हरतालिका ( तीज ) व्रत धारण करने वाली स्त्रियाँ - भादों महिने की शुक्लपक्ष तृतीया के दिन ब्रह्ममुहूर्त में जागें , नित्य भाद्रशुक्लपक्ष तृतीयायां प्रातस्तिलामलकेन स्नात्वा नवीनवस्त्र परिधाय आचम्य संकल्पं कुर्यात् -
हरिः ॐ विष्णु - विष्णुर्विष्णुः अद्य ॐ नमः परमात्मने श्री पुराणपुरुषोत्तमाय ब्राह्मणोह्नि द्वितीय परार्द्धे श्री श्वेत वाराह कल्पे जम्बूद्वीपे भरत - खण्डे आर्यावर्तैक देशान्तर्गते श्रीमद्विष्णुप्रजापति क्षेत्रे वैवस्वत मन्वन्तरे अष्टाविंशति - तमे युगे कलियुगे कलि प्रथम चरणे काशी प्रयाग मध्ये इत्यादिः क्षेत्रे विक्रमशके वर्तमान पिङ्गल नाम संवत्सरे अमुकायने मासोत्तमेमासे भाद्रपद मासे शुक्लपक्षे तृतीया तिथौ मम आत्मनः श्रुतिस्मृतिपुराणोक्तफल प्राप्त्यर्थं मम इह जन्मनि जन्मान्तरे च आत्मनः भर्त्रा सह अखंडितसौभाग्यपुत्रपौत्राद्यभीष्ट प्राप्तये ऐहिकामुष्मिक पुरुषार्थसिद्धयर्थं च श्रीसखिसहितोमामहेश्वर प्रोत्यर्थं प्रतिवार्षिकी हरितालिकाव्रतागत्वेन ध्यानावाहनादिषोडशोपचारैः पुजां करिष्ये । तथा च कलशपूजनं घंटिकापूजनञ्च करिष्ये । आदौ निर्विघ्नतासिद्धयर्थं महागणपतिपूजां करिष्ये । वक्रतुण्ड ० इति गणपतिं संपूज्य - कलशस्य मुखे विष्णुः कण्ठे रुद्रः समाश्रितः ।
कर्मो से निवृत्त होकर , उसके पश्चात् तिल तथा आँवलों के चूर्ण के साथ स्नान करें । फिर पवित्र स्थान में आटे से चौक पूर कर केले का मण्डप बनाकर शिव पार्वती की पार्थिव प्रतिमा मिट्टी की मूर्ति बनाकर स्थापित करें तत्पश्चात् नवीन वस्त्र धारण करके आसन पर पूर्वाभिमुख बैठकर देशकालादि के उच्चारण के साथ एवं गुण ० इत्यादि पढ़कर हाथ में जल लेकर संकल्प करें इसके अनन्तर वक्रतुण्ड इत्यादि मन्त्रों का गणेश पूजन करें । कलशस्य मुखे ० इत्यादि देवों का आवाहन करके कलश पूजन करें
चन्दनादि समर्पण करे, कलशमुद्रा दिखावे घन्टा बजावे जिससे राक्षस भाग जायें और देवताओं का शुभागमन हो, गन्ध अक्षतादि द्वारा मूले तस्य स्थितौ ब्रह्मा मध्ये मातृगणः स्मृताः ।। कुक्षो तु सागरः सर्वे सप्तद्वीपा वसुन्धरा । ऋग्वेदोऽथ यजुर्वेदः सामवेदो- ह्यथवर्णः ।। अंगैश्च सहिताः सर्वे कलशं तु समाश्रिताः । अत्र गायत्री सावित्री च शांति पुष्टिकरी तथा ।। आयान्तु देव- 'पूजार्थ दुरितक्षयकारकाः गङ्ग च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति । नर्मदे सिंधुकावेरि जलेऽस्मिन सन्निधिं कुरु ।। अस्मिन- कलशे वरुणं सांगं सपरिवारमावाहयामि ।। वरुणाय नमः, चन्दनं समर्पयामि। अक्षतान् ० । पूजार्थे पुष्पं० । धूपदीपार्थे अक्षतान् समर्पयामि । नैवेद्यं समर्पयामि, कलशमुद्रां प्रदर्थ्य--आगमार्थन्तु देवानां गमनार्थन्तु राक्षसाम् । कुरु घंटे रवं तत्र देवताह्वान- लक्षणम् ।