इस प्रकार कुछ दिन बीतने पर चन्द्रापीड का युवराज पद पर अभिषेक करने के इच्छुक राजा तारापीड ने द्वारपालों को सामग्री-समूह एकत्र करने के लिए आदेश दिया। किसी दिन दर्शन करने के लिए (शुकनास मन्त्री के समीप) आये हुये, उस चन्द्रापीड को जिसका यौवराज्य अभिषेक होने वाला था, विनयी होने पर भी अधिक विनयी बनाने की इच्छा से शुकनास ने विस्तार सहित कहा-
प्रिय चन्द्रापीड! तुमने जानने योग्य (सब कुछ) जान लिया है; सब शास्त्र पढ़ लिये हो, अतएव आप को कुछ भी उपदेश देने योग्य विषय (शेष) नहीं है, तथापि यौवन से उत्पन्न (अविवेक रूपी) अन्धकार स्वभाव से ही अत्यन्त सघन होता है, जो न सूर्य (के प्रकाश) से भेदा जा सकता है, न मणियों की कान्ति से नष्ट किया जा सकता है, और न (ही) दीपकों के प्रकाश से दूर किया जा सकता है। धन से उत्पन्न नशा ऐसा तीक्ष्ण होता है जो अन्तिम अवस्था में (भी) शान्त नहीं होता है। ऐश्वर्यरूपी तिमिर (नामक) रोग से उत्पन्न अंधापन दूसरे ही प्रकार का होता है, जो कष्टदायक तथा 'सुरमे' की सलाई से भी ठीक नहीं किया जा सकता। अभिमानरूपी दाहक ज्वर की गर्मी अत्यन्त तीक्ष्ण होती है, जो शीतल उपचारों से भी दूर नहीं की जा सकती। विषयरूपी विष के सेवन से उत्पन्न मुर्च्छा ऐसी भयानक होती है, जिसे निरन्तर जड़ी-बूटी व मन्त्रों के प्रयोग से भी नहीं हटाया जा सकता। आसक्तिरूपी मल का लेप इतना प्रबल होता है जिसे नित्य स्नान व शुद्धि के द्वारा भी नष्ट नहीं किया जा सकता है, और राज्यसुख संयोगरूपी निद्रा ऐसी गहरी होती है जिसमें कि रात्रि की समाप्ति पर भी जागरण नहीं होता, इसलिए आप से सविस्तार कह रहा हूँ।
गर्भ से ही (राज्य का) स्वामी हो जाना, नवयौवन का होना, अनुपम सौन्दर्य का होना तथा अलौकिक सामर्थ्य का होना, यह सब वस्तुतः अनों की लम्बी कड़ी है। इनमें से एक ही दूराचारों का घर है, फिर इन सबके समूह का तो कहना ही क्या? यौवन के आरम्भ में प्रायः बुद्धिशास्त्र रूपी जल द्वारा धुलने से (भी) निर्मल होने पर भी मलिनता को प्राप्त हो जाती है। युवकों की दृष्टि सफेदी को न छोड़ने के कारण रागयुक्त (लाल, अनुराग युक्त) हो जाती है। युवावस्था में रजोगुण के कारण उत्पन्न भ्रम वाला स्वभाव, पुरुष को अपनी इच्छा से उसी प्रकार बहुत दूर खींच ले जाता है, जिस प्रकार धूलि के चक्कर से युक्त बवंडर सूखे पत्ते को दूर तक लेकर चला जाता है। (सूखे पत्ते को दूर तक जाने में पत्ते का कोई सामर्थ्य नहीं होता है यह सामर्थ्य वायु का होता है, ठीक उसी प्रकार युवावस्था का सामर्थ्य होता है, जो युवकों को उनके लक्ष्य से दूर तक लेकर चला जाता है)।
इन्द्रियरूपी हरिणों को हरने वाली, वह विषयभोगरूपी मृगतृष्णा परिणाम में सदा दुःख देने वाली है। नवयौवन से कसैले (रागद्वेष युक्त) अन्तःकरण वाले व्यक्ति के मन को वे ही भोगे जाने वाले विषय (कसैले मुख वाले व्यक्ति के मन को) जल के समान अधिक मधुर प्रतीत होते हैं। (भावार्थ यह है कि जिस प्रकार जल का अपना कोई स्वाद नहीं होता है परन्तु आँवला आदि खा लेने से उसमें भी मीठेपन का अनुभव होने लगता है, उसी प्रकार विषय वासनाओं में कोई स्वाद न होने पर भी युवावस्था के कारण उसमें भी स्वाद आने लगता है) कुमार्ग की ओर ले जाने वाला दिशाभ्रम की भाँति (कुमार्ग की ओर ले जाने वाला) विषयों में अत्यधिक लगाव पुरुष को नष्ट कर देता है। आप जैसे लोग ही उपदेशों के पात्र होते हैं; क्योंकि निर्मल स्फटिक मणि में चन्द्रकिरणों की भाँति निर्मल मन में (भी) उपदेशों के गुण आसानी से प्रवेश पा लेते हैं।
