प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यानघन । जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर ॥
किष्किन्धाकाण्ड
[दोहा २९]
बलि बाँधत प्रभु बाढ़ेउ सो तनु बरनि न जाइ । उभय घरी महँ दीन्हीं सात प्रदच्छिन धाइ ॥
अंगद कहइ जाउँ मैं पारा । जियँ संसय कछु फिरती बारा ॥
जामवंत कह तुम्ह सब लायक । पठइअ किमि सबही कर नायक ॥
कहइ रीछपति सुनु हनुमाना । का चुप साधि रहेहु बलवाना ॥
पवन तनय बल पवन समाना । बु धि बिबेक बिग्यान निधाना ॥
कवन सो काज कठिन जग माहीं । जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं ॥
राम काज लगि तव अवतारा । सुनतहिं भयउ पर्बताकारा ॥
कनक बरन तन तेज बिराजा । मानहुँ अपर गिरिन्ह कर राजा ॥
सिंहनाद करि बारहिं बारा । लीलहिँ नाघउँ जलनिधि खारा ॥
सहित सहाय रावनहि मारी । आनउँ इहाँ त्रिकूट उपारी ॥
जामवंत मैं पूँछउँ तोही । उचित सिखावनु दीजहु मोही ॥
एतना करहु तात तुम्ह जाई । सीतहि देखि कहहु सुधि आई ।।
तब निज भुज बल राजिवनैना । कौतुक लागि संग कपि सेना ॥
छं० - कपि सेन संग सँघारि निसिचर रामु सीतहि आनिहैं ।
त्रैलोक पावन सुजसु सुर मुनि नारदादि बखानिहैं ।
जो सुनत गावत कहत समुझत परम पद नर पावई ।
रघुबीर पद पाथोज मधुकर दास तुलसी गावई ॥
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[ सोरठा ३० (क)]
भव भेषज रघुनाथ जसु सुनहिं जे नर अरु नारि । तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करहिं त्रिसिरारि ॥
[ सोरठा ३० (ख)]
नीलोत्पल तन स्याम काम कोटि सोभा अधिक । सुनिअ तासु गुन ग्राम जासु नाम अघ खग बधिक ॥
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॥ श्री गणेशाय नमः ॥
श्रीरामचरितमानस पञ्चम सोपान
सुन्दरकाण्ड
श्लोक
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शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं , ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदांतवेद्यं विभुम् ।
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं , वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम् ।।१।।
नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये , सत्यं दामि च भवानखिलान्तरात्मा ।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां मे , कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च ॥२॥
अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् ।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि ।।३।।
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जामवंत के वचन सुहाए । सुनि हनुमंत हृदय अति भाए ।।
तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई । सहि दुख कंद मूल फल खाई ॥
जब लगि आवौं सीतहि देखी। होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी ॥
यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा । चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा ॥
सिंधु तीर एक भूधर सुंदर । कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर ॥
बार बार रघुबीर सँभारी । तरकेउ पवनतनय बल भारी ॥
जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता । चलेउ सो गा पाताल तुरंता ॥
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना । एही भाँति चलेउ हनुमाना ॥
जलनिधि रघुपति दूत बिचारी। तैं मैनाक होहि श्रमहारी ॥
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[दोहा १]
हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम । राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम ॥
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जात पवनसुत देवन्ह देखा । जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा ॥
सुरसा नाम अहिन्ह कै माता । पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता ॥
आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा । सुनत बचन कह पवनकुमारा ॥
राम काजु करि फिरि मैं आवौं । सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं ॥
तब तव बदन बदन पैठिहउँ आई । सत्य कहउँ मोहि जान दे माई ॥
कवनेहुँ जतन देइ नहिं जाना । ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना ॥
जोजन भरि तेहिं बदनु पसारा । कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा ॥
सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ। तुरत पवनसुत पवनसुत बत्तिस भयऊ ॥
जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा। तासु दून कपि रूप देखावा ॥
सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा। अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा ॥
बदन पइठि पुनि बाहेर आवा। मागा बिदा ताहि सिरु नावा ॥
मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा। बुधि बल मरमु तोर मैं पावा ॥
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[दोहा २]
राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान । आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान ॥
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निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई । करि माया नभु के खग गहई |
जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं । जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं ॥
गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई । एहि बिधि सदा गगनचर खाई ॥
सोइ छल हनूमान कहँ कीन्हा । तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा ॥
ताहि मारि मारुतसुत बीरा । बारिधि पार गयउ मतिधीरा ॥
तहाँ जाइ देखी बन सोभा । गुंजत चंचरीक मधु लोभा ॥
नाना तरु फल फूल सुहाए। खग मृग बृंद देखि मन भाए ॥
सैल बिसाल देखि एक आगें । ता पर धाइ चढ़ेउ भय त्यागें ॥
उमा न कछु कपि कै अधिकाई । प्रभु प्रताप जो कालहि खाई ॥
गिरि पर चढ़ि लंका तेहिं देखी। कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी ॥
ंअति उतंग जलनिधि चहु पासा । कनक कोट कर परम प्रकासा ॥
छं० - कनक कोट बिचित्र मनि कृत सुंदरायतना घना।
चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना ॥
गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथन्हि को गनै ।
बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै ॥१॥
बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं ।
नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं ॥
कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं ।
नाना अखारेन्ह भिरहिं बहुबिधि एक एकन्ह तर्जहीं ॥ २ ॥
करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं ।
कहुँ महिष मानुष धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं ॥
एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही।
रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही ॥३॥
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[दोहा ३]
पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार । अति लघु रूप धरौं निसि नगर करौं पइसार ॥
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मसक समान रूप कपि धरी । लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी ॥
नाम लंकिनी एक निसिचरी । सो कह चलेसि मोहि निंदरी ॥
जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा । मोर अहार जहाँ लगि चोरा॥
मुठिका एक महा कपि हनी। रुधिर बमत धरनीं ढनमनी ॥
पुनि संभारि उठी सो लंका । जोरि पानि कर बिनय ससंका ॥
जब रावनहि ब्रह्म बर बर दीन्हा। चलत बिरंचि कहा मोहि चीन्हा ॥
बिकल होसि तैं कपि कें मारे। तब जानेसु निसिचर संघारे ॥
तात मोर अति पुन्य बहूता । देखेउँ नयन राम कर दूता ॥
