Rigveda Samvadya Suktas ऋग्वेद संवाद सूक्त सम्पूर्ण

Rigveda Samvadya Suktas ऋग्वेद संवाद सूक्त सम्पूर्ण

।। संवाद सूक्त ।।

सम्पूर्ण ऋषिवाक्यं तु सूक्तमित्यभिधीयते । ऋषियों के द्वारा कहे गये सम्पूर्ण सूक्त कहलाते है ।

।। पुरूरवा उर्वशी संवाद ।।

मन्त्र – 18 ऋग्वेद 10/95 ऋषि पुरूरवा/ उर्वशी , स्वर – धैवत देवता पुरूरवा/उर्वशी ऐऴ , छन्द – त्रिष्टुप्

Rigveda Samvadya Suktas ऋग्वेद संवाद सूक्त सम्पूर्ण

पुरूरवा उर्वशी ऋग्वेद के 10 मण्डल का 95 सूक्त है , जिसमें कुल 18 मन्त्र है । इसमें पुरूरवा और उर्वशी की प्रेम कथा वर्णित है । पुरूरवा एक मनुष्य है और उर्वशी एक अप्सरा । दोनों चार वर्ष तक एक साथ रहते है । उनके आयुष नामक एक पुत्र भी होता है , किन्तु उसके पश्चात् शाप के प्रभाव से उर्वशी के मिलन की यह अवधि समाप्त हो जाती है और वह एकाएक लुप्त हो जाती है शोक विह्वल और उसे खोजने में प्रयत्नशील पुरूरवा , सरोवर के तट पर सखियों के साथ उर्वशी को देखता है । वह उसे साथ चलने के लिए कहता है किन्तु पुरूरवा से शाप की बात बतलाकर उर्वशी अपनी असमर्थता प्रकट करती है और लुप्त हो जाती है । यह संवाद शतपथ ब्राह्मण , विष्णुपुराण और महाभारत में भी प्राप्त होता है । इसी संवाद को कालिदास ने अपने नाटक विक्रमोर्वशीय का कथानक बनाया ।

पुरुरवा- -उर्वशी संवाद सूक्त के मत्र निम्नलिखित हैं। उल्लेखनीय है कि श्लोक 147 से 152 तक, जो कि ऋग्वेद में उल्लिखित नहीं हैं लेकिन कथा के क्रमभङ्ग को बनाए रखने के लिए, बृहद्देवता 7/147-152 (पुरुरवा-उर्वशी वृत्त) के आधार पर दिया गया है। ऋग्वेदस्थ मूल संवाद-सूक्त 1-18 तक हैं ।

हये जाये मनसा तिष्ठ घोरे वचांसि मिश्राकृण्वावहै नु। न नौ मत्रा अनुदितास एते मयस्करन् परतरे चनाहन् ।।1।।

पुरुरवा ने उर्वशी से कहा-हे निर्दयी नारी! तुम अपने मन को अनुरागी बनाओ। हम शीघ्र ही परस्पर वार्तालाप करें। यदि हम इस समय मौन रहेंगे तो आने वाले दिनों में सुखी नहीं होंगें ।

किमेता वाचा कृणवातवाहं प्राक्रमिषमुषसामग्रियेव । पुरुरवः पुनरस्तं परेहि दुरापना वातइवाहमस्मि ।।2।।

उर्वशी ने उत्तर दिया हे पुरुरवा! वार्तालाप से कोई लाभ नहीं। मैं वायु के समान ही दुष्प्राप्य नारी हूँ। उषा के समान तुम्हारे पास आई हूँ। तुम अपने गृह को लौट जाओ ।

इषुर्न श्रिय इषुधेरसना गोषाः शतसा न रंहिः। अवीरे ऋतौ वि दविद्युतन्नोरा न मायुं चितयन्त धुनयः ।।3।।

पुरुरवा ने कहा- हे उर्वशी! मैं तुम्हारे वियोग में इतना सन्तप्त हैं कि अपने तूणीर से बाण निकालने में भी असमर्थ हो रहा हूँ। इस कारण मैं जीतकर असीमित गायों को नहीं ला सकता। मैं राजकार्यों से युद्ध विमुख हो गया हूँ। अतः मेरे सैनिक भी कार्यहीन हो गए हैं।

सा वसु दधती श्वसुराय वय उषो यदि वष्ट्यन्तिगृहात् । अस्तं ननक्षे यस्मिञ्चाकन्दिवा नक्तं श्रथिता वैतसेन ॥4॥

हे उषा ! उर्वशी यदि श्वसुर को भोजन कराना चाहती तो निकटस्थ घर से पति के पास जाती ।

