सुन्दरकाण्ड पञ्चम सोपान


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यानघन । जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर ॥

किष्किन्धाकाण्ड

[दोहा २९]

बलि बाँधत प्रभु बाढ़ेउ सो तनु बरनि न जाइ ।  उभय घरी महँ दीन्हीं सात प्रदच्छिन धाइ ॥ 

अंगद  कहइ  जाउँ  मैं  पारा  ।  जियँ  संसय  कछु  फिरती   बारा ॥ 

जामवंत कह तुम्ह सब लायक । पठइअ किमि सबही कर नायक ॥ 

कहइ   रीछपति   सुनु   हनुमाना  ।  का चुप साधि रहेहु बलवाना ॥

पवन  तनय  बल  पवन  समाना । बु धि  बिबेक  बिग्यान निधाना ॥

 कवन  सो काज  कठिन जग माहीं । जो  नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं ॥ 

राम  काज   लगि   तव   अवतारा  ।  सुनतहिं  भयउ   पर्बताकारा ॥ 

कनक  बरन  तन  तेज  बिराजा  ।  मानहुँ  अपर  गिरिन्ह  कर राजा ॥

 सिंहनाद करि बारहिं बारा । लीलहिँ नाघउँ जलनिधि खारा ॥

सहित सहाय रावनहि मारी । आनउँ इहाँ त्रिकूट  उपारी ॥

जामवंत मैं पूँछउँ तोही । उचित सिखावनु दीजहु मोही ॥

एतना करहु तात तुम्ह  जाई । सीतहि देखि कहहु सुधि आई ।। 

तब निज भुज बल राजिवनैना । कौतुक लागि संग कपि सेना ॥

 छं० - कपि सेन संग सँघारि निसिचर रामु सीतहि आनिहैं ।

त्रैलोक पावन सुजसु सुर मुनि नारदादि बखानिहैं ।

जो सुनत गावत कहत समुझत परम पद नर पावई ।

रघुबीर पद पाथोज मधुकर दास तुलसी गावई ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

 [ सोरठा ३० (क)]

भव भेषज रघुनाथ जसु सुनहिं जे नर अरु नारि । तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करहिं त्रिसिरारि ॥

 [ सोरठा ३० (ख)]

नीलोत्पल तन स्याम काम कोटि सोभा अधिक । सुनिअ तासु गुन ग्राम जासु नाम अघ खग बधिक ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

 ॥ श्री गणेशाय नमः ॥

श्रीरामचरितमानस पञ्चम सोपान

सुन्दरकाण्ड

श्लोक

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं , ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदांतवेद्यं विभुम् ।

    रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं  , वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम् ।।१।।

नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये , सत्यं दामि च भवानखिलान्तरात्मा ।

भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां मे , कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च ॥२॥

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् ।

सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि ।।३।।

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

जामवंत के  वचन सुहाए । सुनि हनुमंत हृदय अति भाए ।।

तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई । सहि दुख कंद मूल फल खाई ॥ 

जब लगि आवौं सीतहि देखी। होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी ॥ 

यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा । चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा ॥

 सिंधु तीर एक भूधर सुंदर । कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर ॥

  बार बार रघुबीर सँभारी । तरकेउ पवनतनय बल भारी ॥ 

जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता । चलेउ सो गा  पाताल तुरंता ॥

 जिमि अमोघ रघुपति कर बाना । एही भाँति चलेउ हनुमाना ॥

 जलनिधि रघुपति दूत बिचारी। तैं मैनाक होहि श्रमहारी ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

[दोहा १]

हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम । राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम ॥ 

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

जात पवनसुत देवन्ह देखा । जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा ॥

सुरसा नाम अहिन्ह कै माता । पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता ॥ 

आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा । सुनत बचन कह पवनकुमारा ॥

 राम काजु करि फिरि मैं आवौं । सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं ॥ 

तब तव बदन बदन पैठिहउँ आई । सत्य कहउँ मोहि जान दे माई ॥

 कवनेहुँ जतन देइ नहिं जाना । ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना ॥

 जोजन भरि तेहिं बदनु पसारा । कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा ॥ 

सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ। तुरत पवनसुत पवनसुत बत्तिस भयऊ ॥

 जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा। तासु दून कपि रूप देखावा ॥ 

सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा। अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा ॥ 

बदन पइठि पुनि बाहेर आवा। मागा बिदा ताहि सिरु नावा ॥

 मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा। बुधि बल मरमु तोर मैं पावा ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

[दोहा २]

राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान । आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान ॥ 

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई । करि माया नभु के खग गहई |

जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं । जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं ॥

 गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई । एहि बिधि सदा गगनचर खाई ॥ 

सोइ छल हनूमान कहँ कीन्हा । तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा ॥ 

ताहि मारि मारुतसुत बीरा । बारिधि पार गयउ मतिधीरा ॥

 तहाँ जाइ देखी बन सोभा । गुंजत चंचरीक मधु  लोभा ॥

 नाना तरु फल फूल सुहाए। खग मृग बृंद देखि मन भाए ॥

 सैल बिसाल देखि एक आगें । ता पर धाइ चढ़ेउ भय त्यागें ॥

 उमा न कछु कपि कै अधिकाई । प्रभु प्रताप जो कालहि खाई ॥

 गिरि पर चढ़ि लंका तेहिं देखी। कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी ॥

अति उतंग जलनिधि चहु पासा । कनक कोट कर परम प्रकासा ॥

छं० - कनक कोट बिचित्र मनि कृत सुंदरायतना घना। 

चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना ॥

 गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथन्हि को गनै ।

 बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै ॥१॥ 

बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं ।

 नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं ॥ 

कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं । 

नाना अखारेन्ह भिरहिं बहुबिधि एक एकन्ह तर्जहीं ॥ २ ॥

करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं ।

कहुँ महिष मानुष धेनु खर अज खल निसाचर  भच्छहीं ॥

एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही।

रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही ॥३॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

[दोहा ३]

पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार । अति लघु रूप धरौं निसि नगर करौं पइसार ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

 मसक समान रूप कपि धरी । लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी ॥ 

नाम लंकिनी एक निसिचरी । सो कह चलेसि मोहि निंदरी ॥ 

जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा । मोर अहार जहाँ लगि चोरा॥ 

मुठिका एक महा कपि हनी। रुधिर बमत धरनीं ढनमनी ॥

 पुनि संभारि उठी सो लंका । जोरि पानि कर बिनय ससंका ॥ 

जब रावनहि ब्रह्म बर बर दीन्हा। चलत बिरंचि कहा मोहि चीन्हा ॥ 

बिकल होसि तैं कपि कें मारे। तब जानेसु  निसिचर संघारे ॥ 

तात मोर अति पुन्य बहूता । देखेउँ नयन राम कर दूता ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

[दोहा ४]

तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग । तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

