संस्कृत छन्द यूजीसी नेट

 भूमिका 

वेद निश्रेयस का मूल है और धन्दशास्त्र उसके अंगों में चरणस्थानीय है । छन्दशास्त्र के बिना वेद पंगु है । जिस प्रकार पैरों से विरहित मानव पाद - प्रक्षेप नहीं कर सकता अर्थात् चल नहीं सकता , उसी प्रकार छन्दों के ज्ञान के बिना वेद भी नहीं चल सकता है । उसके उच्चारण की गति तथा लय भी यथार्थ रूप से सम्भव नहीं है । इसी लिये कहा गया है - 

छन्दः - चदि आह्लादे - चन्दयति आह्लादयति ।

छन्दः पादौ तु वेदस्य हस्तौ कल्पोऽथ पठ्यते ।

ज्योतिषामयनं चक्षुर्निरुक्तं श्रोत्रमुच्यते ।।

शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य मुखं व्याकरणं स्मृतम् ।

तस्मात् साङ्गमधीत्यैव ब्रह्मलोके महीयते ।। पाणिनीय शिक्षा ( ४१-४२ ) 

लौकिक साहित्य में भी छन्दों का प्रचुर प्रयोग हुआ है । उसके समास्वादन के लिये भी छन्दों का ज्ञान नितान्त आवश्यक है । अतः छन्दःशास्त्र  का परिज्ञान साहित्यानुशीलनशील जनों के लिये अनिवार्य है । 

छन्द का ही पर्याय वृत्त है । यह प्रश्न वृत्तरुपी रत्नों का आकार , खान , या खजाना , है । इसलिये इसका नाम वृत्तरत्नाकरम् , ( वृत्तानि श्रीप्रभृतीनि छन्दांसि एवं रत्नानि , तेषाम् आकरः समूहः यत्र तत् वृत्तरत्नाकरं नाम छन्दःप्रतिपादनपरं ुपुस्तकम् ) है । अर्थात् वृत्त श्रीप्रभृति छन्दरुपी रत्नों का समूह । वृत्तरत्नाकर पुस्तक में रत्नों के समान उत्तमोत्तम वृत्तों का लक्ष्य - लक्षणपूर्वक निरुपण किया गया है , अतः इसका नाम वृत्तरत्नाकरम् रखा गया है । इस ग्रन्थरत्न के कर्ता केदारभट्ट हैं । ग्रन्थकार ने इसकों छः अध्यायों में समुपनिबद्ध किया है । गन्थ का सम्पूर्ण पाठ एक सौ छत्तीस श्लोकों में पूर्ण हो गया हैः अतः जैसा कि उन्होनें स्वयं कहा है - 

'षडध्यायनिबद्धस्य छन्दसोऽस्य परिस्फुटम् ।

प्रमाणमपि विज्ञेयं षट् त्रिंशदधिकं शतम् ।।

(वृत्त० १/५) छन्द:शास्त्र के आदि आचार्य के रूप में आजकल पिङ्गल मुनि ही सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं । यद्यपि पिङ्गल सूत्रों में अन्य कई पुरातन आचार्यों के नाम का समुल्लेख मिलता है। यथा-'स्कन्धोग्रीवी क्रोष्टुके: ' - पि० ३।३९, 'उरोबृहती यास्कस्य'- पि. ३ | ३०, 'सतोबृहती ताण्डिन:' - ३ । ३६, 'सर्वत्र सैतवस्य' - ४ ११८, 'उद्धर्षिणी सैतवस्य’–३ ।१०, ‘सिंहोन्नतः काश्यपस्य' - ७ ।९, इत्यादि । तथापि 'यशः पुण्यैरवाप्यते' इस सूक्ति के अनुसार पिङ्गलमुनि ही इस शास्त्र के जन्मदाता माने जाते हैं। पिङ्गलमुनि का छन्दःशास्त्र पर इतना अधिकार हो गया है कि पिङ्गल और छन्दःशास्त्र परस्पर पर्यायवाची शब्द बन गये हैं । 'पिङ्गल पढ़ते हैं' का तात्पर्य छन्द पढ़ते हैं' है । पिङ्गल का अर्थ साँप भी होता है। अतएव अनेक ग्रन्थकारों ने 'नागराज' आदि नामों से भी इनका बहुधा समुल्लेख किया है। प्रस्तुत ग्रन्थ में भी इसका उल्लेख मिलता है । यथा-