त्रिः स्म माह्नः श्नथयो वैतसनोत स्म मेऽव्यत्यै पृणासि। पुरुरवोऽनु ते केतमायं राजा मे वीर तन्वस्तदासीः ॥15॥

उर्वशी ने कहा-हे पुरुरवा ! मुझे किसी सपत्नी से प्रतिस्पर्धा नहीं थी क्योंकि मैं तुमसे हर प्रकार से सन्तुष्ट थी। जब से मैं तुम्हारे घर से आई, तभी से तुमने सुखों का विधान किया।

या सुजूर्णिः श्रेणिः सुम्नआपिहृदेचक्षुर्न ग्रन्थिनी चरण्युः । ता अञ्जयोऽरुणयो न सनुः श्रिये गावो न धेनवोऽनवन्त ॥6॥

सुजूर्णि, श्रेणि, सुम्न आदि अप्सराएँ मलिन वेश में यहाँ आती थीं। गोष्ठ में जाती हुई गायें जैसे शब्द करती हैं, वैसे ही शब्द करने वाली वे महिलाएँ मेरे घर में नहीं आती थीं।

समस्मिञ्जायमान आसत ग्ना उतेमवर्धन्नद्यः स्वगूर्ताः । महे यत्त्वा पुरुरवो रणायावर्धयन् दस्युहत्याय देवाः ॥7॥

जब पुरुरवा उत्पन्न हुआ, तब सभी देवाङ्गनाएँ उसे देखने आई। नदियों ने भी उसकी प्रशंसा की। तब हे पुरुरवा! देवताओं ने घोर संग्राम में जाने तथा दस्यु के विनाश हेतु तुम्हारी स्तुति की।

सचा यदासु जहतीष्वत्कममानुषीषु मानुषो निषेवे । अप स्म मत्तरसन्ती न भुज्युस्ता अत्रसत्रथस्पृशो नाश्वाः ।। 8 ।।

जब पुरुरवा मनुष्य होकर अप्सराओं की ओर गए, तब अप्सराएँ अन्तर्धान हो गईं। वे उसी प्रकार वहाँ से चली गईं, जैसे-भयभीत हरिणी भागती है या रथ में योजित अश्व द्रुतगति से चले जाते हैं।

यदासु मर्तो अमृतासु निस्पृक्सं क्षोणीभिः क्रतुभिर्न पुंक्ते । ता आतयो न तन्वः शुम्भत स्वा अश्वासो न क्रीडयो दन्दशानाः ।।9।।

मनुष्य योनि को प्राप्त हुए पुरुरवा जब दिव्यलोकवासिनी अप्सराओं की ओर बढ़े तो वे अप्सराएँ वैसे ही भाग गईं, जैसे क्रीडाकारी अश्व भाग जाता है।

विद्युन्न या पतन्ती दविद्योद्भरन्ती मे अप्या काम्यानि । जनिष्टो अपो नर्यः सुजातः प्रोर्वशी तिरत दीर्घमायुः ॥10॥

जो उर्वशी अन्तरिक्ष की विद्युत् के समान आभामयी है, उसने मेरी सभी अभिलाषाओं को पूर्ण किया था। वह उर्वशी अपने द्वारा उत्पन्न मेरे पुत्र को दीर्घजीवी करे।

जशिष इत्था गोपीध्याय हि दद्याथ तत्पुरुरवो म ओजः । आशासं त्वा विदुषी सस्मिन्नहन्न म आशृणोः किमभुग्वदासि ।।11।।

उर्वशी ने कहा-हे पुरुरवा ! तुमने पृथ्वी की रक्षा के लिए पुत्र उत्पन्न किया है। मैं तुमसे अनेक बार कह चुकी हूँ कि, मैं तुम्हारे पास नहीं रहूँगी। तुम इस समय प्रजा पालन के कार्य से विमुख होकर व्यर्थ- वार्तालाप क्यों करते हो ?