प्रबिसि नगर कीजे सब काजा । हृदयँ राखि कोसलपुर राजा ॥

 गरल सुधा रिपु करहिं मिताई । गोपद सिंधु अनल सितलाई ॥ 

गरुड़ सुमेरु रेनु सम सम ताही राम कृपा करि चितवा जाही ॥ 

अति लघु रूप धरेउ हनुमाना । पैठा नगर सुमिरि भगवाना ॥ 

मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा । देखे जहँ तहँ अगनित जोधा ॥

गयउ दसानन मंदिर माहीं । अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं ॥

 सयन किएँ देखा कपि तेही । मंदिर महुँ न दीखि बैदेही ॥ 

भवन एक पुनि दीख सुहावा । हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा ॥ 

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

[दोहा ५] 

रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ । नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरष कपिराइ ॥ 

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

लंका निसिचर निकर निवासा । इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा ॥ 

मन महुँ तरक करें कपि लागा । तेहीं समय बिभीषनु जागा ॥

राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा । हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा ॥ 

एहि सन हठि करिहउँ पहिचानी । साधु ते होइ न कारज हानी ॥ 

रूप धरि बचन सुनाए । बिभीषन उठि तहँ आए ॥ 

करि प्रनाम पूँछी कुसलाई । बिप्र  कहहु निज कथा बुझाई ॥ 

 की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई । मोरें हृदय प्रीति अति होई ॥ 

की तुम्ह रामु दीन अनुरागी । आयहु मोहि करन बड़भागी ॥ 

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

[दोहा ६ ]

तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम । सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम ॥ 

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

सुनहु पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी ॥ 

तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा । करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा ॥

 तामस तनु कछु साधन नाहीं । प्रीति न पद सरोज मन माहीं ॥ 

अब मोहि भा भरोस हनुमंता । बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता ॥

जौं  रघुबीर अनुग्रह कीन्हा । तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा ॥ 

सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती। करहिं सदा सेवक पर प्रीती ॥ 

कहहु कवन मैं परम कुलीना । कपि चंचल सबहीं बिधि हीना ॥

प्रात लेइ जो नाम हमारा । तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

[दोहा ७]

अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर । कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर ॥ 

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

जानतहूँ अस स्वामि बिसारी । फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी ॥

 एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा। पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा॥ 

पुनि सब कथा बिभीषन कही। जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही ॥

 तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता । देखी चहउँ जानकी माता ॥

 जुगुति बिभीषन सकल सुनाई । चलेउ पवनसुत बिदा कराई ॥ 

करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ। बन असोक सीता रह जहवाँ ॥

देखि मनहि महुँ कीन्ह प्रनामा । बैठेहिं बीति जात निसि जामा ॥ 

कृस तनु सीस जटा एक बेनी जपति हृदयँ रघुपति गुन श्रेनी ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

 [दोहा ८ ]

निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन। परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन ॥ 

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

तरु  पल्लव महुँ रहा लुकाई । करइ बिचार करौं का भाई ॥ 

तेहि अवसर रावनु तहँ आवा । संग नारि बहु किएँ बनावा ॥ 

बहु बिधि खल सीतहि समुझावा। साम दान भय  भेद देखावा ॥ 

कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी । मंदोदरी आदि सब रानी ॥ 

तव अनुचरीं करउँ पन मोरा । एक बार बिलोकु मम ओरा ॥

तृन धरि ओट कहति बैदेही । सुमिरि अवधपति परम सनेही ॥

सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा । कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा ॥ 

अस मन समुझु कहति जानकी । खल सुधि नहिं रघुबीर बान की ॥

सठ सूनें हरि आनेहि मोही । अधम निलज्ज लाज नहिं तोही॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

 [दोहा ९]

आपुहि सुनि खद्योत सम रामहि भानु समान । परुष बचन सुनि काढ़ि असि बोला अति खिसिआन ॥ 

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

सीता तैं मम कृत अपमाना । कटिहउँ तव सिर कठिन कृपाना ॥ 

नाहिं त सपदि मानु मम बानी । सुमुखि होति न त जीवन हानी ॥ 

स्याम सरोज दाम सम सुंदर । प्रभु भुज करि कर सम दसकंधर ॥ 

सो भुज कंठ कि तव असि घोरा । सुनु सठ अस प्रवान पन मोरा ॥

चंद्रहास हरु मम परितापं । रघुपति बिरह अनल संजातं ॥

सीतल निसित बहसि बर धारा । कह सीता हरु मम दुख भारा ॥

सुनत बचन पुनि मारन धावा ।  मयतनयाँ कहि नीति बुझावा ॥ 

कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई । सीतहि बहु बिधि त्रासहु जाई ॥ 

मास दिवस महुँ कहा न माना । तौ मैं मारबि काढ़ि कृपाना ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

[दोहा १०]

भवन गयउ दसकंधर इहाँ पिसाचिनि बृंद ।  सीतहि त्रास देखावहिं धरहिं रूप बहु मंद ॥ 

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

त्रिजटा नाम राच्छसी एका । राम चरन रति निपुन बिबेका ॥

 सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना । सीतहि सेइ करहु हित अपना ॥

सपनें बानर लंका  जारी । जातुधान  सेना सब मारी ॥

खर आरूढ़ नगन दससीसा । मुंडित सिर खंडित भुज बीसा ॥

एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई । लंका मनहुँ बिभीषन पाई ॥ 

 नगर फिरी रघुबीर दोहाई । तब प्रभु सीता बोलि  पठाई ॥

यह सपना मैं कहउँ पुकारी । होइहि सत्य गएँ दिन चारी ॥

तासु बचन सुनि ते सब डरीं ।  जनकसुता के के चरनन्हि परीं ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

[दोहा ११]

जहँ तहँ गईं सकल तब सीता कर मन सोच। मास दिवस बीतें मोहि मारिहि निसिचर पोच ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

 त्रिजटा सन बोलीं कर जोरी।  मातु बिपति संगिनि तैं मोरी ॥

तजौं देह करु बेगि उपाई । दुसह बिरहु अब नहिं सहि जाई ॥ 

आनि काठ रचु चिता बनाई । मातु अनल पुनि देहि लगाई ॥ 

सत्य करहि मम प्रीति सयानी। सुनै को श्रवन सूल सम बानी ॥

 सुनत बचन पद गहि समुझाएसि । प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि ॥ 

निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी । अस कहि सो निज भवन सिधारी॥

 कह सीता बिधि भा प्रतिकूला । मिलिहि न पावक मिटिहि न सूला ॥

देखिअत प्रगट गगन अंगारा । अवनि न आवत आवत एकउ तारा॥

 पावकमय ससि स्रवत न आगी। मानहुँ मोहि मोहि जानि हतभागी॥

 सुनहि बिनय मम बिटप असोका । सत्य नाम करु हरु मम सोका ॥ 

नूतन किसलय अनल समाना देहि अगिनि जनि करहि निदाना ॥ 

देखि परम बिरहाकुल सीता । सो छन कपिहि कलप सम बीता ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

[ सोरठा १२]

कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारि तब। जनु असोक अंगार दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

तब देखी मुद्रिका मनोहर । राम  नाम अंकित अति सुंदर ॥

 चकित चितव मुदरी पहिचानी । हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी ॥