'यस्यास्तां पिङ्गलनागो विपुलामिति समाख्याति । वृत्त० २।४ ।

'चपलेति नामः तस्याः प्रकीर्तितं नागराजेन । वृत्त २।५। 

छन्दःशास्त्र के परिचायक नाम हैं-

छन्दोविचिति, छन्दोऽनुशासन, छन्दोविवृत्ति तथा छन्दोज्ञान । रामानुजाचार्य के गुरु मुद्रक - आचार्य यादवप्रकाश ने पिंगल सूत्र की समाप्ति पर छन्दों की परम्परा के परिचायक नपद्य को समुद्धृत किया है-


छन्द वेद पुरुष का पैर है ( छन्दः पादौ तु वेदस्य )

छन्दःशास्त्र के प्रणेता पिङ्गलाचार्य हैं ।

छन्द दो प्रकार के होते हैं १. वार्णिकछन्द और २. मात्रिकछन्द ।

जिन छन्दों की गणना वर्णों के आधार पर होती है वे वार्णिक छन्द कहे जाते हैं। जैसे- अनुष्टुभ्, इन्द्रवज्रा, इत्यादि ।

जिन छन्दों की गणना मात्रा (हस्व, दीर्घ) के आधार पर होती है वे मात्रिक छन्द कहे जाते हैं । जैसे - आर्या इत्यादि।

।। मात्रिक छन्द आर्या ।।

यस्याः पादे प्रथमे द्वादशमात्रास्तथा तृतीयेऽपि। द्वितीये चतुर्थके पञ्चदश साऽर्या॥ अष्टादश

प्रथमपाद -१२ मात्रा, द्वितीयपाद - १८ मात्रा, तृतीयपाद - १२ मात्रा, चतुर्थपाद - १५ मात्रा वाला छन्द आर्या कहा जाता है ।

।। उदाहरण ।।

S  I  I  S  S  I I S,I  S  I S S  I  S   I  S  S  S

आपरितोषाद्विदुषां   न साधु मन्ये प्रयोगविज्ञानम् ।

I  I  I  I  I  S  I   S   S,   S  S  S  S I S S S

बलवदपि शिक्षितानाम्, आत्मन्यप्रत्ययं चेतः ॥

।। वार्णिक छन्द ।।

वार्णिक छन्द ३ प्रकार के होते हैं।

१ समवृत्त - जिनके सभी चरणों के वर्ण समान हों वे समवृत्त कहे जाते हैं। जैसे अनुष्टुभ्, इन्द्रवज्रा इत्यादि ।

२ अर्धसमवृत्त - जिनके प्रथम पाद के समान तृतीय पाद तथा द्वितीय पाद के समान चतुर्थ पाद हो ऐसे छन्द अर्धसमवृत्त कहे जाते हैं । जैसे वियोगिनी इत्यादि ।

३ विषमवृत्त - जिनके सभी चरणों के वर्ण असमान ( अलग-अलग) हों ऐसे छन्द विषमवृत्त कहे जाते हैं । जैसे - चतुरूर्ध्व इत्यादि ।

।। लघु गुरु विचार ।।

सानुस्वारो विसर्गान्तो दीर्घो युक्तपरश्च यः । वा पादान्ते गुरुर्ज्ञेयो ज्ञेयोऽन्यो मात्रिको लघुः ॥

अनुस्वार से युक्त (अं कं खम् इत्यादि), विसर्गान्त (अः कः खः इत्यादि), दीर्घ ( आ ई ऊ का की इत्यादि), जिसके पर में संयोग हो (कृष्ण, विष्णु इत्यादि) ऐसे वर्ण गुरु हैं। पदान्त में स्थित वर्ण (चाहे वह हस्व या कैसा भी हो) विकल्प से गुरु माना जाता है। इससे अन्य जो भी है ऐसा १ मात्रा वाला लघु माना जाता है ।

गुरु = S (२ मात्रा), लघु =(१ मात्रा)

।। गण ।।

सूत्र – य मा ता रा ज भा न स ल गा ।

- यगणः यमाता ISS   - मगणः मातारा S S S

- तगण: ताराज SSI   - रगण: राजभा S I S

- जगण: जभान ISI   - भगण: भानस S I I

- नगण: नसल I I I      - सगणः सलगा I I S

आदिमध्यावसानेषु भजसा यान्ति गौरवम्। यरता लाघवं यान्ति मनौ तु गुरुलाघवम् ॥

।। अनुष्टुप् (८) ।।

लक्षण - श्लोके षष्ठं गुरु ज्ञेयं, सर्वत्र लघु पञ्चमम् । द्विचतुष्पादयोर्हस्वं सप्तमं दीर्घमन्ययोः ॥