१। घंटायै नमः, गंधाक्षतपुष्पाणि समर्पयामि । भो दीप ! ब्रह्मरूपत्वं ज्योतिषां प्रभुरव्ययः । आरोग्यधनपुत्रांश्च स्थिरां लक्ष्मी च देहि मे ।।२।। दीपदेवतायै नमः, गंधाक्षतपुष्पाणिसमर्पयामि ।। अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा । यः स्मरेत् पुंडरीकाक्षं स वाह्याभ्यन्तरः शुचिः ।३। कलशोदकेन पूजाद्रव्याणि प्रोक्ष्य आत्मानं च प्रोक्षयेद । तत इन्द्राद्यष्टलोक- पालानावाहयेत् ।। तद्यथा-इन्द्राय नमः, इन्द्रमावाहयामि । अग्नये नमः अनिमावाहह्यामि । एवं यमादीनपि आवाह्य सम्पू - जयेत् ।। अथोमाहेश्वरयोध्यानम् । मन्दारमालाकुलितालकायै कपालमालाकिंतशेखराय । दिव्याम्बरायै च दिगम्बराय नमः शिवयै च नमः शिवाय । ४ । पीतकोशेयवसनां हेमाभां कमलासनाम् । भक्तानां वरदां नित्यां पार्वतीं चिन्तयाम्यहम् ।। ५ ।। इति ध्यानम् ।। देवि देवि समागच्छ प्राथयेहं जगन्मये । इमां मया कृतां पूजां गृहाण सुरसत्तमें । ६ । उमामहेश्वराभ्याम् नमः धंटा को नमस्कार करें '' भो दीप " इससे दीपक को नमस्कार कर पुष्पाक्षतादि से पूजन करें , ॐ अपवित्रः ० इस मन्त्र द्वारा पूजन सामग्री तथा अपने ऊपर जल छिडके । इन्द्र आदि अष्ट लोकपालों का आवाहन एवं पूजन करें मन्दारमाला ,, इससे ध्यान देवि , देवि ० इससे आवाहन, 'भवानि त्वम्०' इससे आसन, 'निर्मलम्०' इससे पाद्य, 'श्री पार्वति' इससे अर्घ्य तथा 'गङ्गा जलम् ०' इससे आचमन आवाहयामि । भवानि त्वं महादेवि सर्वसौभाग्यदायिनी । अनेकरत्नसंयुक्तमासनं प्रतिगृह्यताम् ।७। उमामहेश्वराभ्यां नमः, आसनं समर्पयामि ।। निर्मलं. शीतलं दिव्यं नानागन्धैः समन्वितम् । पाद्यं गृहाण देवेशि मया दत्तं हि भक्तितः ।।८।। उमा- महेश्वराभ्यां नमः, पाद्यं समर्पयामि ।। श्रीपार्वती महाभागे शङ्कर प्रियवादिनि । अर्घ्य गृहाण कल्याणि भर्चा सह पतिव्रते ।६। अर्घ्य समर्पयामि ।। गंगाजलं मयाऽऽनीतं सुवर्णकलशे स्थितम् । अनेनाचम्यतां देवि रुद्रेण सहितेऽनघे ।१०। उमा- महेश्वराभ्यां नमः आचमनीयं समर्पयामि ।। गंगासरस्वतीरेवापयोष्णीनर्मदाजलैः स्नापितासि मया देवि तेन शान्ति कुरुष्व मे ।।११।। उमामहे० नमः । स्नानं समर्पयामि । "पञ्चामृतैः स्नापयिष्ये ।। सुरभिस्तनसम्भूतं सर्वदेवप्रियं पयः । स्नानाय ते मया भक्त्या दत्तं स्वाक्रियतामिति ।।