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[दोहा ४]
तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग । तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग ॥
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प्रबिसि नगर कीजे सब काजा । हृदयँ राखि कोसलपुर राजा ॥
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई । गोपद सिंधु अनल सितलाई ॥
गरुड़ सुमेरु रेनु सम सम ताही राम कृपा करि चितवा जाही ॥
अति लघु रूप धरेउ हनुमाना । पैठा नगर सुमिरि भगवाना ॥
मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा । देखे जहँ तहँ अगनित जोधा ॥
गयउ दसानन मंदिर माहीं । अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं ॥
सयन किएँ देखा कपि तेही । मंदिर महुँ न दीखि बैदेही ॥
भवन एक पुनि दीख सुहावा । हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा ॥
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[दोहा ५]
रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ । नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरष कपिराइ ॥
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लंका निसिचर निकर निवासा । इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा ॥
मन महुँ तरक करें कपि लागा । तेहीं समय बिभीषनु जागा ॥
राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा । हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा ॥
एहि सन हठि करिहउँ पहिचानी । साधु ते होइ न कारज हानी ॥
रूप धरि बचन सुनाए । बिभीषन उठि तहँ आए ॥
करि प्रनाम पूँछी कुसलाई । बिप्र कहहु निज कथा बुझाई ॥
की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई । मोरें हृदय प्रीति अति होई ॥
की तुम्ह रामु दीन अनुरागी । आयहु मोहि करन बड़भागी ॥
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[दोहा ६ ]
तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम । सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम ॥
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सुनहु पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी ॥
तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा । करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा ॥
तामस तनु कछु साधन नाहीं । प्रीति न पद सरोज मन माहीं ॥
अब मोहि भा भरोस हनुमंता । बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता ॥
जौं रघुबीर अनुग्रह कीन्हा । तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा ॥
सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती। करहिं सदा सेवक पर प्रीती ॥
कहहु कवन मैं परम कुलीना । कपि चंचल सबहीं बिधि हीना ॥
प्रात लेइ जो नाम हमारा । तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा ॥
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[दोहा ७]
अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर । कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर ॥
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जानतहूँ अस स्वामि बिसारी । फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी ॥
एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा। पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा॥
पुनि सब कथा बिभीषन कही। जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही ॥
तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता । देखी चहउँ जानकी माता ॥
जुगुति बिभीषन सकल सुनाई । चलेउ पवनसुत बिदा कराई ॥
करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ। बन असोक सीता रह जहवाँ ॥
देखि मनहि महुँ कीन्ह प्रनामा । बैठेहिं बीति जात निसि जामा ॥
कृस तनु सीस जटा एक बेनी जपति हृदयँ रघुपति गुन श्रेनी ॥
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[दोहा ८ ]
निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन। परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन ॥
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तरु पल्लव महुँ रहा लुकाई । करइ बिचार करौं का भाई ॥
तेहि अवसर रावनु तहँ आवा । संग नारि बहु किएँ बनावा ॥
बहु बिधि खल सीतहि समुझावा। साम दान भय भेद देखावा ॥
कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी । मंदोदरी आदि सब रानी ॥
तव अनुचरीं करउँ पन मोरा । एक बार बिलोकु मम ओरा ॥
तृन धरि ओट कहति बैदेही । सुमिरि अवधपति परम सनेही ॥
सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा । कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा ॥
अस मन समुझु कहति जानकी । खल सुधि नहिं रघुबीर बान की ॥
सठ सूनें हरि आनेहि मोही । अधम निलज्ज लाज नहिं तोही॥
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[दोहा ९]
आपुहि सुनि खद्योत सम रामहि भानु समान । परुष बचन सुनि काढ़ि असि बोला अति खिसिआन ॥
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सीता तैं मम कृत अपमाना । कटिहउँ तव सिर कठिन कृपाना ॥
नाहिं त सपदि मानु मम बानी । सुमुखि होति न त जीवन हानी ॥
स्याम सरोज दाम सम सुंदर । प्रभु भुज करि कर सम दसकंधर ॥
सो भुज कंठ कि तव असि घोरा । सुनु सठ अस प्रवान पन मोरा ॥
चंद्रहास हरु मम परितापं । रघुपति बिरह अनल संजातं ॥
सीतल निसित बहसि बर धारा । कह सीता हरु मम दुख भारा ॥
सुनत बचन पुनि मारन धावा । मयतनयाँ कहि नीति बुझावा ॥
कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई । सीतहि बहु बिधि त्रासहु जाई ॥
मास दिवस महुँ कहा न माना । तौ मैं मारबि काढ़ि कृपाना ॥
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[दोहा १०]
भवन गयउ दसकंधर इहाँ पिसाचिनि बृंद । सीतहि त्रास देखावहिं धरहिं रूप बहु मंद ॥
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त्रिजटा नाम राच्छसी एका । राम चरन रति निपुन बिबेका ॥
सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना । सीतहि सेइ करहु हित अपना ॥
सपनें बानर लंका जारी । जातुधान सेना सब मारी ॥
खर आरूढ़ नगन दससीसा । मुंडित सिर खंडित भुज बीसा ॥
एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई । लंका मनहुँ बिभीषन पाई ॥
नगर फिरी रघुबीर दोहाई । तब प्रभु सीता बोलि पठाई ॥
यह सपना मैं कहउँ पुकारी । होइहि सत्य गएँ दिन चारी ॥
तासु बचन सुनि ते सब डरीं । जनकसुता के के चरनन्हि परीं ॥
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[दोहा ११]
जहँ तहँ गईं सकल तब सीता कर मन सोच। मास दिवस बीतें मोहि मारिहि निसिचर पोच ॥
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त्रिजटा सन बोलीं कर जोरी। मातु बिपति संगिनि तैं मोरी ॥
तजौं देह करु बेगि उपाई । दुसह बिरहु अब नहिं सहि जाई ॥
आनि काठ रचु चिता बनाई । मातु अनल पुनि देहि लगाई ॥
सत्य करहि मम प्रीति सयानी। सुनै को श्रवन सूल सम बानी ॥
सुनत बचन पद गहि समुझाएसि । प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि ॥
निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी । अस कहि सो निज भवन सिधारी॥
कह सीता बिधि भा प्रतिकूला । मिलिहि न पावक मिटिहि न सूला ॥
देखिअत प्रगट गगन अंगारा । अवनि न आवत आवत एकउ तारा॥
पावकमय ससि स्रवत न आगी। मानहुँ मोहि मोहि जानि हतभागी॥
सुनहि बिनय मम बिटप असोका । सत्य नाम करु हरु मम सोका ॥
नूतन किसलय अनल समाना देहि अगिनि जनि करहि निदाना ॥
देखि परम बिरहाकुल सीता । सो छन कपिहि कलप सम बीता ॥
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[ सोरठा १२]
कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारि तब। जनु असोक अंगार दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ ॥