 जीति को सकइ अजय रघुराई । माया तें असि रचि नहिं जाई ॥ 

सीता मन बिचार कर नाना। बचन मधुर  बोलेउ हनुमाना ॥

रामचंद्र गुन बरनैं  लागा । सुनतहिं सीता कर दुख भागा ॥

लागीं सुनैं श्रवन मन लाई । आदिहु तें सब कथा सुनाई ॥

श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई । कही सो प्रगट होति किन भाई ॥

 तब हनुमंत निकट चलि गयऊ । फिरि बैठीं मन बिसमय भयऊ ॥

राम दूत मैं मातु  जानकी । सत्य सपथ करुनानिधान की ॥ 

यह मुद्रिका मातु मैं आनी । दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी ॥

नर बानरहि संग कहु कैसें । कही कथा भइ संगति जैसें ॥ 

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

[दोहा १३]

कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास । जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास ॥ 

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़ी । सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी ॥ 

बूड़त बिरह जलधि हनुमाना । भयहु तात मो कहुँ जलजाना ॥ 

अब कहु कुसल जाउँ बलिहारी । अनुज सहित सुख भवन खरारी ॥ 

कोमलचित कृपाल रघुराई । कपि केहि हेतु धरी निठुराई ॥ 

सहज बानि सेवक सुखदायक । कबहुँक सुरति करत रघुनायक ॥ 

कबहुँ नयन मम सीतल ताता। होइहहिं निरखि स्याम मृदु गाता ॥ 

बचनु न आव नयन भरे बारी । हह नाथ ह्रौं निपट बिसारी ॥ 

देखि परम बिरहाकुल सीता । बोला कपि मृदु बचन बिनीता ॥

मातु कुसल प्रभु अनुज  समेता । तव दुख दुखी सुकृपा निकेता ॥

जनि जननी मानहु जियँ ऊना । तुम्ह ते प्रेमु राम राम कें दूना ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

[दोहा १४]

रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर । अस कहि कपि गदगद भयउ भरे बिलोचन नीर ॥ 

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

कहेउ राम बियोग तव सीता । मो कहुँ सकल भए बिपरीता ॥ 

नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू । कालनिसा सम निसि ससि भानू॥ 

कुबलय बिपिन कुंतबन सरिसा । बारिद तपत तेल जनु बरिसा ॥ 

जे हित रहे करत करत तेइ पीरा । उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा ॥ 

कहेहू तें कछु दुख घटि होई । काहि कहौं यह जान न कोई ॥

तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा । जानत प्रिया एकु मनु मोरा ॥

सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं । जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं ॥

प्रभु संदेसु सुनत बैदेही । मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही ॥

कह कपि हृदयँ धीर धरु माता । सुमिरु राम सेवक सुखदाता ॥

उर आनहु रघुपति प्रभुताई । सुनि मम बचन तजहु कदराई ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

[दोहा १५]

निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु । जननी हृदयँ धीर धरु जरे निसाचर जानु ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

 जौं रघुबीर होति सुधि पाई । करते नहिं बिलंबु रघुराई ॥ 

राम बान रबि उएँ  जानकी । तम बरूथ कहूँ जातुधान की ॥ 

अबहिं मातु मैं  जाउँ लवाई । प्रभु आयसु नहिं राम दोहाई ॥ 

कछुक दिवस जननी धरु धीरा। कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा ॥ 

निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं । तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं ॥ 

हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना । जातुधान अति भट बलवाना॥ 

मोरें हृदय परम संदेहा । सुनि कपि प्रगट कीन्हि निज देहा ॥ 

कनक भूधराकार सरीरा । समर भयंकर अतिबल बीरा ॥ 

सीता मन भरोस  तब भयऊ । पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

[दोहा १६]

सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल । प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

 मन संतोष सुनत कपि बानी । भगति प्रताप तेज बल सानी ॥ 

आसिष दीन्हि रामप्रिय जाना । होहु तात बल सील निधाना ॥ 

अजर अमर गुननिधि सुत होहू । करहु बहुत रघुनायक छोहू ॥

करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना । निर्भर प्रेम मगन हनुमाना ॥  

बार बार नाएसि पद सीसा । बोला बचन जोरि कर  कीसा ॥

अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता । आसिष तव अमोघ बिख्याता ॥ 

सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा । लागि देखि सुंदर फल रूखा॥

 सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी । परम सुभट रजनीचर भारी ॥ 

तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं । जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

[दोहा १७]

देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु। रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा । फल खाएसि तरु तोरैं लागा ॥ 

 रहे तहाँ बहु भट रखवारे । कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे ॥ 

नाथ एक आवा कपि भारी। तेहिं असोक बाटिका उजारी॥ 

खाएसि फल अरु बिटप उपारे । रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे ॥

 सुनि रावन पठए भट नाना। तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना ॥ 

सब रजनीचर कपि संघारे । गए पुकारत कछु अधमारे ॥

 पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा । चला संग लै सुभट अपारा ॥

 आवत देखि बिटप गहि तर्जा । ताहि निपाति महाधुनि गर्जा ॥ 

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

[दोहा १८]

कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि । कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि ॥ 

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

सुनि सुत बध लंकेस रिसाना । पठएसि मेघनाद बलवाना ॥ 

मारसि जनि सुत बाँधेसु ताही । देखिअ कपिहि कहाँ कर आही ॥

चला इंद्रजित अतुलित जोधा ।  बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा ॥

कपि देखा दारुन भट आवा । कटकटाइ गर्जा अरु धावा ॥

अति बिसाल तरु एक उपारा। बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा ॥ 

रहे महाभट ताके संगा । गहि गहि कपि मर्दइ निज अंगा ॥

तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा । भिरे जुगल मानहुँ गजराजा ॥

मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई । ताहि एक छन मुरुछा आई 

उठि बहोरि कीन्हिसि बहु माया । जीति न जाइ प्रभंजन जाया॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

 [दोहा १९]

ब्रह्म अस्त्र तेहि साँधा कपि मन कीन्ह बिचार । जौं न ब्रह्मसर मानउँ महिमा मिटइ अपार ॥ 

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहिं मारा। परतिहुँ बार कटकु संघारा ॥ 

तेहिं देखा कपि मुरुछित भयऊ। नागपास बाँधेसि लै गयऊ ॥ 

जासु नाम जपि सुनहु भवानी । भव बंधन काटहिं नर ग्यानी ॥

तासु दूत कि बंध तरु आवा। प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा ॥ 

कपि बंधन सुनि निसिचर धाए । कौतुक लागि सभाँ सब आए ॥ 

दसमुख सभा दीखि कपि जाई । कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई ॥ 

कर जोरें सुर दिसिप बिनीता । भृकुटि बिलोकत सकल सभीता ॥ 

देखि प्रताप न कपि मन संका। जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

[दोहा २०]

कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद । सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिषाद ॥ 

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

कह लंकेस कवन तैं कीसा। केहि कें बल घालेहि बन खीसा ॥ 

की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही । देखउँ अति असंक सठ तोही ॥ 

