कबीर नें धर्म और समाज के संघटन के लिए समस्त बाह्याचारों का अंत करने और प्रेम से समान धरातल पर रहने का एक सर्वमान्य सिद्धान्त प्रतिपादित किया । पंरपराओं के उचित संचयन तथा परिस्थितियों की प्रेरणा में कबीर ने ऐसे विश्वधर्म की स्थापना की जो जन - जीवन की व्यवहारिकता में उतर सके और अन्य धर्मों के प्रसार में समानता रखते हुए अपना रूप सुरक्षित रख सके ।

जाके मुँह माथा नहीं , नहीं रूपक रूप । पुहुप वास ते पातला , ऐसा तत्व अनूप ।।
नाम के अनुसार कबीर एक महान भक्त हुए । अरबी भाषा में कबीर का अर्थ महान होता है तभी तो भक्त माल आइन-ए-अकबरी ,परचई,खाजीनत -उलआसफिया तथा दाबिस्तान ई-तवारीख सरीखे प्राचीन ग्रंन्थों मे कबीर की महानता दर्शायी गई है । आधुनिक युग में रवीन्द्र नाथ टैगोर , श्यामसुन्दर दास , पीताम्बर दत्त , बडथ्वाल , परशुराम चतुर्वेदी , हरप्रसाद शास्त्री , गोविन्द त्रिगुणायत तथा हजारी प्रसाद द्विवेदी आदि विद्वानों ने कबीर की महत्ता की पडताल की वर्तमान में कबीर पर डाॅ पुरूषोत्तम अग्रवाल की पुस्तक ' अकथ कहानी प्रेम की ' काफी चर्चा हो रही है
उत्तर भारत के प्रथम भक्त कवि कबीरदास के जन्म वर्ष , स्थान , एवं उनकी जाति - धर्म - आदि के बारे में विद्वानों के बीच काफी मतभेद है । इसका कारण यह है कि उन्होने स्वयं अपने बारे में स्पष्टतया कुछ नही लिखा है । सन् 1600 ई. में अनन्तदास रचित , श्री कबीर साहबजी परचई के अनुसार
"कबीर जुलाहे थे और काशी में निवास करते थे । वे गुरू रामानंद के शिष्य थे । इन्होनें 120 वर्ष की आयु पायी । अधिकांश शोध कबीर का जन्म संवत् 1455 में होना मानते हैं । नीरू और नीमा नामक जुलाहे दंपति के घर कबीर पले-बढे ।
कबीर पर उपनिषद् के अद्वैतवाद और इस्लाम के ऐकेश्वरवाद का प्रभाव था । साथ ही कबीर पर वैष्णव भक्ति का गहरा प्रभाव है । कबीर नें रामनन्द के सगुण राम को निर्गुण और वर्णनातीत बना दिया ।
कबीर की कविता में गुरू महिमा , संत - महिमा , सत्संगति के लाभ तथा ईश - विनय - आदि की प्रमुखता है । उनका समस्त साहित्य धर्म , समाज , आचरण , नैतिकता तथा व्यवहार संबंधी विषयों का भंडार है । कबीर ने कटु आलोचना पद्धति को अपनाकर बडी निर्भीकता एवं तेजस्विता के साथ पंडित , पुजारी , मौलवी , अवधूत , वैरागी , सभी को फटकारा है । सभी धर्मों के बाह्याडंबरों में व्याप्त अनैतिक आचरणों की घोर निंदा की है । अपनी स्पष्टवादिता एवं निष्पक्षता के कारण ही कबीर का साहित्य जनसाधारण की दृष्टि में अत्यन्त महान एवं प्रभावशाली है ।
कबीर के साहित्य में उच्चकोटि के समन्वयवाद की झाँकी मिलती है । इसमें हिन्दू - धर्म तथा इस्लाम धर्म में समता स्थापित करने का प्रयत्न हुआ है । वर्ण - भेद एवं वर्ग भेद को दूर करके जाति - पाति एवं छुआछूत की भावना को नष्ट करने का प्रयास है । कबीर में हृदय की सच्चाई एवं अनुभूति का प्राधान्य है , जिसे कबीर नें प्रतीकों के माध्यम से बडी सजीवता एवं मार्मिकता के साथ प्रस्तुत किया है ।