कदा सूनुः पितरं जात इच्छाच्चक्रन्नाश्रु वर्तयद्विजानन् । को दम्पती समनसा वि यूयोदध यदग्निः श्वशुरेषु दीदयत।।12।।

पुरुरवा ने कहा- हे उर्वशी! तुम्हारा पुत्र मेरे पास किस प्रकार रहेगा? वह मेरे पास आकर रोएगा। पारस्परिक प्रेम के बन्धन को कौन सद्गृहस्थ तोड़ना स्वीकार करेगा? तुम्हारे श्वसुर के घर में श्रेष्ठ आलोक जगमगा उठा है।

प्रति ब्रवाणि वर्तयते अश्रु चक्रन्न क्रन्ददाध्वे शिवायै । प्र तत्ते हिनवा यत्ते अस्मे परेह्यास्तं नहि मूर मापः ।। 13 ।।

उर्वशी ने कहा-हे पुरुरवा ! मेरा उत्तर सुनो। मेरा पुत्र तुम्हारे पास आकर नहीं रोएगा। मैं सदैव उसकी मंगल कामना करूंगी। तुम अब मुझे नहीं पा सकोगे। अतः अपने घर को लौट जाओ। मैं तुम्हारे पुत्र को तुम्हारे पास भेज दूंगी।

सुदेवो अद्य प्रपतेदनावृत्परावतं परमां गन्तवा उ । अधा शयीत निरृतेरुपस्थेऽधैनं वृका रभसासो अद्युः ।। 14।।

पुरुरवा ने कहा-हे उर्वशी । मैं तुम्हारा पति आज पृथ्वी पर गिर पड़ा हूँ। वह (मैं) फिर कभी न उठ सके। वह दुर्गति के बन्धन मे फँसकर मृत्यु को प्राप्त हो, और वृक (भेड़िया) आदि उसके शरीर का भक्षण करे।

पुरुरवो मा मृथा मा प्र पप्तो मा त्वा वृकासो अशिवास उ क्षन्। नवै स्त्रैणानि सख्यानि सन्ति सालावृकाणां हृदयान्येता । | 15 ||

उर्वशी ने कहा-हे पुरुरवा ! तुम गिरो मत। तुम अपनी मृत्यु की इच्छा मत करो। तुम्हारे शरीर को वृक आदि भक्षण न करें। स्त्रियों का और वृकों का हृदय एकसमान होता है, उनकी मित्रता कभी अटूट (स्थायी) नहीं रहती।

यद्विरूपाचरं मर्त्येष्ववसं रात्रीः शरदश्चतस्रः । घृतस्य स्तोकं सकृदहन् आश्न तादेवेदं तातृपाणा चरामि।।16।।

उर्वशी ने कहा-मैंने विविधरूप धारण करके मनुष्यों में विचरण किया। चार वर्षों तक मैं मनुष्यों में ही वास करती रही। नित्यप्रति एक बार घृतपान करती हुई घूमती रही।

अन्तरिक्षप्रां रजसो विमानीमुप शिक्षाम्युर्वशीं वसिष्ठः । उप त्वा रातिः सुकृतस्य तिष्ठानि वर्तस्व हृदयं तप्यते मे।।17।।

पुरुरवा ने कहा- उर्वशी जल को प्रकट करने वाली तथा अन्तरिक्ष को पूर्ण करने वाली है। वशिष्ठ ही उसे अपने वश में कर सके हैं। तुम्हारे पास उत्तमकर्मा पुरुरवा रहे (मैं रहूँ)। हे उर्वशी! मेरा हृदय जल रहा है, अतः लौट आओ।

इति त्वा देवा इम आहुरैळ यथेमेतद्भवसि मृत्युबन्धुः। प्रजा ते देवान् हविषा यजाति स्वर्ग उत्वमपि मादयासे।। 18॥

उर्वशी ने कहा- हे पुरुरवा ! सभी देवताओं का कथन है कि, तुम मृत्यु को जीतने वाले होओगे और हव्य द्वारा देवयज्ञ करोगे, फिर स्वर्ग में सानन्द रहोगे।

Rigveda Samvadya Suktas ऋग्वेद संवाद सूक्त सम्पूर्ण

॥ यम-यमी संवाद॥

मंत्र- 14, ऋग्वेद- 10/10, ऋषि- यमी वैवस्वती यमवैवस्वत, स्वर- धैवत, देवता- यम वैवस्वत, यमी वैवस्वती, छन्द-त्रिष्टुप्,

यम-यमी ऋग्वेद के दशम मण्डल का दसवाँ सूक्त है जिसमे कुल 14 मन्त्र हैं। यह एक विलक्षण संवाद सूक्त है। यम-यमी एक जुड़वाँ भाई- बहन हैं। यमी अपने भाई यम को अनेक प्रलोभन देकर उसके सामने उससे विवाह करने का प्रस्ताव रखती है लेकिन यम अपनी बहन के इस प्रस्ताव की निन्दा करता है क्योकि यह सगोत्र सम्बन्ध अनैसर्गिक और महर्षियों के विधानों के विरुद्ध है। वह इसे अनुचित बताकर अस्वीकार कर देता है। यमी अपने भाई के कथन का यह कहकर तिरस्कार कर देती है कि देवता चाहते हैं कि मनुष्य जाति की अभिवृद्धि के लिए यम अपनी बहन के साथ सम्बन्ध स्थापित करे। लेकिन यम पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। सम्भवतः इसी कारण से न केवल हिन्दुओं में अपितु संसार के किसी भी कोने में सगोत्र भाई-बहन का विवाह अनुचित समझा जाता है। इस सूक्त की प्रतिपादन शैली रमणीय है। यम-यमी संवाद सूक्त के मत्र निम्नलिखित हैं-