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तब देखी मुद्रिका मनोहर । राम नाम अंकित अति सुंदर ॥
चकित चितव मुदरी पहिचानी । हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी ॥
जीति को सकइ अजय रघुराई । माया तें असि रचि नहिं जाई ॥
सीता मन बिचार कर नाना। बचन मधुर बोलेउ हनुमाना ॥
रामचंद्र गुन बरनैं लागा । सुनतहिं सीता कर दुख भागा ॥
लागीं सुनैं श्रवन मन लाई । आदिहु तें सब कथा सुनाई ॥
श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई । कही सो प्रगट होति किन भाई ॥
तब हनुमंत निकट चलि गयऊ । फिरि बैठीं मन बिसमय भयऊ ॥
राम दूत मैं मातु जानकी । सत्य सपथ करुनानिधान की ॥
यह मुद्रिका मातु मैं आनी । दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी ॥
नर बानरहि संग कहु कैसें । कही कथा भइ संगति जैसें ॥
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[दोहा १३]
कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास । जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास ॥
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हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़ी । सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी ॥
बूड़त बिरह जलधि हनुमाना । भयहु तात मो कहुँ जलजाना ॥
अब कहु कुसल जाउँ बलिहारी । अनुज सहित सुख भवन खरारी ॥
कोमलचित कृपाल रघुराई । कपि केहि हेतु धरी निठुराई ॥
सहज बानि सेवक सुखदायक । कबहुँक सुरति करत रघुनायक ॥
कबहुँ नयन मम सीतल ताता। होइहहिं निरखि स्याम मृदु गाता ॥
बचनु न आव नयन भरे बारी । अहह नाथ ह्रौं निपट बिसारी ॥
देखि परम बिरहाकुल सीता । बोला कपि मृदु बचन बिनीता ॥
मातु कुसल प्रभु अनुज समेता । तव दुख दुखी सुकृपा निकेता ॥
जनि जननी मानहु जियँ ऊना । तुम्ह ते प्रेमु राम राम कें दूना ॥
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[दोहा १४]
रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर । अस कहि कपि गदगद भयउ भरे बिलोचन नीर ॥
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कहेउ राम बियोग तव सीता । मो कहुँ सकल भए बिपरीता ॥
नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू । कालनिसा सम निसि ससि भानू॥
कुबलय बिपिन कुंतबन सरिसा । बारिद तपत तेल जनु बरिसा ॥
जे हित रहे करत करत तेइ पीरा । उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा ॥
कहेहू तें कछु दुख घटि होई । काहि कहौं यह जान न कोई ॥
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा । जानत प्रिया एकु मनु मोरा ॥
सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं । जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं ॥
प्रभु संदेसु सुनत बैदेही । मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही ॥
कह कपि हृदयँ धीर धरु माता । सुमिरु राम सेवक सुखदाता ॥
उर आनहु रघुपति प्रभुताई । सुनि मम बचन तजहु कदराई ॥
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[दोहा १५]
निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु । जननी हृदयँ धीर धरु जरे निसाचर जानु ॥
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जौं रघुबीर होति सुधि पाई । करते नहिं बिलंबु रघुराई ॥
राम बान रबि उएँ जानकी । तम बरूथ कहूँ जातुधान की ॥
अबहिं मातु मैं जाउँ लवाई । प्रभु आयसु नहिं राम दोहाई ॥
कछुक दिवस जननी धरु धीरा। कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा ॥
निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं । तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं ॥
हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना । जातुधान अति भट बलवाना॥
मोरें हृदय परम संदेहा । सुनि कपि प्रगट कीन्हि निज देहा ॥
कनक भूधराकार सरीरा । समर भयंकर अतिबल बीरा ॥
सीता मन भरोस तब भयऊ । पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ॥
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
[दोहा १६]
सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल । प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल ॥
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
मन संतोष सुनत कपि बानी । भगति प्रताप तेज बल सानी ॥
आसिष दीन्हि रामप्रिय जाना । होहु तात बल सील निधाना ॥
अजर अमर गुननिधि सुत होहू । करहु बहुत रघुनायक छोहू ॥
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना । निर्भर प्रेम मगन हनुमाना ॥
बार बार नाएसि पद सीसा । बोला बचन जोरि कर कीसा ॥
अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता । आसिष तव अमोघ बिख्याता ॥
सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा । लागि देखि सुंदर फल रूखा॥
सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी । परम सुभट रजनीचर भारी ॥
तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं । जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं ॥
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[दोहा १७]
देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु। रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु ॥
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा । फल खाएसि तरु तोरैं लागा ॥
रहे तहाँ बहु भट रखवारे । कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे ॥
नाथ एक आवा कपि भारी। तेहिं असोक बाटिका उजारी॥
खाएसि फल अरु बिटप उपारे । रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे ॥
सुनि रावन पठए भट नाना। तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना ॥
सब रजनीचर कपि संघारे । गए पुकारत कछु अधमारे ॥
पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा । चला संग लै सुभट अपारा ॥
आवत देखि बिटप गहि तर्जा । ताहि निपाति महाधुनि गर्जा ॥
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[दोहा १८]
कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि । कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि ॥
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सुनि सुत बध लंकेस रिसाना । पठएसि मेघनाद बलवाना ॥
मारसि जनि सुत बाँधेसु ताही । देखिअ कपिहि कहाँ कर आही ॥
चला इंद्रजित अतुलित जोधा । बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा ॥
कपि देखा दारुन भट आवा । कटकटाइ गर्जा अरु धावा ॥
अति बिसाल तरु एक उपारा। बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा ॥
रहे महाभट ताके संगा । गहि गहि कपि मर्दइ निज अंगा ॥
तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा । भिरे जुगल मानहुँ गजराजा ॥
मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई । ताहि एक छन मुरुछा आई ॥
उठि बहोरि कीन्हिसि बहु माया । जीति न जाइ प्रभंजन जाया॥
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[दोहा १९]
ब्रह्म अस्त्र तेहि साँधा कपि मन कीन्ह बिचार । जौं न ब्रह्मसर मानउँ महिमा मिटइ अपार ॥
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ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहिं मारा। परतिहुँ बार कटकु संघारा ॥
तेहिं देखा कपि मुरुछित भयऊ। नागपास बाँधेसि लै गयऊ ॥
जासु नाम जपि सुनहु भवानी । भव बंधन काटहिं नर ग्यानी ॥
तासु दूत कि बंध तरु आवा। प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा ॥
कपि बंधन सुनि निसिचर धाए । कौतुक लागि सभाँ सब आए ॥
दसमुख सभा दीखि कपि जाई । कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई ॥
कर जोरें सुर दिसिप बिनीता । भृकुटि बिलोकत सकल सभीता ॥
