वैदिक शब्दों के दुरूह अर्थ को स्पष्ट करना ही निरूक्त का प्रयोजन है । ऋग्वेदभाष्य भूमिका में सायण ने कहा है । - "अर्थावबोधे निरपेक्षतया पदजातं यत्रोक्तं तन्निरूक्तम् '' अर्थात् अर्थ की जानकारी की दृष्टि से स्वतंत्ररुप से जहाँ पदों का संग्रह किया जाता है वही निरुक्त है । शिक्षा प्रभृति छह वेदागों में निरुक्त की गणना है । पाणिनीय शिक्षा में निरुक्तं श्रोत्रमुच्यते " इस वाक्य से निरुक्त को वेद का कान बतलाया गया है । यद्यपि इस शिक्षा में निरुक्त का क्रम प्राप्त चतुर्थ स्थान है तथापि उपयोग की दृष्टि से एवं आभ्यान्तर तथा बाह्य विशेषताओं के कारण वेदों में यह प्रथम स्थान रखता है । निरुक्त की जानकारी के बिना वेद के दुर्गम अर्थ का ज्ञान संभव नही हैं ।
काशिकावृत्ति के अनुसार निरूक्त पाँच प्रकार का होता है- वर्णागम (अक्षर बढ़ाना) वर्णविपर्यय (अक्षरों को आगे पीछे करना), वर्णविकार (अक्षरों को बदलना), नाश (अक्षरों को छोड़ना) और धातु के किसी एक अर्थ को सिद्ध करना। इस ग्रंथ में यास्क ने शाकटायन, गार्ग्य, शाकपूणि मुनियों के शब्द-व्युत्पत्ति के मतों-विचारों का उल्लेख किया है तथा उसपर अपने विचार दिए हैं।
निरुक्त की टीकाएँ-
वर्तमान उपलब्ध निरुक्त, निघंटु की व्याख्या (commentary) है और वह यास्क रचित है। यास्क का योगदान इतना महान है कि उन्हें निरुक्तकार या निरुक्तकृत ("Maker of Nirukta") एवं निरुक्तवत ("Author of Nirukta") भी कहा जाता है। यास्क ने अपने निरुक्त में पूर्ववर्ती निरुक्तकार के रूप में औपमन्यव, औदुंबरायण, वार्ष्यायणि; गार्ग्य, आग्रायण, शाकपूणि, और्णनाभ, गालव, स्थौलाष्ठीवि, कौंष्ट्टुकि और कात्थक्य के नाम उद्धृत किए हैं उनके ग्रंथ अब प्राप्त नहीं है। इससे सिद्ध है कि 12 निरुक्तकारों को यास्क जानते थे। 13वें निरुक्तकार स्वयं यास्क हैं। 14वाँ निरुक्तकार अधर्वपरिशिष्टों में से 48वें परिशिष्ट का रचयिता है। यह परिशिष्ट निरुक्त निघंटु स्वरूप है।
इसकी विशेषताओं से आकृष्ट होकर अनेक विद्वानों ने इस पर टीका लिखी है। इस समय उपलब्ध टीकाओं में स्कंदस्वामी की टीका सबसे प्राचीन है। शुक्लयजुर्वेदीय शतपथ ब्राह्मण के भाष्य में हरिस्वामी ने स्कंदस्वामी को अपना गुरु कहा है। देवराज यज्वा द्वारा रचित एक व्याख्या का प्रकाशन गुरुमंडल ग्रंथमाला, कलकत्ता से 1952 में हुआ है। ग्रंथ के प्रारंभ में इन्होंने एक विस्तृत भूमिका लिखी है। निरुक्त पर व्याख्या रूप एक वृत्ति दुर्गाचार्य रचित उपलब्ध है। इन्होंने अपनी वृत्ति में निरुक्त के प्रायः सभी शब्दों का विवेचन किया है।
इसका प्रकाशन आनंदाश्रम संस्कृत ग्रंथमाला, पूना से 1926 में और खेमराज श्रीकृष्णदास, बंबई से 1982 में हुआ है।
सत्यव्रत सामश्रमी ने इस विषय पर लेखनकार्य किया है। इसका प्रकाशन बिल्लओथिका, कलकत्ता से 1911 में हुआ है। प्रो० राजवाड़े का इस विषय पर महत्वपूर्ण कार्य निरुक्त का मराठी अनुवाद है जो 1935 में प्रकाशित है। डॉ० सिद्धेश्वर वर्मा का यास्क निर्वचन नामक ग्रंथ विश्वेश्वरानंद वैदिक शोध संस्थान, होशियारपुर से 1953 में प्रकाशित है। इसपर कुकुंद झा बख्शी की संस्कृत टीका निर्णयसागर प्रेस, बंबई से 1930 में प्रकाशित है। इसपर मिहिरचंद्र पुष्करणा ने एक टीका लिखी है जो पुरुषार्थ पुस्तकमाला कार्यालय, अमृतसर से 1945 में प्रकाशित है।