ओ चित् सखायं सख्या ववृत्यां तिरः पुरू विदर्णवं जगन्वान् । पितुर्नपातमा दधीत वेधा अधि क्षमि प्रतरं दीध्यानः ॥1॥

यमी अपने सहोदर भाई यम से कहती है-विस्तृत समुद्र के मध्य द्वीप में आकर, इस निर्जन प्रदेश में मैं तुम्हारा सहवास (मिलन) चाहती हूँ, क्योंकि माता की गर्भावस्था से ही तुम मेरे साथी हो। विधाता ने मन ही मन समझा है कि तुम्हारे द्वारा मेरे गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न होगा, वह हमारे पिता का एक श्रेष्ठ नाती होगा।

न ते सखा सख्यं वष्ट्येतत् सलक्ष्मा यद्विपुरुषा भवाति। महस्पुत्रासो असुरस्य वीरा दिवो धर्तार उर्विया परिख्यन् ।।2।।

यम ने कहा-यमी, तुम्हारा साथी यम, तुम्हारे साथ ऐसा सम्पर्क नहीं चाहता; क्योकि तुम सहोदरा भगिनी हो, अतः अगन्तव्या हो। यह निर्जनप्रदेश नहीं है, क्योंकि धुलोक को धारण करने वाले महान् बलशाली प्रजापति के पुत्रगण (देवताओं के चर) सब कुछ देखते हैं।

उशन्ति घा ते अमृतास एतदेकस्य चित् त्यजसं मर्त्यस्य । नि ते मनो मनसि धाय्यस्मे जन्युः पतिस्तन्वमा विविश्याः ।।3।।

यमी ने कहा-यद्यपि मनुष्य के लिए ऐसा संसर्ग निषिद्ध है, तो भी देवता लोग इच्छापूर्वक ऐसा संसर्ग करते हैं। अतः मेरी इच्छानुकूल तुम भी करो। पुत्र-जन्मदाता पति के समान मेरे शरीर में पैठो (मेरा सम्भोग करो ।

न यत्पुरा चकृमा कद्ध नूनमृता वदन्तो अनृतं रपेम। गन्धर्वो अप्स्वप्या च योषा सा नो नाभिः परमं जामि तन्नौ।। 4।।

यम ने उत्तर दिया-हमने ऐसा कर्म कभी नहीं किया। हम सत्यवक्ता हैं। कभी मिथ्या कथन नहीं किया है। अन्तरिक्ष में स्थित गन्धर्व या जल के धारक आदित्य तथा अन्तरिक्ष में रहने वाली योषा (सूर्यस्त्री- सरण्यू) हमारे माता-पिता हैं। अतः हम सहोदर बन्धु हैं। ऐसा सम्बन्ध उचित नहीं है।

गर्भे नु नौ जनिता दम्पती कर्देवस्त्वष्टा सविता विश्वरूपः । नकिरस्य प्र मिनन्ति व्रतानि वेद नावस्य पृथ्वी उत द्यौः ।।5।।

यमी ने कहा-रूपकर्ता, शुभाशुभ प्रेरक, सर्वात्मक, दिव्य और जनक प्रजापति ने तो हमें गर्भावस्था में ही दम्पति बना दिया है। प्रजापति का कर्म कोई लुप्त नहीं कर सकता। हमारे इस सम्बन्ध को द्यावा- पृथ्वी भी जानते हैं।

को अस्य वेद प्रथमस्याहः क ईं ददर्श क इह प्रवोचत्। बृहन्मित्रस्य वरुणस्य धाम कदु ब्रव आहो वीच्या नृन् ।।6।।

यमी ने पुनः कहा- प्रथम दिन (संगमन) की बात कौन जानता है? किसने उसे देखा है? किसने उसका प्रकाश किया है? मित्र और वरुण का यह जो महान् धाम (अहोरात्र) है, उसके बारे में हे मोक्ष, बन्धनकर्ता यम! तुम क्या जानते हो ?