१२।। उमाम० नमः । पय स्नानं समर्पयामि ।। शुद्धोदकस्नानं समर्पयामि चन्द्र- मण्डलसंकाशं सर्वदेवप्रियं दधि । अनेन स्नापितासि त्वं तेन शान्ति कुरुष्व मे ।।१३।। उमामहे० नमः । दधिस्नानं समर्पयामि । शुद्धोदकस्नानं समर्पयामि आज्यं सुराणामाहारमाज्यं यज्ञ हविध्रुवम् । आज्यं गृहाण स्नानाय मया तुभ्यं निवेदितम् ।।१४।। उमामहे० नमः । घृतस्नानं समर्पयामि । शुद्धोदकस्नानं समर्पयामि सर्वोषधिसमुत्पन्न पीयूषमधुरं मधु । स्नापनाय मया दत्तं गृहाण जगदम्बिके ।।१५।। श्री उमामहे० नमः, मधुस्नानं सम० । शुद्धोदकस्नानं सम० । इक्षु दण्डसमुद्भूतां शर्करां मधुरां विभो । स्नानार्थ ते मया दत्तां गृहाणसुरसत्तमे ।।१६।॥ श्री उमा० नमः, सर्करास्नान समर्पयामि । शुद्धोदकस्नानं सम० । करावे । 'गङ्गा सरस्वती०' इससे स्नान, 'सुरभि०' इससे दुग्धस्नान तथा शुद्धोदकस्नान, 'चन्द्रमण्डल०' इससे दधिस्नान, फिर शुद्धजल स्नान 'आज्य०' इससे घृत स्नान एवं शुद्धोदकस्नान, 'सर्वोषधि०' इस मन्त्र द्वारा मधु स्नान फिरे शुद्ध जल स्नान, 'इक्षुदण्ड० इस मन्त्र से
।। अथ हरतालिका व्रत कथा ।।
सूत जी बोले जिन श्री पार्वतीजी के घुँघराले केश कल्पवृक्ष के फूलों से ढँके हुये हैं और जो सुन्दर एवं नये वस्त्रों को धारण करने वाली हैं तथा कपालों की माला से जिनका मस्तक शोभायमान है और दिगम्बर रुपधारी शङ्कर भगवान हैं उनकों नमस्कार हो । कैलाश पर्वत की सुन्दर विशाल चोटी पर विराजमान भगवान शङ्कर से गौरी जी ने पूछा - हे प्रभो !
सूत उवाच = मन्दारमालाकुलितालकायै कपालमालाङ्कितशेखराय । दिव्याम्बराय च दिगम्बराय नमः शिवायै च नमः शिवाय ।। १ ।।
कैलाश शिखरे रम्ये गोरी पृच्छति शङ्करम् । गुह्याद् गुह्यतरं गुह्यं कथयस्व महेश्वरः ।। २ ।।
सर्वेषां सर्वधर्माणामल्पायासं महत्फलम् । प्रसन्नोऽसि यदा नाथ तथ्यं ब्रुहि ममाग्रतः ।। ३ ।।
केन त्वं हि मया प्राप्तस्तपोदानब्रतादिना । अनादिमध्यनिधनो भर्ता चैव जगत्प्रभुः ।। ४ ।।
आप मुझे गुप्त से गुप्त किसी ब्रत की कथा सुनाइये ।। २ ।। हे स्वामिन् ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो ऐसा व्रत बताने की कृपा करें जो सभी धर्मों का सार हो और जिसके करनें में थोड़ा परिश्रम हो और फल भी विशेष प्राप्त हो जाय ।। ३ ।। यह भी बताने की कृपा करें कि मैं आपकी पत्नी किस व्रत के प्रभाव से हुई हूँ । हे जगत के स्वामिन् ! आदि मध्य अन्त से रहित हैं आप मेरे पति किस दान से अथवा पुण्य के प्रभाव से हुए हैं ? ।। ४ ।। शङ्करजी बोले - हे देवि ! सुनों मैं तमसे वह उत्तम व्रत कहता हूँ जो परम गोपनीय एवं मेरा सर्वस्व है ।। ५ ।। वह व्रत जैसे कि ताराओं में चन्द्रमा ग्रहों में सूर्यं वर्णों में ब्राह्मण सभी देवताओं में विष्णु ।। ६ ।। नदियों में जैसे गङ्गा , पुराणों में महाभारत , वेदों में सामवेद , इन्द्रियों में मन ।। ७ ।।