मारे निसिचर केहिं अपराधा । कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा ॥ 

सुनु रावन ब्रह्मांड ब्रह्मांड निकाया । पाइ जासु बल बिरचति माया ॥ 

जाकें बल बिरंचि हरि ईसा । पालत सृजत हरत दससीसा ॥

जा बल सीस धरत सहसानन । अंडकोस समेत गिरि कानन ॥ 

धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता । ७तुम्ह से सठन्ह सिखावनु दाता ॥ 

हर कोदंड कठिन जेहिं भंजा ।  तेहि समेत नृप दल मद  गंजा ॥

खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली । बधे सकल अतुलित बल साली ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

[दोहा २१]

जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि । तासु दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

जानउ मैं तुम्हारि प्रभुताई ।  सहसबाहु सन परी  लराई ॥

समर बालि सन करि जसु पावा । सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा ॥

 खायउँ फल प्रभु लागी भूँखा। कपि सुभाव तें तोरेउँ रूखा ॥

 सब कें देह परम प्रिय स्वामी । मारहिं मोहि कुमारग गामी ॥ 

जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे। तेहि पर बाँधेउँ तनयँ तुम्हारे ॥ 

मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा। कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा ॥

बिनती करउँ जोरि कर रावन । सुनहु मान तजि मोर सिखावन ॥ 

देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी । भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी ॥ 

जाकें डर अति काल डेराई । जो सुर असुर चराचर खाई ॥ 

तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै । मोरे कहें जानकी दीजै ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

[दोहा २२]

प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि । गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

राम चरन पंकज उर धरहू। लंका अचल राजु तुम्ह करहू ॥ 

रिषि पुलस्ति जसु बिमल मयंका । तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका ॥ 

राम नाम बिनु गिरा न सोहा । देखु बिचारि त्यागि मद मोहा ॥ 

बसन हीन नहिं सोह सुरारी । सब भूषन भूषित बर नारी ॥ 

 राम बिमुख संपति प्रभुताई । जाई रही पाई बिनु बिनु पाई ॥ 

सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं । बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाहीं ॥

सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी । बिमुख राम त्राता नहिं कोपी ॥ 

संकर सहस बिष्नु अज तोही । सकहिं न राखि राम कर द्रोही ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

[दोहा २३]

मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान । भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान ॥ 

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

जदपि कही कपि अति हित बानी । भगति बिबेक बिरति नय सानी॥ 

बोला बिहसि महा अभिमानी । मिला हमहि कपि गुर बड़ ग्यानी॥ 

मृत्यु निकट आई खल तोही। लागेसि अधम सिखावन मोही ॥

 उलटा होइहि कह हनुमाना। मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना॥ 

सुनि कपि बचन बहुत खिसिआना । बेगि न हरहु मूढ़ कर प्राना ॥ 

सुनत निसाचर मारन धाए। सचिवन्ह सहित बिभीषनु आए ।।

नाइ सीस करि बिनय बहूता नीति बिरोध न मारिअ दूता॥ 

आन दंड कछु करिअ गोसाँई । सबहीं कहा मंत्र भल भाई ॥

सुनत बिहसि बोला दसकंधर । अंग भंग करि पठइअ बंदर ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

[दोहा २४]

कपि कें ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ । तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु लगाइ ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

पूँछहीन बानर तहँ जाइहि । तब सठ निज नाथहि लइ आइहि ॥ 

जिन्ह कै कीन्हिसि बहुत बड़ाई । देखउँ मैं तिन्ह कै प्रभुताई ॥

बचन सुनत कपि मन मुसुकाना । भइ सहाय सारद मैं जाना ॥

जातुधान सुनि रावन बचना। लागे रचैं मूढ़  सोइ रचना ॥

रहा न नगर बसन घृत तेला । बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला ॥ 

कौतुक कहँ आए पुरबासी । मारहिं चरन करहिं बहु  हाँसी ॥

बाजहिं ढोल देहिं सब तारी।  नगर फेरि पुनि पूँछ प्रजारी ॥

 पावक जरत देखि हनुमंता । भयउ परम लघुरूप तुरंता ॥ 

निबुकि चढ़ेउ कपि कनक अटारीं । भई सभीत निसाचर नारीं ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

[दोहा २५]

हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास । अट्टहास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास ॥ 

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

 देह बिसाल परम हरु आई । मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई ॥

 जरइ नगर भा लोग बिहाला । झपट लपट बहु कोटि कराला ॥ 

तात मातु हा सुनिअ पुकारा। एहिं अवसर को हमहि उबारा ॥ 

हम जो कहा यह कपि नहिं होई । बानर रूप धरें सुर कोई ॥

साधु अवग्या कर फलु ऐसा । जरइ नगर अनाथ कर जैसा॥ 

जारा नगरु निमिष एक माहीं एक बिभीषन कर गृह नाहीं ॥ 

ता कर दूत अनल जेहिं सिरिजा । जरा न सो तेहि कारन गिरिजा ॥ 

उलटि पलटि लंका सब जारी । कूदि परा पुनि सिंधु मझारी ॥ 

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

[दोहा २६]

पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि । जनकसुता के आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा । जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा ॥ 

 चूड़ामनि उतारि तब दयऊ । हरष समेत पवनसुत लयऊ ॥ 

कहेहु तात अस मोर प्रनामा । सब प्रकार प्रभु पूरनकामा ॥ 

दीन दयाल बिरिदु संभारी । हरहु नाथ मम संकट भारी ॥

 तात सक्रसुत कथा सुनाएहु । बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु ॥

 मास दिवस महुँ नाथु न आवा । तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा ॥ 

कहु कपि केहि बिधि राखौं प्राना । तुम्हहू तात कहत अब जाना॥ 

तोहि देखि सीतलि भइ छाती। पुनि मो कहूँ सोइ दिनु सो राती ॥ 

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

[दोहा २७]

जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह । चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह ॥ 

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

चलत महाधुनि गर्जेसि भारी । गर्भ स्रवहिं सुनि निसिचर नारी ॥

 नाघि सिंधु एहि पारहि आवा । सबद किलिकिला कपिन्ह सुनावा ॥

हरषे सब बिलोकि हनुमाना । नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना ॥

 मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा । कीन्हेसि रामचंद्र कर काजा ॥

मिले सकल अति भए सुखारी । तलफत मीन पाव जिमि बारी ॥ 

चले हरषि रघुनायक पासा । पूँछत कहत नवल नवल इतिहासा ॥

 तब मधुबन भीतर सब आए । अंगद संमत मधु फल खाए ॥

रखवारे जब बरजन लागे । मुष्टि प्रहार हनत सब भागे ॥ 

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

[दोहा २८]

जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज । सुनि सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज ॥ 

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

जौं न होति सीता सुधि पाई। मधुबन के फल सकहिं कि खाई ॥ 

एहि बिधि मन बिचार कर राजा । आइ गए कपि सहित समाजा ॥ 

आइ सबन्हि नावा पद सीसा । मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा ॥ 