यमस्य मा यम्यं काम आगन्त्समाने योनौ सहशेय्याय । जायेव पत्ये तन्वं रिरिच्यां वि चिद्वहेव रथ्येव चक्रा।। 7।।

यमी ने कहा-जैसे एक शैया पर पत्नी, पति के साथ अपनी देह का उद्घाटन करती है, वैसे ही तुम्हारे पास मैं अपने शरीर को प्रकाशित कर देती हूँ, तुम मेरी अभिलाषा करो, आओ हम दोनों एक स्थान पर शयन करें। रथ के दोनों चक्कों के समान एक कार्य में प्रवृत्त हों।

न तिष्ठन्ति न नि मिषन्त्येते देवानां स्पश इह ये चरन्ति । अन्येन मदाहनो याहि तूयं तेन वि वृह रथ्येव चक्रा।। 8 ।।

यम ने उत्तर दिया-देवों में जो गुप्तचर हैं, वे रात दिन विचरण करते हैं। उनकी आँखे कभी बन्द नहीं होती। दुःखदायिनी यमी । शीघ्र दूसरे के पास जाओ, और रथ के चक्कों के समान उसके साथ एक कार्य करो।

रात्रीभिरस्मा अहभिर्दशस्येत् सूर्यस्यचक्षुर्मुहुरुन्मिमीयात्। दिवा पृथिव्या मिथुना सबन्धू यमीर्यमस्य बिभृयादजामि।। 9 ।।

यम ने पुनः कहा-दिन-रात में यम के लिए जो कल्पित भाग हैं, उसे पवमान दे। सूर्य का तेज दिन के लिए उदित हो। परस्पर सम्बद्ध दिन द्युलोक और भूलोक यम के बन्धु है । यमी , यम भ्राता के अतिरिक्त किसी अन्य पुरूष को धारण करे । 

आ घा ता गच्छानुत्तरा युगानि यत्र जामयः कृणवन्नजामि। उप बर्बृहि वृषभाय बाहुमन्यमिच्छस्व सुभगे पतिं मत्।। 10।।

यम ने पुनः कहा- भविष्य में ऐसा युग आएगा, जिसमें भगिनियाँ अपने बन्धुत्व विहीन भ्राता को पति बनाएंगी। सुन्दरी ! मेरे अतिरिक्त किसी दूसरे को पति बनाओ। वह वीर्य सिंचन करेगा, उस समय उसे बाहुओं में आलिङ्गन करना।

किं भ्रातासद्यदनाथं भवाति किमु स्वसा यन्निर्ऋतिर्निगच्छात् काममूता वह्नेतद्रापामि तन्वा मे तन्वं सं पिपृग्धि ।।11।।

यमी ने कहा-वह कैसा भ्राता है, जिसके रहते भगिनी अनाथा हो जाए, और भगिनी ही क्या है, जिसके रहते भ्राता का दुःख दूर न हो ? मै काममूर्च्छिता होकर नाना प्रकार से बोल रही हूँ; यह विचार करके भली-भाँति मेरा सम्भोग करो।

न वा उ ते तन्वा तन्वं सं पपृच्यां पापमाहुर्यः स्वसारं निगच्छात् । अन्येन मत् प्रमुदः कल्पयस्व न ते भ्राता सुभगे वष्ट्येतत्।।12।।

यम ने उत्तर दिया-हे यमी! मैं तुम्हारे शरीर से अपना शरीर मिलाना नहीं चाहता। जो भ्राता, भगिनी का सम्भोग करता है, उसे लोग पापी कहते हैं। सुन्दरी! मुझे छोड़कर अन्य के साथ आमोद-प्रमोद करो। तुम्हारा भ्राता तुम्हारे साथ मैथुन करना नहीं चाहता।

बतो बतासि यम नैव ते मनो हृदयं चाविदाम। अन्या किल त्वां कक्ष्येव युक्तं परिष्वजाते लिबुजेव वृक्षम् ।।13।।

यमी ने कहा-हाय यम; तुम दुर्बल हो। तुम्हारे मन और हृदय को मैं कुछ नहीं समझ सकती; जैसे-रस्सी घोड़े को बाँधती है, तथा लता जैसे वृक्ष इन का आलिङ्गन करती है; वैसे ही अन्य स्त्री तुम्हे अनायास ही आलिङ्गन करती है; परन्तु तुम मुझे नहीं चाहते हो।

अन्यम् षु त्वं यम्यन्य उ त्वां परिष्वजाते लिबुजेव वृक्षम् । तस्य वा त्वं मन इच्छा स वा तवाऽधा कृणुष्व संविदं सुभद्राम्।।14।।