अनुष्टुप् छन्द में प्रत्येक चरण में ८ वर्ण होते हैं। जिनमें केवल ५,,७ इन तीनों वर्णों पर ही नियम लगता है । ५वां वर्ण चारों चरणों में लघु तथा ६ठा वर्ण गुरु होता है। सातवां वर्ण द्वितीय तथा चतुर्थ चरणों में हस्व (लघु) तथा अन्य (प्रथम और तृतीय) चरणों में दीर्घ (गुरु) होता है।

॥ उदाहरण ॥

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः । यत्क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम् ॥

।। इन्द्रवज्रा (११) ।।

लक्षण - स्यादिन्द्रवज्रा यदि तौ जगौ गः ।

त      त    ज    ग     ग

SSI  SSI  ISI    S    S

॥ उदाहरण ॥

अर्थो हि कन्या परकीय एव तामद्य सम्प्रेष्य परिग्रहीतुः ।

जातो ममायं विशद: प्रकामं प्रत्यर्पितन्यास इवान्तरात्मा ।।

।। उपेन्द्रवज्रा (११) ।।

लक्षण - उपेन्द्रवज्रा जतजास्ततो गौ ।

  ज     त    ज    ग    ग 

ISI   SSI  ISI    S    S

॥ उदाहरण ॥

त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव ।

त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्वं मम देव देव ॥

।। उपजाति (११) ।।

लक्षण - अनन्तरोदीरितलक्ष्मभाजौ पादौ यदीयावुपजातयस्ताः।

जिस छन्द का कोई एक, दो या तीन चरण इन्द्रवज्रा का और कोई एक, दो या तीन चरण उपेन्द्रवज्रा का हो तो ऐसे मिश्र छन्द को उपजाति कहते हैं ।

॥ उदाहरण ॥

अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः ।

पूर्वापरौ तोयनिधी वगाह्य स्थितः पृथिव्या इव मानदण्डः ॥

नोट - प्रथम वर्ण गुरु हो तो इन्द्रवज्रा, लघु हो तो उपेन्द्रवज्रा और यदि मिश्र हो तो उपजाति छन्द होता है।

।। शालिनी (११) ।।

लक्षण - शालिन्युक्ता म्तौ तगौ गोऽब्धिलोकैः ।

 म      त    त    ग    ग

SSS  SSI  SSI   S     S

॥ उदाहरण ॥

कः कं शक्तो रक्षितुं मृत्युकाले रज्जुच्छेदे के घटं धारयन्ति ।

एवं लोकस्तुल्यधर्मा वनानां काले काले छिद्यते रुह्यते च ॥

यति - शालिनी छन्द में अब्धि ( ) और लोक () वर्णों पर यति होती है।

।। वंशस्थ (१२) ।।

लक्षण - जतौ तु वंशस्थमुदीरितं जरौ ।

ज       त       ज       र

ISI    SSI    ISI    SIS

॥ उदाहरण ॥

अधीतिबोधाचरणप्रचारणै- र्दशाश्चतस्रः प्रणयन्नुपाधिभिः ।

चतुर्दशत्वं कृतवान् कुतरस्वयं न वेद्मि विद्यासु चतुर्दशस्वयम् ।।

।। द्रुतविलम्बित (१२) ।।

लक्षण - द्रुतविलम्बितमाह नभौ भरौ ।

न      भ      भ      र

III    SII     SII    SIS

॥ उदाहरण ॥

विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः ।

यशसि चाभिरुचिर्व्यसनं श्रुतौ प्रकृतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम् ॥

।। वसन्ततिलका (१४) ।।

लक्षण - उक्ता वसन्ततिलका तभजा जगौ गः ।

त     भ    ज    ज    ग    ग

SSI  SII  ISI   ISI    S    S

॥ उदाहरण ॥

पापान्निवारयति योजयते हिताय गुह्यं निगूहति गुणान् प्रकटीकरोति ।

आपड़तं च न जहाति ददाति काले सन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः ।।