पूँछी कुसल कुसल पद देखी । राम कृपाँ भा काजु बिसेषी ।।

नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना। राखे सकल कपिन्ह के प्राना ॥

सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ । कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ ॥


राम कपिन्ह जब आवत देखा। किएँ काजु मन हरष बिसेषा ॥


फटिक सिला बैठे द्वौ भाई । परे सकल कपि चरनन्हि जाई ॥


।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

[दोहा २९]

प्रीति सहित सब भेटे रघुपति करुना पुंज। पूँछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

जामवंत कह सुनु रघुराया । जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया ॥


ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर । सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर ॥


सोइ बिजई बिनई गुन सागर । तासु सुजसु त्रैलोक उजागर ॥


प्रभु की कृपा भयउ सबु काजू । जन्म हमार सुफल भा आजू ॥


नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी । सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी ॥


पवनतनय के चरित सुहाए । जामवंत रघुपतिहि सुनाए ।।

सुनत कृपानिधि मन अति भाए। पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए ॥

कहहु तात केहि भाँति जानकी। रहति करति रच्छा स्वप्रान की ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

[दोहा ३०]

नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट । लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट ॥


।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।


चलत मोहि चूड़ामनि दीन्ही । रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही ॥


नाथ जुगल लोचन भरि बारी। बचन कहे कछु जनककुमारी ॥


अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना । दीन बंधु प्रनतारति हरना ।।


मन क्रम बचन चरन अनुरागी । केहिं अपराध नाथ हौं त्यागी ।।


अवगुन एक मोर मैं माना। बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना ।।


नाथ सो नयनन्हि को अपराधा । निसरत प्रान करहिं हठि बाधा ॥


बिरह अगिनि तनु तूल समीरा । स्वास जरइ छन माहिं सरीरा ॥


नयन स्त्रवहिं जलु निज हित लागी । जरें पाव न देह बिरहागी ॥


सीता कै अति बिपति बिसाला । बिनहिं कहें भलि दीनदयाला ।।


।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

[दोहा ३१]

निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति । बेगि चलिअ प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति ॥


।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।


सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना । भरि आए जल राजिव नयना ।।


बचन कायँ मन मम गति जाही। सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही ।।


कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई । जब तव सुमिरन भजन न होई ।।


केतिक बात प्रभु जातुधान की। रिपुहि जीति आनिबी जानकी ॥


सुनु कपि तोहि समान उपकारी। नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी ॥


प्रति उपकार करौं का तोरा। सनमुख होइ न सकत मन मोरा ॥


सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं । देखेउँ करि बिचार मन माहीं ॥


पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता । लोचन नीर पुलक अति गाता ॥


।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।


[दोहा ३२]


सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमंत। चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत ॥


।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

बार बार प्रभु चहइ उठावा । प्रेम मगन तेहि उठब न भावा ॥

प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा। सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा ॥

सावधान मन करि पुनि संकर । लागे कहन कथा अति सुंदर ।।

कपि उठाइ प्रभु हृदयँ लगावा । कर गहि परम निकट बैठावा ।।

कहु कपि रावन पालित लंका। केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका ॥

प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना । बोला बचन बिगत अभिमाना ।।

साखामृग कै बड़ि मनुसाई । साखा तें साखा पर जाई ॥

नाघि सिंधु हाटकपुर जारा । निसिचर गन बधि बिपिन उजारा ।।

सो सब तव प्रताप रघुराई । नाथ न कछू मोरि प्रभुताई ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

[दोहा ३३]


ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकूल । तव प्रभावँ बड़वानलहि जारि सकइ खलु तूल ॥


।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।


नाथ भगति अति सुखदायनी । देहु कृपा करि अनपायनी ॥

सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी। एवमस्तु तब कहेउ भवानी ॥

उमा राम सुभाउ जेहिं जाना । ताहि भजनु तजि भाव न आना ।।


यह संबाद जासु उर आवा । रघुपति चरन भगति सोइ पावा ॥


सुनि प्रभु बचन कहहिं कपिबृंदा । जय जय जय कृपाल सुखकंदा ॥


तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा। कहा चलैं कर करहु बनावा ॥


अब बिलंबु केहि कारन कीजे। तुरत कपिन्ह कहुँ आयसु दीजे ॥


कौतुक देखि सुमन बहु बरषी। नभ तें भवन चले सुर हरषी ॥


।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।


[दोहा ३४]


कपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ । नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ ॥


।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।


प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा । गर्जहिं भालु महाबल कीसा ॥


देखी राम सकल कपि सेना । चितइ कृपा करि राजिव नैना ॥


राम कृपा बल पाइ कपिंदा । भए पच्छजुत मनहुँ गिरिंदा ॥

हरषि राम तब कीन्ह पयाना । सगुन भए सुंदर सुभ नाना ।।

जासु सकल मंगलमय कीती । तासु पयान सगुन यह नीती ॥

प्रभु पयान जाना बैदेहीं । फरकि बाम अँग जनु कहि देहीं ॥

जोइ जोइ सगुन जानकिहि होई। असगुन भयउ रावनहि सोई ॥

चला कटकु को बरनैं पारा। गर्जहिं बानर भालु अपारा ।।

नख आयुध गिरिपा पादपधारी । चले गगन महि इच्छाचारी ॥

केहरिनाद भालु कपि करहीं। डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं ॥

छं० - चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे ।


मन हरष सभ गंधर्ब सुर मुनि नाग किंनर दुख टरे ॥


कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं ।


जय राम प्रबल प्रताप कोसल- नाथ गुन गन गावहीं ॥ १ ॥


सहि सक न भार उदार अहिपति बार बारहिं मोहई।


गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ट कठोर सो किमि सोहई ॥


रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी ।

जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत अबिचल पावनी ॥ २ ॥


।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।


[दोहा ३५]


एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर तीर। जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर ॥


।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।


उहाँ निसाचर रहहिं ससंका । जब तें जारि गयउ कपि लंका ॥


निज निज गृहँ सब करहिं बिचारा । नहिं निसिचर कुल केर उबारा ।।


जासु दूत बल बरनि न जाई। तेहि आएँ पुर कवन भलाई ॥


दूतिन्ह सन सुनि पुरजन बानी। मंदोदरी अधिक अकुलानी ॥


रहसि जोरि कर पति पग लागी । बोली बचन नीति रस पागी ॥


कंत करष हरि सन परिहरहू । मोर कहा अति हित हियँ धरहू ॥


समुझत जासु दूत कइ स्त्रवहिं गर्भ रजनीचर करनी। घरनी ॥


तासु नारि निज सचिव बोलाई। पठवहु कंत जो चहहु भलाई ॥


तव कुल कमल बिपिन दुखदाई। सीता सीत निसा सम आई ॥


सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें। हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें ॥


।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।


[दोहा ३६]


राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक। जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक ॥