ईश्वर उवाच = श्रृणु देवि प्रवक्ष्यामि तवाग्रे व्रतमुत्तमम् । यदगोप्यं मम सर्वस्वं कथमामि तव प्रिये ।। ५ ।।
यथा चोड्डगुणो चन्द्रो ग्रहाणां भानुरेव च । वर्णानां यथा विप्रो देवानां विष्णुरेव च ।। ६ ।।
नदीनां च यथा गङ्गा पुराणानां च भारतम् वेदानां च यथा साम इन्द्रियाणां मनो यथा ।। ७ ।।
जैसे श्रेष्ठ समझे जाते हैं वैसे पुराण वेदों का सर्वस्व ही इस व्रत को शास्त्रों ने कहा है , उसे एकाग्र मन से श्रवण करों ।। ८ ।। इसी व्रत के प्रभाव से ही तुमने मेरा अर्धासन् प्राप्त किया है , तुम मेरी परम प्रिया हों वह सारा व्रत मैं तुम्हें सुनाता हूँ ।। ९ ।। भादों का महिना हो , शुक्लपक्ष की तृतीया तिथि हो हस्त नक्षत्र हो , उसी दिन इस व्रत के अनुष्ठान से मनुष्यों के सभी पाप भस्मीभूत हो जाते हैं ।। १० ।।
पुराणवेदंसर्वस्वमागमेन यथोदितम् । श्रृणुष्वैकाग्रमनसा व्रतं श्रेष्ठं पुरातनम् ।। ८ ।।
येन व्रतप्रभावेण प्राप्तमर्द्धासनं मम । तत्सर्वं कथयिष्येऽहं त्वं में प्रेयसी यतः ।। ९ ।।
भाद्रे मासि सितेपक्षे तृतीया हस्तसंयुता । तदमुष्ठानमात्रेण सर्वपापैः प्रमुच्यते ।। १० ।।
हे देवि ! सुनो , जिस महान व्रत को तुमने हिमालय पर्वत पर धारण किया था वह सबका सब पूरा वृत्तान्त मुझसे श्रवण करों ।। ११ ।। श्री पार्वतीजी बोलीं - भगवान् , ! वह सर्वोत्तम व्रत मैनें किस प्रकार किया था यह सब हे महेश्वर ! मैं आपसे सुनना चाहती हूँ ।। १२ ।। शिवजी बोले - हिमालय नामक एक उत्तम महान पर्वत हैं । नाना प्रकार की भूमि तथा वृक्षों से वह शोभायमान हैं ।। १३ ।।
श्रृणु देवि त्वया पूर्वं तद्व्रतं विहितं महत् । तत्सर्वं कथयिष्यामि यथा वृत्तंहिमालये ।। ११ ।।
पार्वत्युवाच = कथं कृतं मयानाथ व्रतानामुत्तमं व्रतम् । तत्सर्वं श्रोतमिच्छामि त्वत्सकाशान्महेश्वरः ।। १२ ।।
शिव उवाच = अस्ति तत्र महान्दिव्यो हिमान्नग उत्तमः । नानाभूमिसमाकीर्णोनानाद्रुम समाकुलः ।। १३ ।।