यम ने यमी से कहा-तुम भी अन्य पुरुष का ही भली-भाँति आलिङ्गन करो; जैसे-लता. वृक्ष का आलिङ्गन करती है, वैसे ही अन्य पुरुष तुम्हें आलिङ्गित करे। तुम उसी का मन हरण करो। अपने सहवास का प्रबन्ध उसी के साथ करो। इसी में मङ्गल होगा।

Rigveda Samvadya Suktas ऋग्वेद संवाद सूक्त सम्पूर्ण

॥सरमा-पणि संवाद ॥

मंत्र- 11, स्वर- धैवत, ऋग्वेद- 10/108, ऋषि- पणि सरमा, देवता- सरमा, पणि, छन्द- त्रिष्टुप्,
सरमा पणि, ऋग्वेद के दशम मण्डल का 108वाँ सूक्त है, जिसमें कुल 11 मत्र हैं। सरमा पणि संवाद में सरमा नामक एक शुनी और पणि नामक असुर का संवाद मिलता है। पणि लोगों ने आयों की गायों को चुराकर कहीं अन्धेरी गुफा में डाल दिया। इन्द्र ने अपनी शुनी (सरमा) को उन्हें खोजने के लिए और पणियों को समझाने के लिए दूती बनाकर भेजा। सरमा इन्द्र के अतुलित पराक्रम के विषय में बतलाती है किन्तु वे उसकी बात नहीं माने।

किमिच्छन्ती सरमा प्रेदमानड़, दूरे ह्यध्वा जगुरिः पराचैः । कास्मेहितिः का परितक्यासीत्कथं रसाया अतरः पयांसि ।।1।।

सरमा क्या इच्छा करती हुई इस स्थान पर पहुंची है; क्योंकि मार्ग बहुत दूर उभरा हुआ तथा गमनागमन से रहित है। हममें तुम्हारा कौन-सा अभिप्रेत अर्थ निहित है? तुम्हारी यात्रा कैसी थी ? रसा (नदी) के जल को तुमने कैसे पार किया?

इन्द्रस्य दूतीरिषिता चरामि, मह इच्छन्ती पणयो निधीन्वः । अतिष्कदो भियसा तन्न आवत्तथा रसाया अतरं पयांसि।।2।।

हे पणियों! इन्द्र के द्वारा भेजी गई, मैं उसकी दूती हूँ। तुम लोगों के प्रभूत धन की इच्छा करती हुई घूम रही हूँ। मेरे कूदने के भय से उस रसा के जल ने मेरी सहायता की। इस प्रकार रसा के जल को मैंने पार किया।

कीदृङिन्द्रः सरमे का दृशीका, यस्येदं दूतीरसरः पराकात्। आ च गच्छान्मित्रमेना दधामाथां गवां गोपतिर्नो भवाति।।3।।

हे सरमा! इन्द्र कैसा है? उसकी दृष्टि कैसी है? जिसकी दूती (तुम) दूर से यहाँ आई हो। अगर वह आए, तो हम उसे मित्र बनाएँगे। तब वह हमारी गायों का संरक्षक (गोपति) होगा।

नाहं तं वेद दभ्यं दभत्स, यस्येदं दूतीरसरं पराकात्। न तं गूहन्ति स्रवतो गभीरा, हता इन्द्रेण पणयः शयध्वे ।। 4।।

सरमा ने कहा-मैं उसको कष्ट पहुँचाया जाने वाला नहीं समझती हूँ; अपितु वह (शत्रुओं को) कष्ट देता है। जिसकी मैं दूती बनकर बहुत दूर से यहाँ आई हूँ। बहती हुई गहरे जल वाली नदियाँ उसको छिपा नहीं सकतीं। हे पणियों! इन्द्र द्वारा मारे जाकर तुम लोग (पृथिवी पर) पड़ जाओगे।

इमा गावः सरमे या ऐच्छः परिदिवो अन्तान्त्सुभगे पतन्ती । कस्त एना अव सृजादयुध्व्युतास्माकमायुधा सन्ति तिग्मा ।। 5 ।।

पणियों ने कहा- हे सरमा ! आकाश की छोर तक चारों तरफ घूमती हुई इन गायों को, जिनकी तुमने इच्छा की है। हे सौभाग्यवती! तुममें से कौन मुक्त कर सकता है? और हमारे शस्त्र भी अत्यन्त तीक्ष्ण हैं।

असेन्या वः पणयो वास्यनिषव्यास्तनवः सन्तु पापीः । अधृष्टो व एतवा अस्तु पन्था, बृहस्पतिर्व उभया न मृळात् ।। 6।।