निरुक्त की संरचना-
इस ग्रंथ के समस्त अध्यायों की संख्या 12 है जो तीन कांडों में विभक्त हैं। 1. नैघंटुक कांड, 2. नैगम कांड, 3. दैवत कांड
इसके सिवाय परिशिष्ट के रूप में अंतिम दो अध्याय और भी साथ में संलग्न हैं। इस प्रकार कुल 14 अध्याय हैं। इन अध्यायों में प्रारंभ से द्वितीय अध्याय के प्रथम पाद पर्यंत उपोद्घात वर्णित है। इसमें निघंटु का लक्षण, पद का प्रकार, भाव का विकार, शब्दों का धातुज सिद्धांत, निरुक्त का प्रयोजन और एतत्संबंधी अन्य आवश्यक नियमों के आधार पर विस्तार के साथ विवेचन किया गया है। इस समस्त भाग को नैघंटुक कांड कहते हैं। इसी का 'पूर्वषङ्क' नामांतर है। चौथे अध्याय में एकपदी आख्यान का सुंदर विवेचन किया गया है। इसे नैगमकांड कहते हैं। अंतिम छह अध्यायों में देवताओं का वर्णन किया गया है। इसे दैवत कांड बतलाया है। इसके अनंतर देवस्तुति के आधार पर आत्मतत्वों का उपदेश किया गया है। निरुक्त के बारह अध्याय है। प्रथम में व्याकरण और शब्दशास्त्र पर सूक्ष्म विचार हैं। इतने प्राचीन काल में शब्दशास्त्र पर ऐसा गूढ़ विचार और कहीं नहीं देखा जाता। शब्दशास्त्र पर अनेक मत प्रचलित थे इसका पता यास्क के निरुक्त से लगता है। कुछ लोगों का मत था कि सभी शब्द धातुमूलक हैं और धातु क्रियापद मात्र हैं जिनमें प्रत्यय आदि लगाकर भिन्न शब्द बनते हैं। इस मत के विरोधियों का कहना था कि कुछ शब्द धातुरुप क्रियापदों से बनते है पर सब नहीं, क्योंकि यदि 'अशं' से अश्व माना जाय तो प्रत्येक चलने या आगे बढ़नेवाला पदार्थ अश्व कहलाएगा। यास्क ने इसी विरोधी मत का खंडन किया है। यास्क मुनि ने इसके उत्तर में कहा है कि जब एक क्रिया से एक पदार्थ का नाम पड़ जाता है तब वही क्रिया करनेवाले और पदार्थ को वह नाम नहीं दिया जाता। = दूसरे पक्ष का एक और विरोध यह था कि यदि नाम इसी प्रकार दिए गए है तो किसी पदार्थ में जितने-जितने गुण हों उतने ही उसका नाम न भी होने चाहिए। यास्क इसपर कहते है कि एक पदार्थ किसी एक गुण या कर्म से एक नाम को धारण करता है। इसी प्रकार और भी समझिए। दूसरे और तीसरे अध्याय में तीन निधंदुओं के शब्दों के अर्थ प्रायः व्यख्या सहित है। चौथे से छठें अध्याय तक चौथे निघंटु की व्याख्या है। सातवें से बारहवें तक पाँचवें निघंटु के वैदिक देवताओं की व्याख्या है।
॥ प्रथमोऽध्यायः ॥
॥ प्रथम पाद॥
निघण्टु की व्याख्या- निरुक्त, निघण्टु = (5) अध्याय, (3) काण्ड
1-3. नैघण्टुक काण्ड- पर्याय शब्द,
4. ऐकपदिक/ नैगम काण्ड- कठिन शब्द,
5. दैवत काण्ड- देवतावाची,
निघण्टु में पांच अध्याय तथा निरुक्त में (14) अध्याय हैं जिनमें (12) अध्याय मुख्य हैं, दो अध्याय परिशिष्ट हैं ।यास्क ने देवताओं के तीन भाग किए हैं-
(1) पृथ्वीस्थानीय (2) द्युस्थानीय (3) अन्तरिक्षस्थानीय।
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