।। मालिनी (१५) ।।

लक्षण - ननमयययुतेयं मालिनी भोगिलोकैः ।

न     न     म     य     य

III    III   SSS  ISS  ISS

॥ उदाहरण ॥

वयमिह परितुष्टाः वल्कलैस्त्वं दुकूलैः, सम इह परितोषो निर्विशेषो विशेषः ।

स तु भवति दरिद्रो यस्य तृष्णा विशाला ,मनसि च परितुष्टे कोऽर्थवान् को दरिद्रः॥

यति - मालिनी में भोगी () और लोक () वर्णों पर यति होती है ।

।। शिखरिणी (१७) ।।

लक्षण - रसै रुद्रैश्छिन्ना यमनसभला गः शिखरिणी ।

य     म     न     स    भ    ल    ग

ISS SSS  III   IIS    SII    I     S

यदा किञ्चिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवं तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिप्तं मम मनः ।

यदा किञ्चित् किञ्चित् बुधजनसकाशादवगतं तदा मूखोऽस्मीति ज्वर इव मदो मे व्यपगतः॥

यति - शिखरिणी में रस () और रुद्र (११) वर्णों पर यति होती है।

।। मन्दाक्रान्ता (१७) ।।

लक्षण - मन्दाक्रान्ताऽम्बुधिरसनगैर्मो भनौ तौ युग्मम् ।

म      भ     न     त     त     ग    ग

SSS  SII    III    SSI   SSI   S     S

॥ उदाहरण ॥

कश्चित् कान्ताविरहगुरुणा स्वाधिकारात् प्रमत्तः शापेनास्तंगमितमहिमा वर्षभोग्येण भर्तुः ।

यक्षश्चक्रे जनकतनयास्नानपुण्योदकेषु स्निग्धच्छाया तरुषु वसतिं रामगिर्याश्रमेषु ॥

यति - अम्बुधि (), रस (), नग () पर यतियां होती हैं।

।। हरिणी (१७) ।।

लक्षण - रसयुगहयैन्स मौ स्लो गो यदा हरिणी तदा ।

न    स    म      र    स   ल    ग

III   IIS  SSS  SIS  IIS   I     S

॥ उदाहरण ॥

कृमिकुलचितं लालाक्लिन्नं विगन्धि जुगुप्सितं

निरुपमरसं प्रीत्या खादन्नरास्थि निरामिषम् ।

सुरपतिमपि श्वा पार्श्वस्थं विलोक्य न शङ्कते

न हि गणयति क्षुद्रो जन्तुः परिग्रहफल्गुताम् ॥

यति - रस(), युग() और हय () वर्णों पर यतियां होती हैं।

।। शार्दूलविक्रीडित (१९) ।।

लक्षण -सूर्याश्वैर्यदिमः सजौ सततगाः शार्दूलविक्रीडितम् ।

म     स    ज    स    त     त    ग

SSS IIS  ISI   IIS   SSI  SSI   S

॥ उदाहरण ॥

शक्यो वारयितुं जलेन हुतभुक् छत्रेण सूर्यातपो

नागेन्द्रो निशिताङ्कुशेन समदो दण्डेन गोगर्दभौ ।

व्याधिर्भेषजसङ्ग्रहैश्च विविधैर्मन्त्रप्रयोगैर्विषं

सर्वस्यौषधमस्ति शास्त्रविहितं मूर्खस्य नास्त्यौषधम् ॥

यति- सूर्य (१२) और अश्व() वर्णों पर शार्दूलविक्रीडित में यति होती है।

।। स्रग्धरा (२१) ।।

लक्षण- मभ्नैर्यानां त्रयेण त्रिमुनियतियुता स्रग्धरा कीर्तितेयम् ।

म       र     भ    न     य      य      य

SSS  SIS   SII  III   ISS    ISS   ISS

॥ उदाहरण ॥

जन्मध्वंसं ह्यतीत: प्रकृतिमथ निजामास्थितः सम्भवामि,

ग्लानो धमोऽप्यधर्मो भवति यदि बली स्वीयमायाबलेन ।

साधुत्राणाय तद्वत्खलजनहत्ये धर्मसंस्थापना, ।

एवं में दिव्यकर्म जननमपि च यो वेत्ति मुक्त: स पार्थ ।।

यति - इस छन्द में त्रिमुनि (,,) वर्णों पर तीन यतियां तथा कुल २१ वर्ण होते हैं ।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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