अनेकों प्रकार के पक्षी वहाँ अपनी मधुर बोलियों से उसे शोभायमान कर रहे हैं । एवं चित्रविचित्र मृगादिक पशु वहाँ विचरते हैं । देवता गन्धर्व , सिद्ध चारण एवं गुह्वाक ।। १४ ।। प्रसन्न होकर वहाँ घूमते रहते है । गन्धर्वजन गायन करने में मग्न रहते हैं । नाना प्रकार की वैडूर्यमणियाँ तथा सोने की ऊँची चोटियों ।। १५ ।। रूपी भुजाओंं से यानी आकाश पर लिखता हुआ दिखाई देता है । उसका अकाश से स्पर्श इस प्रकार से हैं जैसे कोई अपने मित्र के मन्दिर को छू रहा हो । वह बर्फ से ढ़का रहता है , गङ्गा नदी की ध्वनि से वह सदा शब्दायमान रहता है ।। १६ ।।
नानापक्षिसमायुक्तोनानामृगविचित्रकः । यत्रदेवाः सगन्धर्वाः सिद्धचारण गुह्यकाः ।। १४ ।।
विचरन्तिसदातुष्टागन्धर्वागीततत्पराः । स्फटिकैकाञ्चनैश्रृङ्गैर्मणिवैडूर्यभूषितैः ।। १५ ।।
भुजैर्लिखन्निवाकाशं सुहृदो मन्दिरं यथा । हिमेन पूरितो नित्यं गङ्गाध्वनिनिनादितः ।। १६ ।।
हे पार्वती ! तुमने वहीं बाल्यावस्था में बारह वर्ष पर्यन्त कठोर तप किया । अधोमुख होकर केवल धुम्रपान किया ।। १७ ।। फिर चौसठ वर्ष पर्यन्त पके पके पत्ते खाये । माघ के महिने में जल में खड़ी हो कर तप किया और वैशाख में अग्नि का सेवन किया ।। १८ ।। सावन में अन्न पान कर त्याग कर दिया , एकदम बाहर मैदान में जाकर तप किया । तुम्हारे पिताजी तुम्हें इस प्रकार के कष्टों में देखकर घोर चिन्ता से व्याकुल हो गये ।। १९ ।।
पार्वती त्वं यथा बाल्ये स्वाचरन्ती तपः परम् । अव्दद्वाशकं देवि धुम्रपानमधोमुखी ।। १७ ।।
संवत्सरचतुःष्ष्ठिं पक्वपर्णाशनं कृतम् । माघमासे जले मग्ना वैशाखे चाग्निसेविनी ।। १८ ।।
श्रावणे च बहिर्वासा अन्नपानविवर्जितः दृष्ट्वा तातेन् तत्कष्टं चिन्तया दुखितोऽभवत् ।। १९ ।।
उन्होने विचार किया कि वह कन्या किसको दी जाय ! ुस समय ब्रह्माजी के पुत्र परम धर्मात्मा ।। २० ।। श्रेष्ठ मुनि ! श्री नारद जी तुम्हें देखने के लिये वहाँ आ गये । उन्हे अर्घ्यं आसन देकर हिमालय ने उनसे कहा ।। २१ ।। हे श्रेष्ठ मुनि ! आपका आना शुभ हो बड़े भाग्यों से ही आप जैसे ऋषियों का आगमन होता है कहिये आपका शुभागमन किस कारण से हुआ ।। २२ ।।
कस्मै देया मया कन्या एवं चिन्तातुरोऽभवत् । तदैवावसरे प्राप्तः ब्रह्मपुत्रस्तु धर्मवित् ।। २० ।।
नारदो मुनिशार्दूलः शैलपुत्रीदिद्यक्षया । दत्वाऽर्घविष्टरौ पाद्यं नारदं प्रोक्तवान् गिरिः ।। २१ ।।
हिमावानुवाच । किमर्थनागतः स्वामिन् वदस्व मुनिसत्तम् । महद्भाग्येन सञ्जातं त्वदागननमुत्तमम् ।। २२ ।।