देखि प्रताप न कपि मन संका। जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका ॥
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[दोहा २०]
कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद । सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिषाद ॥
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कह लंकेस कवन तैं कीसा। केहि कें बल घालेहि बन खीसा ॥
की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही । देखउँ अति असंक सठ तोही ॥
मारे निसिचर केहिं अपराधा । कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा ॥
सुनु रावन ब्रह्मांड ब्रह्मांड निकाया । पाइ जासु बल बिरचति माया ॥
जाकें बल बिरंचि हरि ईसा । पालत सृजत हरत दससीसा ॥
जा बल सीस धरत सहसानन । अंडकोस समेत गिरि कानन ॥
धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता । ७तुम्ह से सठन्ह सिखावनु दाता ॥
हर कोदंड कठिन जेहिं भंजा । तेहि समेत नृप दल मद गंजा ॥
खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली । बधे सकल अतुलित बल साली ॥
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[दोहा २१]
जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि । तासु दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि ॥
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जानउ मैं तुम्हारि प्रभुताई । सहसबाहु सन परी लराई ॥
समर बालि सन करि जसु पावा । सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा ॥
खायउँ फल प्रभु लागी भूँखा। कपि सुभाव तें तोरेउँ रूखा ॥
सब कें देह परम प्रिय स्वामी । मारहिं मोहि कुमारग गामी ॥
जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे। तेहि पर बाँधेउँ तनयँ तुम्हारे ॥
मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा। कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा ॥
बिनती करउँ जोरि कर रावन । सुनहु मान तजि मोर सिखावन ॥
देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी । भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी ॥
जाकें डर अति काल डेराई । जो सुर असुर चराचर खाई ॥
तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै । मोरे कहें जानकी दीजै ॥
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[दोहा २२]
प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि । गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि ॥
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राम चरन पंकज उर धरहू। लंका अचल राजु तुम्ह करहू ॥
रिषि पुलस्ति जसु बिमल मयंका । तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका ॥
राम नाम बिनु गिरा न सोहा । देखु बिचारि त्यागि मद मोहा ॥
बसन हीन नहिं सोह सुरारी । सब भूषन भूषित बर नारी ॥
राम बिमुख संपति प्रभुताई । जाई रही पाई बिनु बिनु पाई ॥
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं । बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाहीं ॥
सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी । बिमुख राम त्राता नहिं कोपी ॥
संकर सहस बिष्नु अज तोही । सकहिं न राखि राम कर द्रोही ॥
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[दोहा २३]
मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान । भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान ॥
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जदपि कही कपि अति हित बानी । भगति बिबेक बिरति नय सानी॥
बोला बिहसि महा अभिमानी । मिला हमहि कपि गुर बड़ ग्यानी॥
मृत्यु निकट आई खल तोही। लागेसि अधम सिखावन मोही ॥
उलटा होइहि कह हनुमाना। मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना॥
सुनि कपि बचन बहुत खिसिआना । बेगि न हरहु मूढ़ कर प्राना ॥
सुनत निसाचर मारन धाए। सचिवन्ह सहित बिभीषनु आए ।।
नाइ सीस करि बिनय बहूता नीति बिरोध न मारिअ दूता॥
आन दंड कछु करिअ गोसाँई । सबहीं कहा मंत्र भल भाई ॥
सुनत बिहसि बोला दसकंधर । अंग भंग करि पठइअ बंदर ॥
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[दोहा २४]
कपि कें ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ । तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु लगाइ ॥
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पूँछहीन बानर तहँ जाइहि । तब सठ निज नाथहि लइ आइहि ॥
जिन्ह कै कीन्हिसि बहुत बड़ाई । देखउँ मैं तिन्ह कै प्रभुताई ॥
बचन सुनत कपि मन मुसुकाना । भइ सहाय सारद मैं जाना ॥
जातुधान सुनि रावन बचना। लागे रचैं मूढ़ सोइ रचना ॥
रहा न नगर बसन घृत तेला । बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला ॥
कौतुक कहँ आए पुरबासी । मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी ॥
बाजहिं ढोल देहिं सब तारी। नगर फेरि पुनि पूँछ प्रजारी ॥
पावक जरत देखि हनुमंता । भयउ परम लघुरूप तुरंता ॥
निबुकि चढ़ेउ कपि कनक अटारीं । भई सभीत निसाचर नारीं ॥
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[दोहा २५]
हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास । अट्टहास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास ॥
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देह बिसाल परम हरु आई । मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई ॥
जरइ नगर भा लोग बिहाला । झपट लपट बहु कोटि कराला ॥
तात मातु हा सुनिअ पुकारा। एहिं अवसर को हमहि उबारा ॥
हम जो कहा यह कपि नहिं होई । बानर रूप धरें सुर कोई ॥
साधु अवग्या कर फलु ऐसा । जरइ नगर अनाथ कर जैसा॥
जारा नगरु निमिष एक माहीं एक बिभीषन कर गृह नाहीं ॥
ता कर दूत अनल जेहिं सिरिजा । जरा न सो तेहि कारन गिरिजा ॥
उलटि पलटि लंका सब जारी । कूदि परा पुनि सिंधु मझारी ॥
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[दोहा २६]
पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि । जनकसुता के आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि ॥
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मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा । जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा ॥
चूड़ामनि उतारि तब दयऊ । हरष समेत पवनसुत लयऊ ॥
कहेहु तात अस मोर प्रनामा । सब प्रकार प्रभु पूरनकामा ॥
दीन दयाल बिरिदु संभारी । हरहु नाथ मम संकट भारी ॥
तात सक्रसुत कथा सुनाएहु । बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु ॥
मास दिवस महुँ नाथु न आवा । तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा ॥
कहु कपि केहि बिधि राखौं प्राना । तुम्हहू तात कहत अब जाना॥
तोहि देखि सीतलि भइ छाती। पुनि मो कहूँ सोइ दिनु सो राती ॥
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
[दोहा २७]
जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह । चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह ॥
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चलत महाधुनि गर्जेसि भारी । गर्भ स्रवहिं सुनि निसिचर नारी ॥
नाघि सिंधु एहि पारहि आवा । सबद किलिकिला कपिन्ह सुनावा ॥
हरषे सब बिलोकि हनुमाना । नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना ॥
मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा । कीन्हेसि रामचंद्र कर काजा ॥
मिले सकल अति भए सुखारी । तलफत मीन पाव जिमि बारी ॥
चले हरषि रघुनायक पासा । पूँछत कहत नवल नवल इतिहासा ॥
तब मधुबन भीतर सब आए । अंगद संमत मधु फल खाए ॥
रखवारे जब बरजन लागे । मुष्टि प्रहार हनत सब भागे ॥
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