कबीर में दर्शन एवं रहस्यानुभूति के तत्व भी मिलते है । इनकी दार्शनिक अभिव्यक्तियों में हंस , सती , इडा , नाडी , पिङ्गला , गङ्गा , सुन्दरी , विरहिणी स सूर्य आदि प्रतीक शब्दों का प्रयोग हुआ है । काव्य अभिव्यक्ति में स्त्री मायारूपा होती है , फलस्वरुप नारी के प्रति निंदा भाव भी कहीं - कहीं मिल जाते है । प्रेम की महिमा कबीर साहित्य का वैशिष्ट्य है । जब वें परम तत्व से दिव्य - प्रेम की मस्ती में होते है - तब उनकी सर्वश्रेष्ठ कविता फूटती है ।
भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था । कबीर के मर्मज्ञ विद्वान पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी नें उन्हें वाणी का डिक्टेटर कहा है । उनकी भाषा में कई भाषाओं का मिश्रण था , इसलिए उनकी भाषा सधुक्कडी भाषा कहलाती है । कई स्थानों पर उन्होनें उलटबासी भाषा का प्रयोग किया है , जो बाह्य रूप से नितान्त असंगत प्रतीत होती है किन्तु गहराई से देखने पर उसमें खास तरह की संगती होती है ।
साखी , सबद और रमैनी कबीर की रचनाएं मानी जाती हैं तथा , इनका संकलन ,, बीजक ,, कहलाता है ।।
।। कबीर के दोहे ।।
गुरुदेव कौ अङ्ग
1. सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपगार । लोचन अनँत उघाड़िया, अनँत दिखावण वार ॥
2. पीछें लागा जाइथा, लोक वेद के साथि । आगें थैं सतगुरु, मिल्या दीपक दीया हाथि ॥
सुमिरण कौ अंग
3. लंबा मारग दूरि घर, विकट पंथ बहुमार । । कहौ संतौ क्यूँ पाइये दुर्लभ हरि दीदार ॥
बिरह कौ अंग
4. हँसि हँसि कंतन पाइए, जिनि पाया तिनि रोइ । जो हाँसें ही हरि मिलै, तौ नहीं दुहागनि कोइ ॥
ग्यान बिरह कौ अंग
5. आहेड़ी दौं लाइया, मिरग पुकारे रोइ । जा बन में क्रीला करी, दाझत है बन सोइ ॥
साखियाँ
6. हाथी चढ़िए ज्ञान कौ, सहज दुलीचा डारि । स्वान रूप संसार है, भूँकन दे झख मारि ॥
7. पखापखी के कारनै, सब जग रहा भुलान । निरपख होइ कै हरि भजै, सोई संत सुजान ॥
पद
जतन बिन मिरगन खेत उजारे
टारे टरत नहीं निस बासुरि, बिडरत नहीं बिडारे ॥ टेक ॥
अपने-अपने रस के लोभी, करतब न्यारे न्यारे ।
अति अभिमान बदत नहीं काहू, बहुत लोग पचि हारे ।
बुधि मेरी किरषी, गुर मेरौ विझका, अखिर दोइ रखवारे ।
कहै कबीर अब खान न दैहूँ, बरियाँ भली सँभारे ॥
लोका मति के भोरा रे ।
ज्यूँ जल मैं जल पैंसि न निकसै, यूँ दुरि मिलै जुलाहा ।।
राँम भगति परि जाकौ हित चित, ताकौ अचिरज काहा ।
गुरु प्रसाद साध की संगति, जग जीते जाइ जुलाहा ॥
कहै कबीर सुनहु रे संतो भ्रमि परें जिनि कोई ।
जस कासी तस मगहर कैंसर हिरदै राँम सति होई ॥
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