उठे हरि, जसुमति मधुरैं गावै ।

सुख सूर अमर-मुनि दुरलभ, सो नँद – भामिनि पावै ।

बाल लीला के पद [4]

सोभित कर नवनीत लिए ।

घुटुरुनि चलन रेनु-तन-मंडित, मुख दधि लेप किए।

लैन्दर चारु कपोल, लोल लोचन, गोरोचन- तिलक दिए ।

लट-लटकनि मनु मत्त मधुप गन मादक मधुहिँ पिए ।

कठुला कंठ, बज्र केहरि नख, राजत रुचिर हिए।

धन्य सूर एको पल इहिँ सुख को सत कल्प जिए ॥

वियोग श्रृंगार [5]

मधुबन तुम कत रहत हरे ।

बिरह वियोग स्याम सुंदर के ठाढ़े क्यौं न जरे ।

मोहन बेनु बजावत तुम तर, साखा टेकि खरे

मोहे थावर अरु जड़ जंगम, मुनि जन ध्यान टरे ।

वह चितवनि तू मन न धरत है, फिरि फिरि चुहुप धरे ।

पुष्पा ‘सूरदास’ प्रभु बिरह दवानल, नख सिख लौं न जरे ॥

वियोग श्रृंगार [6]

आयो घोष बडों ब्यापारी ।

लादि खेप गुन ज्ञान – जोग की ब्रज में आय उतारी ।

फाटकी दै कर हाटत माँगत भौरै निपट तु भारी ।

धुर ही तें खोटो खायो है लये फिरत सिर भारी ।

इनके कहे कौन डहकावै ऐसी कौन अजानी ?

अपनो दूध छाँडि को पीवै खार कूप को पानी ।

ऊधो जाहु सबार यहाँ तें बेगि गहरु जनि लावो ।

मुँहमाग्यो पैंहो सूरज प्रभु साहुहि आनि दिखावौ ।

वियोग श्रृंगार [7]

हरि हैं राजनीति पढि आए ।

समुझी बात कहत मधुकर जो ? समाचार कछु पाए ?

एक अति चतुर हुते पहिले ही , अरु करि नेह दिखाए ।

जानी बुद्धि बडी , जुवतिन को जोग सँदस पठाए ।

भले लोग आगे के , सखि री ! परहित डोलत धाए ।

वे अपने मन केरि पाइए जे हैं चलत चुराए ।।

ते क्यों नीति करत आपनु जे औरनि रीति छुडाए ।

राजधर्म सब भए सूर जहँ प्रजा न जायँ सताए ।।

निर्गुन कौन देस को बासी ?

मधुकर ! हँसि समुझाय , सौंह दै बूझति साँच , न हाँसि ।।

को है जनक , जननि को कहियत , कौन नारि को दासी ?

कैसौ बरन भेस है कैसौ केहि रस में अभिलासी ।

पावैगो पुनी कियो आपने जो रे ! कहैगो गाँसी ।

सुनत मौन ह्वै रह्यो ठग्यो सो सूर सबै मति नासी ।।  

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