गुरु का उपदेश वाक्य हितकारी (निर्मल) होता हुआ भी (दुष्ट) व्यक्ति के कान में पड़ने पर वैसे ही अत्यधिक पीड़ा उत्पन्न करता है जैसे निर्मल होता हुआ भी कान में पड़ा हुआ जल, किन्तु यही (गुरुवचन) शिष्ट (व्यक्तियों) के (कान में पड़ने पर) मुख की शोभा में वैसे ही और भी अधिक वृद्धि कर देता है जैसे शंखों का गहना हाथी के मुख की शोभा में (उपकार होता है, उसी प्रकार) गुरु का उपदेश उसी दोषसमूह को निर्मल बनाता हुआ गुणरूप में वैसे ही बदल देता है जैसे बुढ़ापा केश समूह को स्वच्छ बनाता हुआ श्वेतरूप में।
विषयों के रस के आस्वादन से दूर (रहने हेतु) तुम्हारे लिए उपदेश का यही (उचित) समय है, क्योंकि कामदेव के बाणों के प्रहार से छिदे हुए हृदय में उपदेश जल की भाँति बह जाता है अर्थात् चू जाता है। श्रेष्ठकुल या विद्या दुष्ट स्वभाव वाले व्यक्ति के विनय का कारण नहीं होता। (अर्थात् स्वभाव जन्म जात होते हैं क्योंकि लंका में रहने वाला विभीषण राम का भक्त था वहीं अयोध्या में रहने वाला दुर्मुख सीता जी के परित्याग का कारण बना) चन्दन से उत्पन्न आग क्या जलाती नहीं? अथवा क्या शान्ति के कारण 'जल' से भी समुद्र की आग और अधिक नहीं भभक उठती अर्थात् भभक उठती है।
गुरूजनों का उपदेश पुरुषों के सम्पूर्ण मलों को धोने में सामर्थ्यवान, बिना जल का स्नान है, बालों की सफेदी आदि, बुढ़ापे का बड़प्पन है। (अर्थात् जब बाल पक जाते हैं तो व्यक्ति के व्यक्तित्व में गंभीरता आ जाती है) चर्बी बढ़ाये बिना गुरुता प्रदान करने वाला है (गंभीरता का आशय गंभीर स्वभाव से है, यद्यपि चर्बी भी व्यक्ति को गंभीर (भारी) बना देती है पर वह शारीरिक रूप से गंभीर बनाती है उसका व्यक्तित्व गंभीर नहीं होता है लेखक का यही भाव है), सोने से बना न होने पर सुन्दर कर्णाभूषण है, बिना चमक का प्रकाश है, बेचैनी उत्पन्न करने वाला जागरण है। विशेष रूप से राजाओं के लिए, उपदेश देने वाले बहुत कम होते हैं, (इसका कारण स्पष्ट रूप भारवि ने अपने किरातार्जुनीयम् में इसी भाव को प्रकट करने के उद्देश्य से ही लिखा है
प्रतिध्वनि की भाँति लोग भय से राजाज्ञा का अनुसरण ही किया करते हैं (अर्थात् जो राजा कहता है उसकी हाँ में हाँ मिलाते हैं उनको इस बात से कोई असर नहीं पड़ता कि उनके इस चाटुकारिता से राज्य का कितना अहित हो सकता है) और उत्कट गर्वरूपी सूजन के सँधे हुए कर्णछिद्र वाले, वे राजा लोग उपदेश रूप में सुनाये जा रहे विषय को भी नहीं सुनते और सुनते हुए भी हाँथी के समान आँख मूँदकर अवहेलना करते हुए हितकारी उपदेश देने वाले गुरुओं को दुःख पहुँचाया करते हैं। (अर्थात् उन्हें ही दण्डित कर देते हैं) राजा का स्वभाव अहंकाररूपी ताप से उत्पन्न अचेतना के कारण खोया-खोया सा चञ्चल रहता है, (अर्थात् अस्थिर रहता है) धन झूठा अभिमान तथा उन्माद पैदा करने वाले हैं। राजलक्ष्मी राज्यरूपी विष के विकार से उत्पन्न आलस्य देने वाली हैं।