।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

श्रवन सुनी सठ ता करि बानी। बिहसा जगत बिदित अभिमानी ॥

सभय सुभाउ नारि कर साचा । मंगल महुँ भय मन अति काचा ॥


जौं आवइ मर्कट कटकाई । जिअहिं बिचारे निसिचर खाई ॥


कंपहिं लोकप जाकीं त्रासा । तासु नारि सभीत बड़ि हासा ॥


अस कहि बिहसि ताहि उर लाई । चलेउ सभाँ ममता अधिकाई ॥


मंदोदरी हृदयँ कर चिंता । भयउ कंत पर बिधि बिपरीता ।।


बैठेउ सभाँ खबरि असि पाई । सिंधु पार सेना सब आई ॥


बूझेसि सचिव उचित मत कहहू । ते सब हँसे मष्ट करि रहहू ॥


जितेहु सुरासुर तब श्रम नर बानर केहि लेखे नाहीं। माहीं ॥


।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।


[दोहा ३७]


सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस। राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास ॥


।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।


सोइ रावन कहुँ बनी सहाई । अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई ॥


अवसर जानि बिभीषनु आवा । भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा ॥


पुनि सिरु नाइ बैठ निज आसन । बोला बचन पाइ अनुसासन ॥


जौ कृपाल पूँछिहु मोहि बाता। मति अनुरूप कहउँ हित ताता ।।


जो आपन चाहै कल्याना । सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना ।।


सो परनारि लिलार गोसाईं। तजउ चउथि के चंद कि नाईं ॥


चौदह भुवन एक पति होई । भूतद्रोह तिष्टइ नहिं सोई ॥


गुन सागर नागर नर जोऊ। अलप लोभ भल कहइ न कोऊ ॥


।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।


[दोहा ३८]


काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ। सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

तात राम नहिं नर भूपाला। भुवनेस्वर कालहु कर काला ॥


ब्रह्म अनामय अज भगवंता। ब्यापक अजित अनादि अनंता ॥


गो द्विज धेनु देव हितकारी। कृपा सिंधु मानुष तनुधारी ॥


जन रंजन भंजन खल ब्राता । बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता ॥


देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही । भजहु राम बिनु हेतु सनेही ॥


सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा । बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा ॥

ताहि बयरु तजि नाइअ माथा । प्रनतारति भंजन रघुनाथा ॥

जासु नाम त्रय ताप नसावन । सोइ प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन ॥


।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

[दोहा ३९ (क), (ख)]

बार बार पद लागउँ बिनय करउँ दससीस । परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस ॥

मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कहि पठई यह बात । तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाइ सुअवसरु तात ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

माल्यवंत अति सचिव सयाना । तासु बचन सुनि अति सुख माना ।।

तात अनुज तव नीति बिभूषन । सो उर धरहु जो कहत बिभीषन ।।


रिपु उतकरष कहत सठ दोऊ । दूरि न करहु इहाँ हइ कोऊ ॥


माल्यवंत गृह गयउ बहोरी। कहइ बिभीषनु पुनि कर जोरी ॥


सुमति कुमति सब कें उर रहहीं । नाथ पुरान निगम अस कहहीं ॥


जहाँ सुमति तहँ संपति नाना । जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना ।।


तव उर कुमति बसी बिपरीता । हित अनहित मानहु रिपु प्रीता ॥


कालराति निसिचर कुल केरी। तेहि सीता पर प्रीति घनेरी ॥


।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।


[दोहा ४०]

तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार । सीता देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हार ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

बुध पुरान श्रुति संमत बानी। कही बिभीषन नीति बखानी ॥

सुनत दसानन उठा रिसाई । खल तोहि निकट मृत्यु अब आई ॥

जिअसि सदा सठ मोर जिआवा । रिपु कर पच्छ मूढ़ तोहि भावा ॥


कहसि न खल अस को जग माहीं । भुज बल जाहि जिता मैं नाहीं ॥


मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती । सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती ॥


अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा । अनुज गहे पद बारहिं बारा ॥


उमा संत कइ इहइ बड़ाई । मंद करत जो करइ भलाई ॥


तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा । रामु भजें हित नाथ तुम्हारा ॥


सचिव संग लै नभ पथ गयऊ । सबहि सुनाइ कहत अस भयऊ ॥


।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।


[दोहा ४१]


रामु सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि। मैं रघुबीर सरन अब जाउँ देहु जनि खोरि ॥


।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।


अस कहि चला बिभीषनु जबहीं। आयूहीन भए सब तबहीं ।।

साधु अवग्या तुरत भवानी । कर कल्यान अखिल कै हानी ॥

रावन जबहिं बिभीषन त्यागा । भयउ बिभव बिनु तबहिं अभागा ॥

चलेउ हरषि रघुनायक पाहीं । करत मनोरथ बहु मन माहीं ॥

देखिहउँ जाइ चरन जलजाता । अरुन मृदुल सेवक सुखदाता ॥

जे पद परसि तरी दंडक कानन रिषिनारी । पावनकारी ।।

जे पद जनकसुताँ उर लाए । कपट कुरंग संग धर धाए ॥

हर उर सर सरोज पद जेई । अहोभाग्य मैं देखिहउँ तेई ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

[दोहा ४२]


जिन्ह पायन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ । ते पद आजु बिलोकिहउँ इन्ह नयनन्हि अब जाइ ॥


।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

एहि बिधि करत सप्रेम बिचारा । आयउ सपदि सिंधु एहिं पारा ॥

कपिन्ह बिभीषनु आवत देखा। जाना कोउ रिपु दूत बिसेषा ॥

ताहि राखि कपीस पहिं आए । समाचार सब ताहि सुनाए ।।

कह सुग्रीव सुनहु रघुराई । आवा मिलन दसानन भाई ॥

कह प्रभु सखा बूझिऐ काहा। कहइ कपीस सुनहु नरनाहा ।।

जानि न जाइ निसाचर माया । कामरूप केहि कारन आया ॥

भेद हमार लेन सठ आवा । राखिअ बाँधि मोहि अस भावा ॥

सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी। मम पन सरनागत भयहारी ॥

सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना। सरनागत बच्छल

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

[दोहा ४३] भगवाना II

सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि । ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू । आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू ॥


सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं ॥


पापवंत कर सहज सुभाऊ । भजनु मोर तेहि भाव न काऊ ॥


जौं पै दुष्ट हृदय सोइ होई। मोरें सनमुख आव कि सोई ।।


निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा ॥


भेद लेन पठवा दससीसा । तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा ।।


जग महुँ सखा निसाचर जेते। लछिमनु हनइ निमिष महुँ तेते ॥


जौं सभीत आवा सरनाईं। रखिहउँ ताहि प्रान की नाईं ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

[दोहा ४४]


उभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपानिकेत । जय कृपाल कहि कपि चले अंगद हनू समेत ॥


।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।


सादर तेहि आगें करि बानर । चले जहाँ रघुपति करुनाकर ॥


दूरिहि ते देखे द्वौ नयनानंद दान के भ्राता । दाता ।।


बहुरि राम छबिधाम बिलोकी । रहेउ ठटुकि एकटक पल रोकी ॥


भुज प्रलंब कंजारुन लोचन । स्यामल गात प्रनत भय मोचन ।।


सिंघ कंध आयत उर आनन अमित मदन मन नयन नीर पुलकित अति मन धरि धीर कही मृदु नाथ दसानन सोहा । मोहा ।। गाता । बाता ।। कर मैं भ्राता । निसिचर बंस जनम सुरत्राता ।।