[दोहा २८]
जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज । सुनि सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज ॥
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जौं न होति सीता सुधि पाई। मधुबन के फल सकहिं कि खाई ॥
एहि बिधि मन बिचार कर राजा । आइ गए कपि सहित समाजा ॥
आइ सबन्हि नावा पद सीसा । मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा ॥
पूँछी कुसल कुसल पद देखी । राम कृपाँ भा काजु बिसेषी ।।
नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना। राखे सकल कपिन्ह के प्राना ॥
सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ । कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ ॥
राम कपिन्ह जब आवत देखा। किएँ काजु मन हरष बिसेषा ॥
फटिक सिला बैठे द्वौ भाई । परे सकल कपि चरनन्हि जाई ॥
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
[दोहा २९]
प्रीति सहित सब भेटे रघुपति करुना पुंज। पूँछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज ॥
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जामवंत कह सुनु रघुराया । जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया ॥
ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर । सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर ॥
सोइ बिजई बिनई गुन सागर । तासु सुजसु त्रैलोक उजागर ॥
प्रभु की कृपा भयउ सबु काजू । जन्म हमार सुफल भा आजू ॥
नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी । सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी ॥
पवनतनय के चरित सुहाए । जामवंत रघुपतिहि सुनाए ।।
सुनत कृपानिधि मन अति भाए। पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए ॥
कहहु तात केहि भाँति जानकी। रहति करति रच्छा स्वप्रान की ॥
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[दोहा ३०]
नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट । लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट ॥
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चलत मोहि चूड़ामनि दीन्ही । रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही ॥
नाथ जुगल लोचन भरि बारी। बचन कहे कछु जनककुमारी ॥
अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना । दीन बंधु प्रनतारति हरना ।।
मन क्रम बचन चरन अनुरागी । केहिं अपराध नाथ हौं त्यागी ।।
अवगुन एक मोर मैं माना। बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना ।।
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा । निसरत प्रान करहिं हठि बाधा ॥
बिरह अगिनि तनु तूल समीरा । स्वास जरइ छन माहिं सरीरा ॥
नयन स्त्रवहिं जलु निज हित लागी । जरें पाव न देह बिरहागी ॥
सीता कै अति बिपति बिसाला । बिनहिं कहें भलि दीनदयाला ।।
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
[दोहा ३१]
निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति । बेगि चलिअ प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति ॥
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना । भरि आए जल राजिव नयना ।।
बचन कायँ मन मम गति जाही। सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही ।।
कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई । जब तव सुमिरन भजन न होई ।।
केतिक बात प्रभु जातुधान की। रिपुहि जीति आनिबी जानकी ॥
सुनु कपि तोहि समान उपकारी। नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी ॥
प्रति उपकार करौं का तोरा। सनमुख होइ न सकत मन मोरा ॥
सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं । देखेउँ करि बिचार मन माहीं ॥
पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता । लोचन नीर पुलक अति गाता ॥
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[दोहा ३२]
सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमंत। चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत ॥
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बार बार प्रभु चहइ उठावा । प्रेम मगन तेहि उठब न भावा ॥
प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा। सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा ॥
सावधान मन करि पुनि संकर । लागे कहन कथा अति सुंदर ।।
कपि उठाइ प्रभु हृदयँ लगावा । कर गहि परम निकट बैठावा ।।
कहु कपि रावन पालित लंका। केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका ॥
प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना । बोला बचन बिगत अभिमाना ।।
साखामृग कै बड़ि मनुसाई । साखा तें साखा पर जाई ॥
नाघि सिंधु हाटकपुर जारा । निसिचर गन बधि बिपिन उजारा ।।
सो सब तव प्रताप रघुराई । नाथ न कछू मोरि प्रभुताई ॥
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
[दोहा ३३]
ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकूल । तव प्रभावँ बड़वानलहि जारि सकइ खलु तूल ॥
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
नाथ भगति अति सुखदायनी । देहु कृपा करि अनपायनी ॥
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी। एवमस्तु तब कहेउ भवानी ॥
उमा राम सुभाउ जेहिं जाना । ताहि भजनु तजि भाव न आना ।।
यह संबाद जासु उर आवा । रघुपति चरन भगति सोइ पावा ॥
सुनि प्रभु बचन कहहिं कपिबृंदा । जय जय जय कृपाल सुखकंदा ॥
तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा। कहा चलैं कर करहु बनावा ॥
अब बिलंबु केहि कारन कीजे। तुरत कपिन्ह कहुँ आयसु दीजे ॥
कौतुक देखि सुमन बहु बरषी। नभ तें भवन चले सुर हरषी ॥
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
[दोहा ३४]
कपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ । नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ ॥
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा । गर्जहिं भालु महाबल कीसा ॥
देखी राम सकल कपि सेना । चितइ कृपा करि राजिव नैना ॥
राम कृपा बल पाइ कपिंदा । भए पच्छजुत मनहुँ गिरिंदा ॥
हरषि राम तब कीन्ह पयाना । सगुन भए सुंदर सुभ नाना ।।
जासु सकल मंगलमय कीती । तासु पयान सगुन यह नीती ॥
प्रभु पयान जाना बैदेहीं । फरकि बाम अँग जनु कहि देहीं ॥
जोइ जोइ सगुन जानकिहि होई। असगुन भयउ रावनहि सोई ॥
चला कटकु को बरनैं पारा। गर्जहिं बानर भालु अपारा ।।
नख आयुध गिरिपा पादपधारी । चले गगन महि इच्छाचारी ॥
केहरिनाद भालु कपि करहीं। डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं ॥
छं० - चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे ।
मन हरष सभ गंधर्ब सुर मुनि नाग किंनर दुख टरे ॥
कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं ।
जय राम प्रबल प्रताप कोसल- नाथ गुन गन गावहीं ॥ १ ॥
सहि सक न भार उदार अहिपति बार बारहिं मोहई।
गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ट कठोर सो किमि सोहई ॥
रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी ।
जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत अबिचल पावनी ॥ २ ॥
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
[दोहा ३५]
एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर तीर। जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर ॥
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
उहाँ निसाचर रहहिं ससंका । जब तें जारि गयउ कपि लंका ॥
निज निज गृहँ सब करहिं बिचारा । नहिं निसिचर कुल केर उबारा ।।
जासु दूत बल बरनि न जाई। तेहि आएँ पुर कवन भलाई ॥
दूतिन्ह सन सुनि पुरजन बानी। मंदोदरी अधिक अकुलानी ॥
रहसि जोरि कर पति पग लागी । बोली बचन नीति रस पागी ॥