कल्याण से अनुराग रखने वाले (सबसे पहले) आप लक्ष्मी को ही देख लें। कुशल सैनिक के कृपाण रूपी समूह कमलवन में विचरण करने वाली भ्रमरी स्वरूपा यह लक्ष्मी मानो साथ रहने से परिचय हो जाने के कारण (सहवासियों का) वियोग दुःख दूर करने के लिए चिह्नरूप में पारिजात वृक्ष के पल्लवों से राग (लालिमा, अनुराग, प्रेम) चन्द्रमा की कोर से सर्वथा वक्रता, (कुटिलता) उच्चैश्रवा घोड़े से चञ्चलता (चपलता, अस्थिरता) कालकूट विष से मोहनशक्ति (मुच्छित करना, या वश में करना), मदिरा से मद (नशा या अभिमान) तथा कौस्तुभमणि से कठोरता, निर्दयता ये सब साथ लेकर क्षीर सागर से निकली। (पौराणिक कथा के अनुसार क्षीर सागर का जब मंथन किया गया तो उससे १४ प्रकार के रत्न निकले उन शेष १३ रत्नों में जो दुर्गुण थे वे सभी लक्ष्मी ने ग्रहण कर लिया। समुद्र से निकलने वाले १४ रत्न इस प्रकार हैं-कालकूट नामक विषय, एवं अन्त में अमृत की प्राप्ति होती है)। इस संसार में इनके समान अपने परिचितों को ठुकरा देने वाला कोई नहीं है, जैसे यह नीच लक्ष्मी। (भावार्थ यह है कि परिचित व्यक्ति अपने परचितों की उपेक्षा करने में एक बार संकोच करता है पर लक्ष्मी में संकोच की कोई संभावना नहीं की जा सकती है।
(लक्ष्मी की) प्राप्ति हो जाने पर भी यह वस्तुतः (बड़ी) कठिनता से रखी जाती है। गुणों के कठिन पाशों (रस्सी) से निश्चय की गयी भी छिप जाती है। उत्कृष्ट गर्व वाले हजारों सैनिकों से तीक्ष्ण की गयी तलवारों के पिंजरे में पकड़कर रखी जाने पर भी निकल भागती है। मदजल की वर्षा से अन्धकार करने वाले हाथियों की मेघमाला से सुरक्षित करने पर भी पलायित हो जाती है, (ये लक्ष्मी) न परिचितों की रक्षा करती है, न कुल को देखती है, न रूप को देखती है, न कुलपरम्परा का अनुसरण करती है, न शील को देखती है, न पाण्डित्य को गिनती है, न शास्त्र की बात सुनती है, न धर्म की ओर झुकती है, न त्याग का आदर करती है, न विशेष जानकारी का विचार करती है, न आचार का पालन करती है, न सत्य को समझती है, (और)न लक्षण को प्रमाण मानती है।
यह लक्ष्मी गन्धर्वनगर की रेखा के समान देखते-देखते ही ओझल हो जाती है। (आकाश में मिथ्या रूप में जो नगर दिखायी देता है उसे गन्धर्व नगर कहते हैं)। (समुद्र मन्थन के समय) मन्दराचल के घूमने से बने भँवरों में चक्कर लगाने से उत्पन्न संस्कार वाली यह मानो अब भी घूमती रहती है। कमलिनी में विचरण के सम्पर्क से लगे कमलनाल के काँटो से घायल होकर मानो यह कहीं जमकर पैर नहीं रखती। (अर्थात् स्थायी रूप से इनका निवास कहीं भी नहीं होता है) रईसों के घरों में बड़े प्रयत्न से स्थिर की गयी भी यह मानो, अनेक मदोन्मत्त हाथियों की कनपटी से बहने वाले मद का पान करने से मतवाली होकर निकल जाती है। निष्ठुरता सीखने के लिए मानो, अनेक तलवार की धार में निवास करती है। विश्वरूपता