श्री नारद मुनि बोले हे - पर्वतराज सुनिये - मुझे स्वयं विष्णु भगवान ने आपके पास भेजा है । आपकी यह कन्या रत्न है , किसी योग्य व्यक्ति को समर्पण करना ही उत्तम है ।। २३ ।। संसार में ब्रह्मा , इन्द्र शङ्कर इत्यादि का देवताओं में वासुदेव श्रेष्ठ माने जाते है उन्हें अपनी कन्या देना उत्तम है , मेरी तो यही सम्मति है ।। २४ ।। हिमालय बोले देवाधिदेव वासूदेव यदि स्वयं ही जब कन्या के लिए प्रार्थना कर रहे है और आपके आगमन का भी यही प्रयोजन है , तो मैं अपनी कन्या उन्हे दूंगा ।। २५ ।।
नारद उवाच = श्रृणुशैलेन्द्र मद्वाक्यं विष्णुनाप्रेषिताऽस्म्यहम् । योग्यंयोग्याय दातव्यं कन्यारत्नमिदं त्वया ।। २३ ।।
वासुदेव समो नास्ति ब्रह्मशक-शिवादिषु । तस्मै देया त्वया कन्या अत्रार्थे सम्मतिं मम ।। २४ ।।
हिमवानुवाच = वासुदेव स्वयं देवः कन्यां प्रार्थयते यदि । तदा मया प्रदातव्या त्वदागमनगौरवात् ।। २५ ।।
यह सुनकर नारद जी वहाँ से अन्तर्धान होकर शङ्ख चक्र गदा, पद्मधारी श्री विष्णु भगवान् के पास पहुँचे ।। २६ ।। नारद जी बोले हे देव ! आपका विवाह निश्चित हो गया है ।। २७ ।। इतना कहकर देवर्षि नारद जी तो चले आये और इधर हिमालयराज ने अपनी पुत्री गौरी से प्रसन्न होकर कहा ।। २८ ।।
इत्येवं गदितं श्रुत्वा नभस्यन्तर्दधे मुनिः । ययौ पीताम्बरधरं शंखचक्रगदाधरम् ।। २६
कृताञ्जलिपुटो भूत्वा मुनीन्द्रस्तमभाषत । नारद उवाच = श्रृणु देव भवत्कार्य विवाहो निश्चितस्तव ।। २७ ।।
इत्युक्त्वा स तु देवर्षिर्नारदो गृहमागतः । हिमवांस्तु तदा गौरीमुवाच वचनं मुदा ।। २८ ।।
हे पुत्री ! तुम्हे गरूणध्वज वासुदेव जी के प्रति देने का विचार कर लिया है । पिता के इस प्रकार के वचन सुन कर पार्वती अपनी सखी के घर गयीं और अत्यन्त दुःखित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ी और विलाप करने लगी ।। २९ ।। उन्हें इस प्रकार दुःखित हो विलाप करते सखी ने देखा और पूछने लगी । हे देवि ! तुम्हे क्या दुःख हुआ है मुझसे कहो ।। ३० ।। और तुम्हे जिस प्रकार से भी सुख हो मैं निश्चय वही उपाय करूँगी । पार्वती जी बोलीं - हे सखी ! मुझे प्रसन्न करना चाहती हो तो मेरी अभिलाषा सुनो ।। ३१ ।।
दत्तासि त्वं मया पुत्री देवाय गरुणध्वजे । श्रुत्वा वाक्यं पितुर्देवी गतो सा सखिमन्दिरम् । भूमौ पतित्वा सा तत्र विललापाति दुःखिता ।। २९ ।।
विलपन्तीं तदा दृष्ट्वा सखी वचनमब्रवीत् । सख्युवाच ।।किमर्थं दुखिता देवि कथयस्व ममाग्रतः ।। ३० ।।
यतो भविष्यति सुखं तत् करिष्ये न संशयः । पार्वत्युवाच । सखि ! श्रृणु मम प्रीतिं मनसीं महतीं यथा ।। ३१ ।।