कंत करष हरि सन परिहरहू । मोर कहा अति हित हियँ धरहू ॥
समुझत जासु दूत कइ स्त्रवहिं गर्भ रजनीचर करनी। घरनी ॥
तासु नारि निज सचिव बोलाई। पठवहु कंत जो चहहु भलाई ॥
तव कुल कमल बिपिन दुखदाई। सीता सीत निसा सम आई ॥
सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें। हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें ॥
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
[दोहा ३६]
राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक। जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक ॥
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
श्रवन सुनी सठ ता करि बानी। बिहसा जगत बिदित अभिमानी ॥
सभय सुभाउ नारि कर साचा । मंगल महुँ भय मन अति काचा ॥
जौं आवइ मर्कट कटकाई । जिअहिं बिचारे निसिचर खाई ॥
कंपहिं लोकप जाकीं त्रासा । तासु नारि सभीत बड़ि हासा ॥
अस कहि बिहसि ताहि उर लाई । चलेउ सभाँ ममता अधिकाई ॥
मंदोदरी हृदयँ कर चिंता । भयउ कंत पर बिधि बिपरीता ।।
बैठेउ सभाँ खबरि असि पाई । सिंधु पार सेना सब आई ॥
बूझेसि सचिव उचित मत कहहू । ते सब हँसे मष्ट करि रहहू ॥
जितेहु सुरासुर तब श्रम नर बानर केहि लेखे नाहीं। माहीं ॥
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
[दोहा ३७]
सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस। राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास ॥
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सोइ रावन कहुँ बनी सहाई । अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई ॥
अवसर जानि बिभीषनु आवा । भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा ॥
पुनि सिरु नाइ बैठ निज आसन । बोला बचन पाइ अनुसासन ॥
जौ कृपाल पूँछिहु मोहि बाता। मति अनुरूप कहउँ हित ताता ।।
जो आपन चाहै कल्याना । सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना ।।
सो परनारि लिलार गोसाईं। तजउ चउथि के चंद कि नाईं ॥
चौदह भुवन एक पति होई । भूतद्रोह तिष्टइ नहिं सोई ॥
गुन सागर नागर नर जोऊ। अलप लोभ भल कहइ न कोऊ ॥
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
[दोहा ३८]
काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ। सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत ॥
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तात राम नहिं नर भूपाला। भुवनेस्वर कालहु कर काला ॥
ब्रह्म अनामय अज भगवंता। ब्यापक अजित अनादि अनंता ॥
गो द्विज धेनु देव हितकारी। कृपा सिंधु मानुष तनुधारी ॥
जन रंजन भंजन खल ब्राता । बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता ॥
देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही । भजहु राम बिनु हेतु सनेही ॥
सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा । बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा ॥
ताहि बयरु तजि नाइअ माथा । प्रनतारति भंजन रघुनाथा ॥
जासु नाम त्रय ताप नसावन । सोइ प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन ॥
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[दोहा ३९ (क), (ख)]
बार बार पद लागउँ बिनय करउँ दससीस । परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस ॥
मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कहि पठई यह बात । तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाइ सुअवसरु तात ॥
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माल्यवंत अति सचिव सयाना । तासु बचन सुनि अति सुख माना ।।
तात अनुज तव नीति बिभूषन । सो उर धरहु जो कहत बिभीषन ।।
रिपु उतकरष कहत सठ दोऊ । दूरि न करहु इहाँ हइ कोऊ ॥
माल्यवंत गृह गयउ बहोरी। कहइ बिभीषनु पुनि कर जोरी ॥
सुमति कुमति सब कें उर रहहीं । नाथ पुरान निगम अस कहहीं ॥
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना । जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना ।।
तव उर कुमति बसी बिपरीता । हित अनहित मानहु रिपु प्रीता ॥
कालराति निसिचर कुल केरी। तेहि सीता पर प्रीति घनेरी ॥
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[दोहा ४०]
तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार । सीता देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हार ॥
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बुध पुरान श्रुति संमत बानी। कही बिभीषन नीति बखानी ॥
सुनत दसानन उठा रिसाई । खल तोहि निकट मृत्यु अब आई ॥
जिअसि सदा सठ मोर जिआवा । रिपु कर पच्छ मूढ़ तोहि भावा ॥
कहसि न खल अस को जग माहीं । भुज बल जाहि जिता मैं नाहीं ॥
मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती । सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती ॥
अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा । अनुज गहे पद बारहिं बारा ॥
उमा संत कइ इहइ बड़ाई । मंद करत जो करइ भलाई ॥
तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा । रामु भजें हित नाथ तुम्हारा ॥
सचिव संग लै नभ पथ गयऊ । सबहि सुनाइ कहत अस भयऊ ॥
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[दोहा ४१]
रामु सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि। मैं रघुबीर सरन अब जाउँ देहु जनि खोरि ॥
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अस कहि चला बिभीषनु जबहीं। आयूहीन भए सब तबहीं ।।
साधु अवग्या तुरत भवानी । कर कल्यान अखिल कै हानी ॥
रावन जबहिं बिभीषन त्यागा । भयउ बिभव बिनु तबहिं अभागा ॥
चलेउ हरषि रघुनायक पाहीं । करत मनोरथ बहु मन माहीं ॥
देखिहउँ जाइ चरन जलजाता । अरुन मृदुल सेवक सुखदाता ॥
जे पद परसि तरी दंडक कानन रिषिनारी । पावनकारी ।।
जे पद जनकसुताँ उर लाए । कपट कुरंग संग धर धाए ॥
हर उर सर सरोज पद जेई । अहोभाग्य मैं देखिहउँ तेई ॥
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[दोहा ४२]
जिन्ह पायन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ । ते पद आजु बिलोकिहउँ इन्ह नयनन्हि अब जाइ ॥
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एहि बिधि करत सप्रेम बिचारा । आयउ सपदि सिंधु एहिं पारा ॥
कपिन्ह बिभीषनु आवत देखा। जाना कोउ रिपु दूत बिसेषा ॥
ताहि राखि कपीस पहिं आए । समाचार सब ताहि सुनाए ।।
कह सुग्रीव सुनहु रघुराई । आवा मिलन दसानन भाई ॥
कह प्रभु सखा बूझिऐ काहा। कहइ कपीस सुनहु नरनाहा ।।
जानि न जाइ निसाचर माया । कामरूप केहि कारन आया ॥
भेद हमार लेन सठ आवा । राखिअ बाँधि मोहि अस भावा ॥
सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी। मम पन सरनागत भयहारी ॥
सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना। सरनागत बच्छल
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
[दोहा ४३] भगवाना II
सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि । ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि ॥
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कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू । आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू ॥
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं ॥
पापवंत कर सहज सुभाऊ । भजनु मोर तेहि भाव न काऊ ॥
जौं पै दुष्ट हृदय सोइ होई। मोरें सनमुख आव कि सोई ।।
निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा ॥
भेद लेन पठवा दससीसा । तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा ।।
जग महुँ सखा निसाचर जेते। लछिमनु हनइ निमिष महुँ तेते ॥
जौं सभीत आवा सरनाईं। रखिहउँ ताहि प्रान की नाईं ॥
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[दोहा ४४]
उभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपानिकेत । जय कृपाल कहि कपि चले अंगद हनू समेत ॥
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सादर तेहि आगें करि बानर । चले जहाँ रघुपति करुनाकर ॥
दूरिहि ते देखे द्वौ नयनानंद दान के भ्राता । दाता ।।
बहुरि राम छबिधाम बिलोकी । रहेउ ठटुकि एकटक पल रोकी ॥
भुज प्रलंब कंजारुन लोचन । स्यामल गात प्रनत भय मोचन ।।
सिंघ कंध आयत उर आनन अमित मदन मन नयन नीर पुलकित अति मन धरि धीर कही मृदु नाथ दसानन सोहा । मोहा ।। गाता । बाता ।। कर मैं भ्राता । निसिचर बंस जनम सुरत्राता ।।
सहज पापप्रिय तामस देहा। जथा उलूकहि तम पर नेहा ॥
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[दोहा ४५]
श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर। त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर ॥
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अस कहि करत दंडवत देखा। तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा ॥
दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा । भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा ॥
अनुज सहित मिलि ढिग बैठारी। बोले बचन भगत भयहारी ॥
कहु लंकेस सहित परिवारा। कुसल कुठाहर बास तुम्हारा ॥
खल मंडली बसहु दिनु राती । सखा धरम निबहइ केहि भाँती ॥
मैं जानउँ तुम्हारि सब रीती । अति नय निपुन न भाव अनीती ।।
बरु भल बास नरक कर ताता । दुष्ट संग जनि देइ बिधाता ॥
अब पद देखि कुसल रघुराया। जौं तुम्ह कीन्हि जानि जन दाया ॥
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
[दोहा ४६]
तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम। जब लगि भजत न राम कहुँ सोक धाम तजि काम ॥
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तब लगि हृदयँ बसत खल नाना। लोभ मोह मच्छर मद माना ॥
जब लगि उर न बसत रघुनाथा। धरें चाप सायक कटि भाथा ॥
ममता तरुन तमी अँधिआरी । राग द्वेष उलूक सुखकारी ॥
तब लगि बसति जीव मन माहीं। जब लगि प्रभु प्रताप रबि नाहीं ॥
अब मैं कुसल मिटे भय भारे । देखि राम पद कमल तुम्हारे ॥
तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला । ताहि न ब्याप त्रिबिध भव सूला ।।
मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ । सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ ॥
जासु रूप मुनि ध्यान न आवा । तेहिं प्रभु हरषि हृदयँ मोहि लावा ॥
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
[दोहा ४७]
अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुंज । देखेउँ नयन बिरंचि सिव सेब्य जुगल पद कंज ॥
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ । जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ ॥
जौं नर होइ चराचर द्रोही। आवै सभय सरन तकि मोही ॥
तजि मद मोह कपट छल नाना। करउँ सद्य तेहि साधु समाना ॥
जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुहृद परिवारा ॥
सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बाँध बरि डोरी ॥
समदरसी इच्छा कछु नाहीं। हरष सोक भय नहिं मन माहीं ॥
अस सज्जन मम उर बस कैसें। लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें ॥
तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें। धरउँ देह नहिं आन निहोरें ॥
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
[दोहा ४८]
सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम। ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम ॥
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
सुनु लंकेस सकल गुन तोरें। तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें ॥
राम बचन सुनि बानर जूथा। सकल कहहिं जय कृपा बरूथा ॥
सुनत बिभीषनु प्रभु कै बानी। नहिं अघात श्रवनामृत जानी ॥
पद अंबुज गहि बारहिं बारा । हृदयं समात न प्रेमु अपारा ॥
सुनहु देव सचराचर स्वामी । प्रनतपाल उर अंतरजामी ॥
उर कछु प्रथम बासना रही। प्रभु पद प्रीति सरित सो बही ॥
अब कृपाल निज भगति पावनी । देहु सदा सिव मन भावनी ॥
एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा। मागा तुरत सिंधु कर नीरा ॥
जदपि सखा तव इच्छा नाहीं। मोर दरसु अमोघ जग माहीं ॥
अस कहि राम तिलक तेहि सारा। सुमन बृष्टि नभ भई अपारा ॥
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[दोहा ४९ (क), (ख)]
रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड । जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेउ राजु अखंड ॥
जो संपति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ। सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्हि रघुनाथ ॥
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
अस प्रभु छाड़ि भजहिं जे आना । ते नर पसु बिनु पूँछ बिषाना ।।
निज जन जानि ताहि अपनावा । प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा ।।
पुनि सर्बग्य सर्ब उर बासी । सर्वरूप सब रहित उदासी ॥
बोले बचन नीति प्रतिपालक । कारन मनुज दनुज कुल घालक ॥
सुनु कपीस लंकापति बीरा । केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा ॥
संकुल मकर उरग झष जाती। अति अगाध दुस्तर सब भाँती ॥
कह लंकेस सुनहु रघुनायक । कोटि सिंधु सोषक तव सायक ॥
जद्यपि तदपि नीति असि गाई। बिनय करिअ सागर सन जाई ॥
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[दोहा ५०]
प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि कहिहि उपाय बिचारि । बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि ॥
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सखा कही तुम्ह नीकि उपाई। करिअ दैव जौं होड़ सहाई ॥
मंत्र न यह लछिमन मन भावा । राम बचन सुनि अति दुख पावा ॥
नाथ दैव कर कवन सोषिअ सिंधु करिअ मन कादर मन कहुँ एक दैव दैव आलसी सुनत बिहसि बोले भरोसा ।
रोसा ॥ अधारा । पुकारा ॥ रघुबीरा। ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा ॥
अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई । सिंधु समीप गए रघुराई ॥
प्रथम प्रनाम कीन्ह सिरु नाई। बैठे पुनि तट दर्भ डसाई ॥
जबहिं बिभीषन प्रभु पहिं आए। पाछें रावन दूत पठाए ॥
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
[दोहा ५१]
सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह। प्रभु गुन हृदयं सराहहिं सरनागत पर नेह ॥
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प्रगट बखानहिं राम सुभाऊ । अति सप्रेम गा बिसरि दुराऊ ॥
रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने। सकल बाँधि कपीस पहिं आने ।।
कह सुग्रीव सुनहु सब बानर । अंग भंग करि पठवहु निसिचर ॥
सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए। बाँधि कटक चहु पास फिराए ॥
बहु प्रकार मारन कपि लागे। दीन पुकारत तदपि न त्यागे ॥
जो हमार हर नासा काना। तेहि कोसलाधीस कै आना ।।
सुनि लछिमन सब निकट बोलाए । दया लागि हँसि तुरत छोड़ाए ॥
रावन कर दीजहु यह पाती। लछिमन बचन बाचु कुलघाती ।।
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[दोहा ५२]
कहेहु मुखागर मूढ़ सन मम संदेसु उदार । सीता देइ मिलहु न त आवा कालु तुम्हार ॥
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तुरत नाइ लछिमन पद माथा। चले दूत बरनत गुन गाथा ।।
कहत राम जसु लंकाँ आए। रावन चरन सीस तिन्ह नाए ॥
बिहसि दसानन पूँछी बाता । कहसि न सुक आपनि कुसलाता ॥
पुनि कहु खबरि बिभीषन केरी। जाहि मृत्यु आई अति नेरी ॥
करत राज लंका सठ त्यागी । होइहि जव कर कीट अभागी ।।
पुनि कहु भालु कीस कटकाई। कठिन काल प्रेरित चलि आई ॥
जिन्ह के जीवन कर रखवारा। भयउ मृदुल चित सिंधु बिचारा ।।
कहु तपसिन्ह कै बात बहोरी । जिन्ह के हृदयँ त्रास अति मोरी ॥