ग्रहण करने के लिए मानों यह विष्णु के शरीर का आश्रय लिये हुए है (गीता में भगवान् कृष्ण ने ११वें अध्याय में विश्वरूपता का वर्णन किया जिसमें कृष्ण ने अनेक रूपों को प्रदर्शित किया है इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर लक्ष्मी की तुलना उनसे की गयी है) अत्यधिक अविश्वसनीय यह सायंकालीन कमल की भाँति जिसका जड़नाल, मध्यभाग तथा बाह्य विस्तार पूरी तरह से वृद्धि को प्राप्त है, उस राजा को भी छोड़ देती है जिसका मूल - स्वामी अमात्य जनपद दुर्ग दण्ड कोष मित्र पर अवलम्बित है को छोड़ देती हैं।
लता जैसे वृक्षशाखाओं पर चढ़ जाती है, वैसे ही यह लक्ष्मी (भी) मजबूत व्यक्ति का सहारा लेती है। गङ्गा जैसे वसु नामक देवताओं की जननी होती हुई भी तरङ्गों और बुलबुलों से चञ्चल है वैसे ही यह लक्ष्मी धन की जननी होती हुई भी तरङ्ग एवं बुलबुलों के समान चञ्चल है। सूर्य की गति जैसे मेघ, वृष आदि अनेक संक्रान्तियों को व्यक्त करने वाली है वैसे ही यह लक्ष्मी अनेक व्यक्तियों के पास घूमने वाली है। पातालगुफा जैसे अधिक अन्धकार वाली है, वैसे ही यह लक्ष्मी अधिक तमोगुण वाली है। हिडिम्बा राक्षसी जैसे केवल भीमसेन के साहस से हरने योग्य हृदय वाली थी, वैसे ही यह लक्ष्मी केवल प्रचण्ड साहस से वश में करने योग्य हृदय वाली है। बिजली को चमकाने वाली वर्षा के समान यह थोड़े समय तक प्रकाश करने वाली है। पिशाचिनी जैसे (एक के ऊपर दूसरे को खड़ा करने पर) अनेक पुरुषों के बराबर ऊँचाई प्रदर्शित करके थोड़े साहस वाले व्यक्ति को पागल बना देती है। वैसे ही यह लक्ष्मी अनेक पुरुषों को उन्नति दिखाकर निर्बल हृदय वाले व्यक्ति को (उन्नति पाने की आशा में) पागल बना देती है।
विद्वानों को मानो ईर्ष्या के कारण गले नहीं लगाती। अपवित्र की भाँति गुणवान् पुरुष को नहीं छूती। अशुभ की भॉति उदार हृदय व्यक्ति का सम्मान नहीं करती। अपशकुन की भाँति सज्जन को नहीं देखती, सर्प की भाँति सत्कुलोत्पन्न को लाँघ जाती है। काँटे की भाँति वीर को त्याग देती है। बुरे स्वप्न की भाँति दानी को याद नहीं करती। पापी की भाँति विनयी के पास नहीं जाती। पागल की भाँति दृढ़ संकल्प व्यक्ति का मजाक उड़ाती है।
(यह लक्ष्मी) संसार में जादू-सा दिखाती हुई अपना परस्पर विरोधी चरित्र प्रकट करती है।
जैसे-निरन्तर ऊष्मा (१. गर्मी, २. दर्प) उत्पन्न करती हुई भी, जड़ता- (१. शीतलता, २. मूर्खता) उत्पन्न करती है। उन्नति (१. उच्चता, २. उत्कर्ष) को धारण करती हुई भी, नीचस्वभावता (१. नीचापन, २. दूषितवृत्ति) प्रकट करती है। जलराशि से उत्पन्न होकर भी तृष्णा (१. प्यास, २. लोलुपता) बढ़ाती है। ईश्वरता (१. शिवत्व, २. ऐश्वर्य) को धारण करती हुई भी अशिवस्वभावता (१. शिवभिन्नता, २. अमङ्गलस्वभाव) को फैलाती है। बल में वृद्धि करती हुई भी हल्कापन (१. निर्बलता, २. तुच्छता) लाती है। अमृत की सगी बहन होकर भी कड़वे स्वाद वाली । (१. कटुफला, २. दुःखदपरिणामा) है। विग्रह (१. शरीर, २. कलह) वाली होकर भी साक्षात् न दिखने वाली है। पुरुषोत्तम (१. श्रेष्ठपुरुष, २विष्णु में प्रेम रखकर भी नीच पुरुषों से प्रेम करने वाली)। रेणुमयी- (१. धूलिनिर्मित २. रजोगुणनिर्मित), यह स्वच्छ (१. निर्मल, २. रागद्वेष शून्य) को भी कलुषित (१. मलिन, २. दोषी) बना देती है।