सहज पापप्रिय तामस देहा। जथा उलूकहि तम पर नेहा ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

[दोहा ४५]


श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर। त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर ॥


।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।


अस कहि करत दंडवत देखा। तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा ॥


दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा । भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा ॥


अनुज सहित मिलि ढिग बैठारी। बोले बचन भगत भयहारी ॥


कहु लंकेस सहित परिवारा। कुसल कुठाहर बास तुम्हारा ॥


खल मंडली बसहु दिनु राती । सखा धरम निबहइ केहि भाँती ॥


मैं जानउँ तुम्हारि सब रीती । अति नय निपुन न भाव अनीती ।।


बरु भल बास नरक कर ताता । दुष्ट संग जनि देइ बिधाता ॥


अब पद देखि कुसल रघुराया। जौं तुम्ह कीन्हि जानि जन दाया ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

[दोहा ४६]

तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम। जब लगि भजत न राम कहुँ सोक धाम तजि काम ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

तब लगि हृदयँ बसत खल नाना। लोभ मोह मच्छर मद माना ॥


जब लगि उर न बसत रघुनाथा। धरें चाप सायक कटि भाथा ॥


ममता तरुन तमी अँधिआरी । राग द्वेष उलूक सुखकारी ॥


तब लगि बसति जीव मन माहीं। जब लगि प्रभु प्रताप रबि नाहीं ॥


अब मैं कुसल मिटे भय भारे । देखि राम पद कमल तुम्हारे ॥


तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला । ताहि न ब्याप त्रिबिध भव सूला ।।

मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ । सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ ॥


जासु रूप मुनि ध्यान न आवा । तेहिं प्रभु हरषि हृदयँ मोहि लावा ॥


।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

[दोहा ४७]


अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुंज । देखेउँ नयन बिरंचि सिव सेब्य जुगल पद कंज ॥


।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।


सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ । जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ ॥


जौं नर होइ चराचर द्रोही। आवै सभय सरन तकि मोही ॥


तजि मद मोह कपट छल नाना। करउँ सद्य तेहि साधु समाना ॥


जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुहृद परिवारा ॥


सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बाँध बरि डोरी ॥


समदरसी इच्छा कछु नाहीं। हरष सोक भय नहिं मन माहीं ॥


अस सज्जन मम उर बस कैसें। लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें ॥


तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें। धरउँ देह नहिं आन निहोरें ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

[दोहा ४८]


सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम। ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

सुनु लंकेस सकल गुन तोरें। तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें ॥


राम बचन सुनि बानर जूथा। सकल कहहिं जय कृपा बरूथा ॥


सुनत बिभीषनु प्रभु कै बानी। नहिं अघात श्रवनामृत जानी ॥


पद अंबुज गहि बारहिं बारा । हृदयं समात न प्रेमु अपारा ॥


सुनहु देव सचराचर स्वामी । प्रनतपाल उर अंतरजामी ॥


उर कछु प्रथम बासना रही। प्रभु पद प्रीति सरित सो बही ॥


अब कृपाल निज भगति पावनी । देहु सदा सिव मन भावनी ॥


एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा। मागा तुरत सिंधु कर नीरा ॥


जदपि सखा तव इच्छा नाहीं। मोर दरसु अमोघ जग माहीं ॥


अस कहि राम तिलक तेहि सारा। सुमन बृष्टि नभ भई अपारा ॥


।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

[दोहा ४९ (क), (ख)]

रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड । जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेउ राजु अखंड ॥


जो संपति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ। सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्हि रघुनाथ ॥


।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।


अस प्रभु छाड़ि भजहिं जे आना । ते नर पसु बिनु पूँछ बिषाना ।।


निज जन जानि ताहि अपनावा । प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा ।।


पुनि सर्बग्य सर्ब उर बासी । सर्वरूप सब रहित उदासी ॥


बोले बचन नीति प्रतिपालक । कारन मनुज दनुज कुल घालक ॥


सुनु कपीस लंकापति बीरा । केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा ॥


संकुल मकर उरग झष जाती। अति अगाध दुस्तर सब भाँती ॥


कह लंकेस सुनहु रघुनायक । कोटि सिंधु सोषक तव सायक ॥


जद्यपि तदपि नीति असि गाई। बिनय करिअ सागर सन जाई ॥


।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

[दोहा ५०]


प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि कहिहि उपाय बिचारि । बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

सखा कही तुम्ह नीकि उपाई। करिअ दैव जौं होड़ सहाई ॥


मंत्र न यह लछिमन मन भावा । राम बचन सुनि अति दुख पावा ॥


नाथ दैव कर कवन सोषिअ सिंधु करिअ मन कादर मन कहुँ एक दैव दैव आलसी सुनत बिहसि बोले भरोसा ।


रोसा ॥ अधारा । पुकारा ॥ रघुबीरा। ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा ॥


अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई । सिंधु समीप गए रघुराई ॥

प्रथम प्रनाम कीन्ह सिरु नाई। बैठे पुनि तट दर्भ डसाई ॥

जबहिं बिभीषन प्रभु पहिं आए। पाछें रावन दूत पठाए ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

[दोहा ५१]

सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह। प्रभु गुन हृदयं सराहहिं सरनागत पर नेह ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

प्रगट बखानहिं राम सुभाऊ । अति सप्रेम गा बिसरि दुराऊ ॥


रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने। सकल बाँधि कपीस पहिं आने ।।


कह सुग्रीव सुनहु सब बानर । अंग भंग करि पठवहु निसिचर ॥


सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए। बाँधि कटक चहु पास फिराए ॥


बहु प्रकार मारन कपि लागे। दीन पुकारत तदपि न त्यागे ॥


जो हमार हर नासा काना। तेहि कोसलाधीस कै आना ।।


सुनि लछिमन सब निकट बोलाए । दया लागि हँसि तुरत छोड़ाए ॥


रावन कर दीजहु यह पाती। लछिमन बचन बाचु कुलघाती ।।


।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।


[दोहा ५२]


कहेहु मुखागर मूढ़ सन मम संदेसु उदार । सीता देइ मिलहु न त आवा कालु तुम्हार ॥


।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।


तुरत नाइ लछिमन पद माथा। चले दूत बरनत गुन गाथा ।।


कहत राम जसु लंकाँ आए। रावन चरन सीस तिन्ह नाए ॥


बिहसि दसानन पूँछी बाता । कहसि न सुक आपनि कुसलाता ॥


पुनि कहु खबरि बिभीषन केरी। जाहि मृत्यु आई अति नेरी ॥


करत राज लंका सठ त्यागी । होइहि जव कर कीट अभागी ।।


पुनि कहु भालु कीस कटकाई। कठिन काल प्रेरित चलि आई ॥


जिन्ह के जीवन कर रखवारा। भयउ मृदुल चित सिंधु बिचारा ।।


कहु तपसिन्ह कै बात बहोरी । जिन्ह के हृदयँ त्रास अति मोरी ॥


।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।


[दोहा ५३]