हे सखि ! मैं कुछ और चाहती हूँ मेरे पिता कुछ और करना चाहते हैं । मैं तो अपना पति श्री महादेव जी को वर चुकी हूँ , मेरे पिता इसके विपरीत करना चाहते है ।। ३२ ।। इसलिये हे प्यारी सखी ! मैं अब अपनी देह त्याग कर दूँगी । तब पार्वती जी के ऐसे वचन सुन सखी ने कहा - ।। ३३ ।। हे पार्वती ! तुम घबराओं नहीं । हम दोनों यहाँ से निकल कर ऐसे वन में पहुँच जायँगी जिसे तुम्हारे पिता जान ही नहीं सकेगें । इस प्रकार आपस में राय करके श्री पार्वती जी को वह घोर वन में ले गयी ।। ३४ ।।
महादेवञ्च भर्तारं करिष्येऽहंन संशयः । एतन्मे चिन्तितं कार्यतातेन कृतमन्यथा ।। ३२ ।।
तस्मादेहपरित्यागं करिष्येऽहं सखि प्रिये । पार्वत्या वचनं श्रुत्वा सखी वचनमब्रवीत् ।। ३३ ।।
सख्युवाच = पितायत्र न जानाति गमिष्यावो हि तद्वनम् । इत्येवं सम्मतिं कृत्वा नीता सा न महद्वनम् ।। ३४ ।।
तब पिता हिमालय राज ने अपनी पुत्री को घर में न देखकर इधर उधर खोज किया घऱ घर में ढूँढा किन्तु वह न मिली , तो विचार करने लगे । मेरी पुत्री को देव दानव , किन्नरों में से कौन ले गया ।। ३५ ।। मैनें नारद जी के आगे श्री विष्णु भगवान् के प्रति कन्या देने की प्रतिज्ञा की थी , अब मैं क्या दूँगा । इस प्रकार की चिन्ता करते कहते वे मुर्छित होकर गिर पड़े ।। ३६ ।। तब उनकी ऐसी अवस्था सुन कर हाहाकार करते हुये लोग हिमाचलराज के पास पहुँचे और मुर्छा का कारण पूछने लगे ।। ३७ ।।
पिता निरीक्षयामास हिमवास्तु गृहे गृहे । केन नीतातु मे पुत्री देवदानवकिन्नरैः ।। ३५ ।।
नारदाग्रे कृतं सत्यं किं दास्ये विष्णवेऽपि च । इत्येवं चिन्तयाविष्टो मूर्छितो निपपात ह ।। ३६ ।।
हाहा कृत्वा प्रधावन्ते लोकास्ते गिरिपुङ्गवम् । ऊचुर्गिरिवरं सर्वे मूर्छाहेतुं गिरे वद् ।। ३७ ।।
हिमालयराज बोले किसी दुष्टात्मा नें मेरी कन्या का अपहरण कर लिया है अथवा किसी काले सर्प ने उसे काट लिया है या फिर किसी सिंह व्याघ्र ने उसे मार डाला है ।। ३८ ।। पता नहीं मेरी कन्या कहाँ चली गयी , किस दुष्ट ने उसे हर लिया है । ऐसा कहते कहते शोक से सन्तप्त होकर हिमालय राज वायु से काम्पायमान माहा-वृक्ष के समान काँपने लगे ।। ३९ ।। तुम्हारे पिता नें सिंह , व्याघ्र , भल्लूक आदि हिंसक पशुओं से भरे हुये एक वन से दूसरे वन में जाकर देखा तुम्हें ढूँढने का बहुत बड़ा प्रयत्न किया ।। ४० ।।
गिरिरुवाच = केनापि दुष्टसत्त्वेन कन्यारत्नं हृतं मम । दन्ष्ट्रा वा काल सर्वेण सिंहव्याघ्रेण वा हृता ।। ३८ ।।
न जाने क्व गता पुत्री केन दुष्टेन वा हृता । चकम्पेशोकसन्तप्तोवातेनेवमहारुतः ।। ३९ ।।
गिरिर्वनाद्वनं यातस्त्वदालोकनकारणात् । सिंहव्याघ्रैश्च भल्लूकैरादिभिश्च महावनम् ।। ४० ।।