सरमा ने कहा- हे पापियों ! तुम्हारे वचन शस्त्र के आघात से सुरक्षित हैं; तथा पापी शरीर बाणों के निशाने से बचने वाले हो सकते हैं। तुम्हारे पास पहुँचने के लिए मार्ग भी अगम्य हो सकता है; किन्तु किसी भी प्रकार से बृहस्पति दया नहीं करेंगे।

अयं निधिः सरमे अदिबुनो, गोभिरश्वेभिर्वसुभिर्दृष्टः । रक्षन्ति तं पणयो ये सुगोपा, रेकु पदमलकमा जगन्थ ॥ 7 ॥

पणियों ने कहा- हे सरमा ! गायों, अश्वों तथा रत्नों से भरा हुआ यह खजाना पर्वतों से ढका हुआ है। कुशल रक्षक पणि, इसकी रक्षा करते हैं। तुम व्यर्थ में इस खाली स्थान पर आई हो।

एह गमन्नृषयः सोमशिता, अयास्यो अङ्गिरसो नवग्वाः । त एतमूर्वं वि भजन्त गोनामथैतद्वचः पणयो वमन्नित्।। 8 ।।

सरमा ने कहा-सोमपान से उत्तेजित, अयास्य, अङ्गिरस, नवग्वा आदि ऋषि यहाँ पर आएंगे। वे गायों के इस विशाल समूह को बाँट लेंगे। तब पणियों को अपने इस वचन को उगलना पड़ेगा।

एवा च त्वं सरम आजगन्थ, प्रबाधिता सहसा दैव्येन । स्वसारं त्वा कृणवै मा पुनर्गा, अप ते गवां सुभगे भजाम ।। 9।।

पणियों ने कहा-हे सरमा! इस प्रकार यदि तुम देवताओं की शक्ति से पीड़ित की गई हो; तो हम तुम्हे बहन बनाते हैं। फिर मत जाओ। हे सौभाग्यवती! हम तुम्हें गायों का अलग हिस्सा देंगे ।

नाहं वेद भ्रातृत्वं नो स्वसृत्वमिन्द्रो विदुराङ्गिरसश्च घोराः । गोकामा में अच्छदयन्यदायमपात इत पणयो वरीयः ।। 10।

सरमा ने कहा-मैं न तो भ्रातृत्व को जानती हूँ न स्वसृत्व को; इन्द्र तथा भयानक अङ्गिरस इसको जानते हैं। जब मैं आई (तब) वे गायों की इच्छा करने वाले मालूम पड़े। अतः हे पणियों! (इसकी अपेक्षा) किसी विस्तृत स्थान पर चले जाओ।

दूरमित पणयो वरीय उद्, गावो यन्तु मिनतीर्ऋतेन। बृहस्पतिर्या अविन्दन्निगूळहाः, सोमो ग्रावाण ऋषयश्च विप्राः ।।11।।

सरमा ने कहा-हे पणियो! किसी विस्तृत स्थान पर चले जाओ। छिपी हुई गायें, चट्टानों के आवरण को तोड़ती हुई सत्य नियम के अनुकूल बाहर निकले; जिनको बृहस्पति ने ढूंढ निकाला है तथा जिनका, सोम ने, पत्थरों ने तथा बुद्धिमान ऋषियों ने पता लगाया है।

Rigveda Samvadya Suktas ऋग्वेद संवाद सूक्त सम्पूर्ण

॥ विश्वामित्र नदी संवाद ॥

मंत्र- 13, ऋग्वेद- 3/33 ऋषि- विश्वामित्र, स्वर- पञ्चम, धैवत, ऋषभ, देवता- नदियां (विपादं शुतुद्री) छन्द- पङ्कित्रिष्टुप, उष्णिक,

ऋग्वेद के तीसरे मण्डल का 33वाँ सूक्त है, जिसमें कुल 13 मन्त्र हैं। भरतवंशी विश्वामित्र सुदास से पौरोहित्य कर्म का धन लेकर अपने 1. गन्तव्य मार्ग के लिए जाने लगा तो अन्य लोग भी उसका अनुकरण करने लग जाते हैं। रास्ते में नदियों में बाढ़ आ जाने के कारण उन्हें पार करना मुश्किल था। 13 मत्रों में विश्वामित्र द्वारा शुतुद्री और विपाट् नदियों से मार्ग देने के लिए प्रार्थना की गई है।

प्र पर्वतानामुशती उपस्थादश्वे इव विषिते हासमाने। गावेव शुभ्रे मातरा रिहाणे, विपाद्भुतुद्री पयसा जवेते।। 1।।