जैसे-जैसे यह चञ्चला (लक्ष्मी) चमकती है वैसे- वैसे दीपक की लौ के समान केवल काजल से मलिन कर्मों को ही उगलती है; क्योंकि यह तृष्णा (लालच) की विष-बेलों को बढ़ाने वाली जलधारा है, इन्द्रियरूपी हरिणों को फँसाने के लिए बहेलियों का मधुरगीत है, सच्चरित्र रूपी चित्रों को ढक देने वाली धुएँ की (काली) रेखा है, मोहरूपी लम्बी नींद के लिए विलास भरी सेज है, धन मदरूपी प्रेतनियों के रहने के लिए टूटी-फूटी अटारी है, शास्त्ररूपी दृष्टियों के लिए तिमिर नामक रोग की उत्पत्ति है, सब प्रकार के अविनयों के आगे फहरने वाली झण्डी (अर्थात् पताका) है।
लक्ष्मी क्रोध के आवेशरूपी मगरमच्छों की उत्पत्ति के लिए नदी हैं, विषयरूपी मदिरा के पीने का स्थान है, भृकुटी- विकाररूपी अभियानों का रङ्गमञ्च है, दोषरूपी विषैले सर्पों के रहने की गुफा है, शिष्टाचारों को हटाने की बेंत की छड़ी है, गुणरूपी मधुरभाषी हंसों के लिए अकाल-वर्षा है, लोक निन्दारूपी फोड़ों के फैलने की जगह है, कपटरूपी नाटक की प्रस्तावना है, कामरूपी हाथी के लिए केले का वन है, सज्जनता का सत्याग्रह है, धर्मरूपी चन्द्रमण्डल के लिए राहु की जीभ है।
मैं ऐसे किसी पुरुष को नहीं देखता हू। जिसे इस अपरिचिता लक्ष्मी ने पूरी तरह से न अपनाया हो अथवा जिसे धोखा न दिया हो। निश्चित रूप से, यह चित्रलिखित होती हुई भी चञ्चलता दिखाती है, पुतली बनाकर रखी हुई भी जादू दिखाती है, पत्थर में खोदकर रखी हुई भी धोखा देती है, सुनी हुई भी छल करती है, सोची हुई भी ठगती है और इस प्रकार की भी इस दुराचारिणी से जैसे-तैसे भाग्यवश ग्रहण किये गये (अपनाये गये) राजा लोग विह्वल हो जाते हैं और सब दुराचारों के निवास स्थान बन जाते हैं।
उदाहरण के लिए क्योंकि राज्याभिषेक के समय ही इनकी उदारता मानो, मङ्गलकलशों में धो दी जाती है, यज्ञकर्म के धुँए से मानो हृदय को मलिन कर दिया जाता है, पुरोहित की कुशाओं के अग्रभागरूपी बुहारियों (झाडू) से मानो सहनशीलता दूर फेंक दी जाती है, पगड़ी के बाँधने से मानो बुढ़ापे के आगमन की स्मृति ढक दी जाती है, छत्रमण्डल से मानो परलोक दृष्टि रोक दी जाती है, चंवर की हवा से मानो सत्य बोलने की आदत उड़ा दी जाती है, बेंत की छड़ियों से मानो गुण हटा दिये जाते हैं, जय-जयकार के कोलाहल की ध्वनि से मानो अच्छे वचन तिरस्कृत कर दिये जाते हैं। ध्वजों की पल्लव सदृश पताकाओं से मानो यश पोंछ दिया जाता है।
कुछ राजा लोक थकान के कारण शिथिल पक्षी के कण्ठदेश की भाँति चञ्चल, जुगनू के प्रकाश की भाँति थोड़ी देर के लिए मनोहर और मनस्वी जनों द्वारा निन्दित सम्पत्तियों के प्रलोभन में आते हुए थोड़ा-सा धन मिल जाने के घमण्ड से अपने जन्म की बात भूलकर (वात-पित्त-कफ जनित) अनेक दोषों से व्याप्त विकृत रक्त की भाँति (कामक्रोधादि-जनित) अनेक दोषों से बढ़े हुए विषयानुराग के आवेश से कष्ट पाते हुए अनेक विषयों के उपभोग में लालसा रखने वाली (इन पाँच होती हुई भी मानो अनेक सहस्त्र संख्या वाली इन्द्रियों से क्लेश पाते हुए तथा स्वभाव से चञ्चल होने के कारण अवसर पाकर एक होते हुए भी हजार रूप में दिखने वाले मन से व्याकुल किये जाते हुए विह्वलता को प्राप्त हो जाते हैं।