की भइ भेंट कि फिरि गए श्रवन सुजसु सुनि मोर। कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर ॥


।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसें ।  मानहु कहा क्रोध तजि तैसें ॥

मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा । जातहिं राम तिलक तेहि सारा ॥


रावन दूत हमहि सुनि काना। कपिन्ह बाँधि दीन्हे दुख नाना ॥


श्रवन नासिका काटें लागे। राम सपथ दीन्हें हम त्यागे ।।


पूँछिहु राम नाथ कटकाई। बदन कोटि सत बरनि न जाई ॥


नाना बरन भालु कपि धारी। बिकटानन बिसाल भयकारी ॥


जेहिं पुर दहेउ हतेउ सुत तोरा । सकल कपिन्ह महँ तेहि बलु थोरा ॥


अमित नाम भट कठिन कराला। अमित नाग बल बिपुल बिसाला ।।


।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

[दोहा ५४]


द्विबिद मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि । दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि ॥


।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।


ए कपि सब सुग्रीव समाना । इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना ॥


राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं। तृन समान त्रैलोकहि गनहीं ॥


अस मैं सुना श्रवन दसकंधर। पदुम अठारह जूथप बंदर ॥


नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं। जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं ॥


परम क्रोध मीजहिं सब हाथा। आयसु पै न देहिं रघुनाथा ।।


सोषहिं सिंधु सहित झष ब्याला । पूरहिं न त भरि कुधर बिसाला ॥


मर्दि गर्द मिलवहिं दससीसा । ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा ॥


गर्जहिं तर्जहिं सहज असंका । मानहुँ ग्रसन चहत हहिं लंका ॥


।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

[दोहा ५५]


सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम । रावन काल कोटि कहुँ जीति सकहिं संग्राम ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

राम तेज बल बुधि बिपुलाई । सेष सहस सत सकहिं न गाई ॥


सक सर एक सोषि सत तव भ्रातहि पूँछेउ नय तासु बचन सुनि सागर मागत पंथ कृपा मन सागर । नागर ।।


पाहीं । माहीं ॥ सुनत बचन बिहसा दससीसा । जौं असि मति सहाय कृत कीसा ॥


सहज भीरु कर बचन दृढ़ाई । सागर सन ठानी मचलाई ॥

मूढ़ मृषा का करसि बड़ाई। रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई ॥

सचिव सभीत बिभीषन जाकें । बिजय बिभूति कहाँ जग ताकें ॥

सुनि खल बचन दूत रिस बाढ़ी। समय बिचारि पत्रिका काढ़ी ॥

रामानुज दीन्ही यह नाथ बचाइ जुड़ावहु पाती। छाती ।।

बिहसि बाम कर लीन्ही रावन । सचिव बोलि सठ लाग बचावन ।।

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

[दोहा ५६ (क), (ख)]

बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस । राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस ॥


।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।


की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग।


होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग ॥


सुनत सभय मन मुख मुसुकाई । कहत दसानन सबहि सुनाई ।।


भूमि परा कर गहत अकासा । लघु तापस कर बाग बिलासा ।।


कह सुक नाथ सत्य सब बानी। समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी ॥


सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा । नाथ राम सन तजहु बिरोधा ॥


अति कोमल रघुबीर सुभाऊ । जद्यपि अखिल लोक कर राऊ ॥


मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु उर अपराध न एकउ जनकसुता रघुनाथहि एतना कहा मोर प्रभु करिही। धरिही ॥


दीजे । कीजे ॥ जब तेहिं कहा देन बैदेही। चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही ॥


नाइ चरन सिरु चला सो तहाँ। कृपासिंधु रघुनायक जहाँ ॥


करि प्रनामु निज कथा सुनाई। राम कृपाँ आपनि गति पाई ॥


रिषि अगस्ति कीं साप भवानी। राछस भयउ रहा मुनि ग्यानी ।।


बंदि राम पद बारहिं बारा । मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा ॥


।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

[दोहा ५७]


बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति । बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति ॥


।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।


लछिमन बान सरासन आनू । सोषौं बारिधि बिसिख कृसानू ॥


सठ सन बिनय कुटिल सन सहज कृपन सन सुंदर प्रीती । नीती ॥


ममता रत सन ग्यान कहानी। अति लोभी सन बिरति बखानी ।।


क्रोधिहि सम कामिहि हरिकथा। ऊसर बीज बएँ फल जथा ।।


अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा । यह मत लछिमन के मन भावा ॥


संधानेउ प्रभु बिसिख कराला । उठी उदधि उर अंतर ज्वाला ॥


मकर उरग झष गन अकुलाने । जरत जंतु जलनिधि जब जाने ।।


कनक थार भरि मनि गन नाना। बिप्र रूप आयउ तजि माना ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

[दोहा ५८]


काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच। बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच ॥


।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।


सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे। छमहु नाथ सब अवगुन मेरे ॥


गगन समीर अनल जल धरनी। इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी ।।


तव प्रेरित मायाँ उपजाए। सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए ।


प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई। सो तेहि भाँति रहें सुख लहई ॥


प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्ही । मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही ॥


ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी ॥


प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई। उतरिहि कटकु न मोरि बड़ाई ।


प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई। करौं सो बेगि जो तुम्हहि सोहाई ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

[दोहा ५९]


सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ। जेहि बिधि उतरै कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ ॥


।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।


नाथ नील नल कपि द्वौ भाई। लरिकाईं रिषि आसिष पाई ॥


तिन्ह कें परस किएँ गिरि भारे । तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे ॥


मैं पुनि उर धरि प्रभु प्रभुताई। करिहउँ बल अनुमान सहाई ॥


एहि बिधि नाथ पयोधि बँधाइअ । जेहिं यह सुजसु लोक तिहुँ गाइअ । एहिं सर मम उत्तर तट बासी । हतहु


नाथ खल नर अघ रासी ।। सुनि कृपाल सागर मन पीरा। तुरतहिं हरी राम रनधीरा ॥


देखि राम बल पौरुष भारी। हरषि पयोनिधि भयउ सुखारी ॥


सकल चरित कहि प्रभुहि सुनावा । चरन बंदि पाथोधि सिधावा ।।


छं० - निज भवन गवनेउ सिंधु श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ ।


यह चरित कलि मलहर जथामति दास तुलसी गायऊ ॥


सुख भवन संसय समन दवन बिषाद रघुपति गुन गना।


तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि संतत सठ मना ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

[दोहा ६०]


सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान। सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान ॥

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने पञ्चमः सोपानः समाप्तः ।


कलियुगके समस्त पापोंका नाश करनेवाले श्रीरामचरितमानसका यह पाँचवाँ सोपान समाप्त हुआ।

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

(सुन्दरकाण्ड समाप्त )

ㅁㅁ

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।





















हमसे जुड़े

Translate

Featured Post