पर्वतों की गोद से निकलकर समुद्र की ओर जाने की इच्छा करती हुई (परस्पर) स्पर्धा से दौड़ती हुई, खुले बाग वाली दो घोड़ियों की तरह (बछड़े) को चाटती हुई दो सफेद माता गायों की तरह विपाट और शुतुद्री (अपने) प्रवाह से तेजी से बह रही हैं।

इन्द्रेषिते प्रसवं भिक्षमाणे, अच्छा समुद्रं रथ्येव याथः । समाराणे ऊर्मिभिः पिन्वमाने, अन्या वामन्यामप्येति शुभ्रे ।। 2 ।।

इन्द्र द्वारा भेजी गई, बहने के लिए प्रार्थना करती हुई, दो रथियों की तरह समुद्र की ओर जा रही हो। हे शुभ्रे ! एक साथ जाती हुई, लहरों से उमड़ती हुई; तुममें से प्रत्येक एक-दूसरे की ओर जा रही हो।

अच्छा सिन्धु मातृतमामयासं, विपाशमुर्वी सुभगामगन्म। वत्समिव मातरा संरिहाणे, समानं योनिमनु सञ्चरन्ती।। 3 ।।

श्रेष्ठ नदी माता (शुतुद्री) के पास आया हूँ। चौड़ी तथा सुन्दर विपाट के पास आया हूँ। बछड़े को चाटती हुई दो माताओं की तरह, एक ही स्थान (समुद्र) को लक्ष्य करके बहती हुई (शुतुद्री और विपाशा) के पास आया हूँ।

एना वयं पयसा पिन्वमाना, अनुयोनिं देवकृतं चरन्तीः । न वर्तवे प्रसवः सर्गतक्तः, किंयुर्विप्रो नद्यो जोहवीति ।। 4 ॥

ऐसी हम लोग अपनी धारा से उमड़ रही है, तथा देव (इन्द्र) द्वारा निर्मित स्थान पर चल रही हैं। स्वाभाविक रूप से प्रवाहित हम लोगों की गति रुकने के लिए नहीं है। किस इच्छा से ऋषि (विश्वामित्र) नदियों की बार-बार स्तुति कर रहा है।

रमध्वं मे वचसे सोम्याय, ऋतावरीरुप मुहूर्तमेवैः । प्र सिन्धुमच्छा बृहती मनीषा-वस्युरह्वे कुशिकस्य सूनुः ॥ 5॥

हे पवित्र जलवाली (नदियों)! सोमाप्लावित मैरे वचनों के प्रति अपनी यात्रा से क्षणभर के लिए रुक जाओ। अपनी सहायता का इच्छुक, कुशिकपुत्र मैंने ऊँची स्थिति से नदी (शुतुद्री) का आह्वान किया है। 

इन्दो अस्माँ अरदद्वज्रबाहुर-पाहन्वृत्रं परिधिं नदीनाम् । देवोऽनयत्सविता सुपाणिस्तस्य वयं प्रसवे याम उर्वीः ।। 6 ।।

वज्रधारी इन्द्र नें हमें खोदकर बाहर किया । उसने नदीयों को घेरने वाले वृत्र को मारा । सुन्दर हाथों वाले सवितृ देव हम लोगों को लाए । हम जितनी चौड़ी हैं उसकी आज्ञा में निरन्तर बहती हैं । 

प्रवाच्यं शश्वधा वीर्यं तद् इन्द्रस्य कर्म यदहिं विवृश्चत् । वि वज्रेण परिषदो जघाना-यन्नापोऽयनमिच्छमानाः ।। 7 ।।

इन्द्र वह पराक्रमयुक्त कार्य जो उसने अहि को मारा , अवश्य कहने योग्य हैं । उसने वज्र से ( जल के ) प्रतिबन्धकों को काट डाला । जल अपना मार्ग खोजता हुआ प्रवाहित हुआ । 

एतद्वचो जरितर्मापि मृष्ठा , आ यत्ते घोषानुत्तरा युगानि । उक्थेषु कारो प्रति नो जुषस्व , मा  नो नि कः पुरुषत्रा नमस्ते ।। 8 ।। 

हे स्तुतिगायक ! इस वचन को कभी भी मत भूलो , ताकि भावियुगों के लोग तुम्हारें इस वचन को सुन सकें । हे कवि ! अपनी स्तुतियों में हमारा आदर रखो हम लोगों को मनुष्यकोटि में नीचे मत लाओं । ( हमारा ) तुम्हें नमस्कार हैं ।

 




हमसे जुड़े

Translate

Featured Post