वे राजा लोग मानो ग्रहों से घेर लिए जाते हैं, मानो भूतों से दबा लिए जाते हैं, मानो मन्त्रों से आविष्ट कर दिए जाते है, मानो हिंसक जन्तुओं से पकड़ लिए जाते हैं, मानो वायु से पीड़ित किए जाते हैं, मानो पिशाचों से निगल लिए जाते हैं, मानो कामदेव के बाण से मर्मस्थल पर चोट खाकर सहस्त्रों मुखविकार करते हैं। (तरह- तरह का मुँह बनाते हैं।) मानो धन की गर्मी से झुलसते हुए छटपटाते हैं, मानो तीव्र प्रहारों से घायल होकर अङ्गों को नहीं संभाल पाते। केकड़ों की भाँति टेढ़े चलते हैं, पाप के कारण नष्ट गति वाले, पंगुओं की भाँति दूसरे से चलाये जाते हैं।
असत्य भाषणरूपी विष के परिणामस्वरूप मुखरोग उत्पन्न होने से मानो वे बड़े कष्टों से बोल पाते हैं। सप्तपर्ण वृक्ष जैसे पुष्यों की रज के विकार से समीपवर्ती लोगों के सिर में दर्द पैदा कर देते हैं वैसे ही राजा लोग रजोगुण से उत्पन्न अपमानसूचक नेत्रभङ्गिमा से समीपवर्ती लोगों के सिर में दर्द पैदा कर देते है, मरणासन्न व्यक्तियों की भाँति सगे सम्बन्धियों को भी नहीं पहचानते, दुःखिनी-आँख वालों की भाँति तेज (१. प्रकाश, २. प्रताप) धारियों को नहीं देखते, महाविषैले सर्प से डसें हुये की भाँति महामन्त्रों (१. विषनिवारक गारुण मन्त्र, २. शुभ मन्त्रण) से भी नहीं जागते, लाख से बने आभूषणों की भाँति ऊष्मा (१. गर्मी, २. तेज) युक्त को सहन नहीं करते, बहुत बड़े खम्भे से जकड़कर रखे गये दुष्ट हाथियों की भाँति महान् गर्व के दुराग्रह से अविचल बने हुए राजा लोग उपदेश ग्रहण नहीं करते।
लालसा रूपी विष से मोहित हुए राजा लोग हर वस्तु को सोने की बनी हुई-सी देखने लगते हैं, शाण (शान = धार बनाने का यंत्र) पर पैनाने (नुकीला) से बढ़ी हुई तीक्ष्णता वाले बाणों की भाँति मदपान से बढ़ी हुई उग्रता वाले (राजा लोग) दूसरों से प्रेरित होकर विनाश कर देते हैं, दूर लगे हुए फलों को भी जैसे डंडा फेंक कर लोग तोड़ दिया करते हैं, वैसे ही राजा लोग दूर स्थित होने पर भी बड़े कुलों को दण्डनीति के प्रयोग से नष्ट कर देते हैं, अकाल में निकले फूलों की भाँति मनोहर आकार वाले होकर भी वे लोगों के विनाश के कारण बनते हैं, अत्यन्त भयङ्कर ऐश्वर्य वाले होते हैं, तिमिर नामक नेत्र रोग वालों की भाँति वे अदूरदर्शी होते हैं, वेश्याओं की भाँति वे क्षुद्र (१. नीच, २.विट्) जनों से युक्त मकान वाले होते हैं।
मृतक के आगे बजने वाले ढोलों की भाँति सुने जाने मात्र से उद्विग्न कर देते हैं, ब्रह्महत्या आदि महापापों को करने के लिए निश्चय की भाँति विचार मे लाये जाने मात्र से अशान्ति पैदा कर देते हैं, प्रतिदिन उसकी देह फूलती जाती है, मानो पाप से भरे जा रहे हों और उस अवस्था में सैकड़ों व्यसनों के निशाने बने हुये बाँबी के तिनके के अग्रभाग पर स्थित जलकणों की भाँति अपने पतन को भी नहीं जानते।