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
[दोहा ५३]
की भइ भेंट कि फिरि गए श्रवन सुजसु सुनि मोर। कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर ॥
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसें । मानहु कहा क्रोध तजि तैसें ॥
मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा । जातहिं राम तिलक तेहि सारा ॥
रावन दूत हमहि सुनि काना। कपिन्ह बाँधि दीन्हे दुख नाना ॥
श्रवन नासिका काटें लागे। राम सपथ दीन्हें हम त्यागे ।।
पूँछिहु राम नाथ कटकाई। बदन कोटि सत बरनि न जाई ॥
नाना बरन भालु कपि धारी। बिकटानन बिसाल भयकारी ॥
जेहिं पुर दहेउ हतेउ सुत तोरा । सकल कपिन्ह महँ तेहि बलु थोरा ॥
अमित नाम भट कठिन कराला। अमित नाग बल बिपुल बिसाला ।।
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
[दोहा ५४]
द्विबिद मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि । दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि ॥
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
ए कपि सब सुग्रीव समाना । इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना ॥
राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं। तृन समान त्रैलोकहि गनहीं ॥
अस मैं सुना श्रवन दसकंधर। पदुम अठारह जूथप बंदर ॥
नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं। जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं ॥
परम क्रोध मीजहिं सब हाथा। आयसु पै न देहिं रघुनाथा ।।
सोषहिं सिंधु सहित झष ब्याला । पूरहिं न त भरि कुधर बिसाला ॥
मर्दि गर्द मिलवहिं दससीसा । ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा ॥
गर्जहिं तर्जहिं सहज असंका । मानहुँ ग्रसन चहत हहिं लंका ॥
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
[दोहा ५५]
सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम । रावन काल कोटि कहुँ जीति सकहिं संग्राम ॥
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
राम तेज बल बुधि बिपुलाई । सेष सहस सत सकहिं न गाई ॥
सक सर एक सोषि सत तव भ्रातहि पूँछेउ नय तासु बचन सुनि सागर मागत पंथ कृपा मन सागर । नागर ।।
पाहीं । माहीं ॥ सुनत बचन बिहसा दससीसा । जौं असि मति सहाय कृत कीसा ॥
सहज भीरु कर बचन दृढ़ाई । सागर सन ठानी मचलाई ॥
मूढ़ मृषा का करसि बड़ाई। रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई ॥
सचिव सभीत बिभीषन जाकें । बिजय बिभूति कहाँ जग ताकें ॥
सुनि खल बचन दूत रिस बाढ़ी। समय बिचारि पत्रिका काढ़ी ॥
रामानुज दीन्ही यह नाथ बचाइ जुड़ावहु पाती। छाती ।।
बिहसि बाम कर लीन्ही रावन । सचिव बोलि सठ लाग बचावन ।।
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
[दोहा ५६ (क), (ख)]
बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस । राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस ॥
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग।
होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग ॥
सुनत सभय मन मुख मुसुकाई । कहत दसानन सबहि सुनाई ।।
भूमि परा कर गहत अकासा । लघु तापस कर बाग बिलासा ।।
कह सुक नाथ सत्य सब बानी। समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी ॥
सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा । नाथ राम सन तजहु बिरोधा ॥
अति कोमल रघुबीर सुभाऊ । जद्यपि अखिल लोक कर राऊ ॥
मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु उर अपराध न एकउ जनकसुता रघुनाथहि एतना कहा मोर प्रभु करिही। धरिही ॥
दीजे । कीजे ॥ जब तेहिं कहा देन बैदेही। चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही ॥
नाइ चरन सिरु चला सो तहाँ। कृपासिंधु रघुनायक जहाँ ॥
करि प्रनामु निज कथा सुनाई। राम कृपाँ आपनि गति पाई ॥
रिषि अगस्ति कीं साप भवानी। राछस भयउ रहा मुनि ग्यानी ।।
बंदि राम पद बारहिं बारा । मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा ॥
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
[दोहा ५७]
बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति । बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति ॥
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लछिमन बान सरासन आनू । सोषौं बारिधि बिसिख कृसानू ॥
सठ सन बिनय कुटिल सन सहज कृपन सन सुंदर प्रीती । नीती ॥
ममता रत सन ग्यान कहानी। अति लोभी सन बिरति बखानी ।।
क्रोधिहि सम कामिहि हरिकथा। ऊसर बीज बएँ फल जथा ।।
अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा । यह मत लछिमन के मन भावा ॥
संधानेउ प्रभु बिसिख कराला । उठी उदधि उर अंतर ज्वाला ॥
मकर उरग झष गन अकुलाने । जरत जंतु जलनिधि जब जाने ।।
कनक थार भरि मनि गन नाना। बिप्र रूप आयउ तजि माना ॥
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[दोहा ५८]
काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच। बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच ॥
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सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे। छमहु नाथ सब अवगुन मेरे ॥
गगन समीर अनल जल धरनी। इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी ।।
तव प्रेरित मायाँ उपजाए। सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए ।
प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई। सो तेहि भाँति रहें सुख लहई ॥
प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्ही । मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही ॥
ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी ॥
प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई। उतरिहि कटकु न मोरि बड़ाई ।
प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई। करौं सो बेगि जो तुम्हहि सोहाई ॥
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[दोहा ५९]
सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ। जेहि बिधि उतरै कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ ॥
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नाथ नील नल कपि द्वौ भाई। लरिकाईं रिषि आसिष पाई ॥
तिन्ह कें परस किएँ गिरि भारे । तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे ॥
मैं पुनि उर धरि प्रभु प्रभुताई। करिहउँ बल अनुमान सहाई ॥
एहि बिधि नाथ पयोधि बँधाइअ । जेहिं यह सुजसु लोक तिहुँ गाइअ । एहिं सर मम उत्तर तट बासी । हतहु
नाथ खल नर अघ रासी ।। सुनि कृपाल सागर मन पीरा। तुरतहिं हरी राम रनधीरा ॥
देखि राम बल पौरुष भारी। हरषि पयोनिधि भयउ सुखारी ॥
सकल चरित कहि प्रभुहि सुनावा । चरन बंदि पाथोधि सिधावा ।।
छं० - निज भवन गवनेउ सिंधु श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ ।
यह चरित कलि मलहर जथामति दास तुलसी गायऊ ॥
सुख भवन संसय समन दवन बिषाद रघुपति गुन गना।
तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि संतत सठ मना ॥
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[दोहा ६०]
सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान। सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान ॥
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इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने पञ्चमः सोपानः समाप्तः ।
कलियुगके समस्त पापोंका नाश करनेवाले श्रीरामचरितमानसका यह पाँचवाँ सोपान समाप्त हुआ।
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(सुन्दरकाण्ड समाप्त )
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Jay Bajrangbali
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