दूसरे राजा लोग उन धूर्तों द्वारा जो स्वार्थ साधन में लगे रहते हैं, धनरूपी मांस को खाने के लिए गृध बने रहते हैं, राजदरबाररूपी पुष्कारिणी में बगुले बने होते हैं, जो जुए को विनोद, परनारीगमन को चतुरता, शिकार को व्यायाम, सुरापान को विलासिता, प्रमाद को शूरता, अपनी स्त्रीत्याग को व्यसनहीनता, गुरुओं के वचनों की अवहेलना को स्वाधीनता, नौकरों के काबू में न रहने को आसानी से सेवा करने योग्य होना, नृत्य-गीत-वाद्य एवं वेश्याओं में अनुराग को रसिकता, बड़े अपराधों के सुनने को महाप्रभावशालिता, अपमान सहन को क्षमा, मनमानेपन को प्रभुता, देवताओं के अनादर को महाशक्तिशालिता, बन्दीजनों से की गयी प्रशंसा को यश, चपलता को उत्साह तथा बुरे- भले की विशेष जानकारी न रखने को पक्षपातहीनता । इस प्रकार दोषों को भी गुणों की श्रेणी में रखते हुए अन्दर (मन में) स्वयं भी हँसते रहते हैं और ठगी में बहुत चतुर हैं, की गयी देवोचित प्रशंसाओं में ठगे जाते हुए, धन के मद से बेहोश, विवेकहीनता के कारण (जैसा ये कह रहे हैं) ऐसे ही है यों सोचकर झूठा अभिमान आरोपित करके मरणधर्मा होते हुए भी अपने को मानो दैवी अंश लेकर अवतीर्ण, मानो किसी देवता से अधिष्ठित अतिमानव मानते हुए दिव्यजनों के योग्य चेष्टाओं तथा अभाव का प्रारम्भ करके सब लोगों की हँसी के पात्र बन जाते हैं और सेवक लोगों द्वारा की जा रही अपनी प्रवञ्चना का भी अभिनन्दन करते हैं ।
राजा लोग (धूर्तों द्वारा किये गये) दैवत्व के आरोप रूप धोखे से बनी मिथ्या धारणा से नष्ट होकर मन से अपनी भुजाओं को मानो भीतरी छिपी हुई अन्य दो भुजाओं वाले समझने लगते हैं (अपने को चतुर्भुज विष्णु मानने लगते हैं) अपने मस्तक के त्वचा में छिपे हुए तीसरे नेत्र वाला सोचने लगते हैं। (अपने को भाललोचन शिव समझते हैं) दर्शन देना भी कृपा मानते हैं। किसी पर दृष्टि पड़ने को भी उपकार की श्रेणी में रखते हैं। बात करना भी पारितोषिक देना समझते हैं। आज्ञा देने को भी वर देना मानते हैं। छू देना भी पवित्र कर देना समझते हैं।
(और) झूठे बड़प्पन के गर्व से भरे हुए वे राजा लोग देवताओं को प्रणाम नहीं करते, ब्राह्मणों को नहीं पूजते, माननीयों का मान नहीं करते, पूजनीयों को नहीं पूजते, अभिवादन के योग्य जनों का अभिवादन नहीं करते, गुरुओं को (देखकर) नहीं उठते, व्यर्थ परिश्रम से विषयों के उपभोग का सुख इन्होंने दूर कर रखा है, ऐसा समझकर विद्वान लोगों का मजाक उड़ाते हैं, बुढ़ापे की विकलता से की गयी बकवास के रूप में वृद्धजनों के उपदेश को समझते हैं, अपनी बुद्धि का अपमान है ऐसा समझकर मन्त्रियों के परामर्श को ईर्ष्या की दृष्टि से देखते हैं, हित की बात कहने वाले पर क्रोध करते हैं।
हर प्रकार से उनका अभिनन्दन करते हैं, उससे बातें करते हैं, उसे बगल में बैठाते हैं, उसे बढ़ावा देते हैं, उसके साथ सुखपूर्वक बैठते हैं, उसे दान देते हैं, उसे मित्र बनाते है, उसका कहना सुनते हैं, उस पर बरसते हैं, उसे बहुत मानते हैं, उसे विश्वासपात्र बनाते हैं, जो दिन-रात निरन्तर हाथ जोड़कर अन्य कर्त्तव्यों को छोड़कर देवता की भाँति उनकी स्तुति करता है अथवा उनकी महिमा प्रकट करता है।
अथवा उन राजाओं का कौन-सा कर्म न्यायोचित हो सकता है जिसके लिए अति निष्ठुरता भरे उपदेशों के कारण निर्दय कौटिल्य अर्थशास्त्र प्रमाण है, (मारण-उच्चाटन आदि) अभिचार क्रिया करने से एकमात्र क्रूर स्वभाव वाले पुरोहित जिनके गुरू हैं, दूसरों को धोखा देने में लगे हुए मन्त्री जिनके उपदेशक हैं, हजारों राजाओं द्वारा भोगी जाकर छोड़ी हुई लक्ष्मी में जिसका अनुराग है, मार-काट वाले शास्त्रों में जिनकी रुचि या लगाव है और स्वाभाविक द्वेष से आर्द्र हृदय वाले अनुरागी भाई जिनके लिए उखाड़ फेंकने योग्य हैं।
अतः हे राजकुमार चन्द्रापीड ! ऐसी अत्यन्त कुटिल तथा कष्टदायक हजारों चेष्टाओं के कारण भयङ्कर इस राज्य शासन में तथा महा-अज्ञान फैलाने वाले इस यौवन में रहते हुए ऐसा प्रयत्न करना, जिससे लोग तुम्हारा उपहास न करें, सत्पुरुष निन्दा न करें, गुरुजन धिक्कारे नहीं, मित्र उलाहना न दे, विद्वान् लोग (तुम्हारे विषय से) शोक न करें, जिससे कामी, विट लोग (तुम्हें प्रकाश में न लावें, चालाक ठग न लें, गुण्डे तुम्हें नोच न खावें, नौकररूपी भेड़िये हड़प न लें, धूर्त छल न लें, स्त्रियाँ लुभा न लें, लक्ष्मी धोखा न दें, मद नचा न दे, काम उन्मत्त न बना दे, विषय फँसा न लें, राग खींच न ले और सुख तुम्हें पथ-भ्रष्ट न कर दे।)
यह मानता हूँ) आप स्वभाव से धैर्यशाली हैं और आपके पिता ने बड़े प्रयत्न से शुद्ध संस्कार डाले हैं, जबकि धन, चञ्चल हृदय और नासमझ को मतवाला बनाया करते हैं, तो आपके गुणों से उत्पन्न सन्तोष ने मुझे इस प्रकार वाचाल बनाया है और तुमसे फिर यही बार-बार कहता हूँ कि यह उद्दण्ड लक्ष्मी विद्वान् पुरुष को भी, समझदार को भी, महाबलशाली को भी, श्रेष्ठकुल में उत्पन्न को भी, धैर्यशाली को भी और प्रयत्नशील पुरुष को भी खल बना देती है।
आप अपने पिता द्वारा किये जा रहे युवराज पद पर अभिषेकरूपी मङ्गल का अनेक मङ्गलों के साथ हर प्रकार से उपभोग कीजिये । कुलपरम्परा से प्राप्त तथा पूर्वजों (पुरखों) द्वारा वहन किये गये राज्यभार को संभालिये । शत्रुओं के सिर नीचे कीजिये। अपने बन्धुओं को उठाइये और अभिषेक के पश्चात् दिग्विजय आरम्भ करके घूमते हुए अपने पिता द्वारा जीती हुई भी सात द्वीपों रूपी आभूषणों वाली पृथ्वी को पुनः जीतिये। यह तुम्हारा प्रताप स्थापित करने का समय है। वास्तव में प्रताप को स्थापित करने वाला राजा तीनों लोकों के द्रष्टा योगी की भाँति सफल आज्ञाओं वाला हो जाता है। बस, इतना कहकर शुकनास मन्त्री चुप हो गये। मन्त्री शुकनास के चुप हो जाने पर चन्द्रापीड उन उपदेश वचनों से मानों धोकर निर्मल किये हुये, मानो खिला हुआ अर्थात् विकसित किये हुए, मानो स्वच्छ किये हुये, मानों माँजे गये, अर्थात् शुद्ध किये गये, मानो स्नान कराये गये, मानों लेप कराये गये, मानों अलङ्कारों से विभूषित किये गये, मानों पवित्र किये गये, मानों प्रदीप्त किये गये, प्रसन्न हृदय (मन) वाले होते हुए, कुछ देर ठहर कर अपने भवन में आ गये ।
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