इधर अपनी सखियों के साथ एक घर वन में तुम भी जा पहुंची। वहां एक सुंदर नदी बह रही थी और उसके तट पर एक बड़ी गुफा थी, जिसे तुमने देखा ।। ४१।। तब अपनी सखियों के साथ तुमने उसे गुफा में प्रवेश किया । फिर खाना पीना त्याग करके वहां तुमने मेरी पार्वती जी युक्त बालुका लिंग स्थापित किया ।। ४२ ।। उसे दिन भादौं मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि थी साथ में हस्त नक्षत्र था। मेरी पूजा अर्चना आपने बड़े प्रेम से आरम्भ की । बाजों तथा गीतों के साथ रात को जागरण भी किया ।। ४३ ।।
त्वं चापि विपिनेघोरे ब्रजन्ती सखिभिः सह । तत्र दृष्ट्वा नदी रम्यां तत्तीरे च महागुहाम् ।। ४१ ।।
तां प्रविश्यसखी सार्धमन्नपानविवर्जिता । संस्थाप्यबालुकालिङ्गं पार्वत्या सहितं मम ।। ४२ ।।
भाद्रशुक्लतृतीयायामर्चयन्ती तु हस्तभे । तत्र वाद्येनगीतेन रात्रौजागरणं कृतम् ।। ४३ ।।
इस प्रकार तुम्हारा परम श्रेष्ठ व्रत हुआ इस व्रत के प्रभाव से मेरा आसान हिल गया । तब तत्काल ही मैं प्रकट हो गया जहां तुम सखियों के साथ थी।।४४।। मैं दर्शन देकर कहा कि हे वरानने ! वर मांँगो । तब तुम बोली हे देव महेश्वर ! यदि आप प्रसन्न हो तो मेरे स्वामी बनिये ।। ४५ ।। तब मैंने तथास्तु कहा फिर वहां से अंतर्धान होकर कैलाश पर पहुँचा । इधर जब प्रातः काल हुआ तब तुमने मेरे लिंग मूर्ति का नदी में विसर्जन किया ।।४६।।
तेन व्रत प्रभावेण आसनं चलितं मम । सम्प्राप्तोहं तदा तत्र यत्र त्वं सखिभिः सह ।। ४४ ।।
पसन्नोऽस्मिमया प्रोक्तं वरं व्रूहिवरानने । पार्वत्युवाच = यदि देव प्रसन्नोऽसि भर्ता भव महेश्वरः ।। ४५ ।।
तथेत्युक्त्वा तु सम्प्राप्तः कैलाश पुनरेव च । ततः प्रभाते सम्प्राप्ते नद्यां कृत्वा विसर्जनम् ।। ४६ ।।
फिर अपनी सखियों के साथ वन से प्राप्त कंदमूल फल आदि से तुमने पारण किया । हे सुन्दरि ! इस स्थान पर सखियों के साथ तुम सो गयी ।। ४७ ।। हिमालयराज तुम्हारे पिता भी उसे घोरवन में आ पहुँचे , अपना खाना पीना त्याग कर वन में चारों ओर तुम्हें ढूँढने लगे ।। ४८ ।। नदी के किनारे दो कन्याओं को सोता हुआ उन्होंने देख लिया और पहचान लिया ।। ४९ ।।
पारणं तु ततः कृत्वा यदस्ति वनगोचरम् । पुनस्तत्रैवसुप्तासिसख्यासार्धं वरानने ।। ४७ ।।
हिमवानपि तत्रैव जगामगहनं वनम् ।। ४८ ।।
अन्विष्य च चतुर्दिक्षु पानभोजनवर्जितः । दृष्ट्वा तत्र नदीतीरे प्रसुप्तंकन्यकाद्वयम् ।। ४९ ।।
फिर तो तुम्हें उठाकर गोदी में लेकर रोते-रोते तुमसे कहने लगे-हे पुत्री ! सिंह व्याघ्र आदि पशुओं से पूर्ण इस घर वन में क्यों आयी ? ।। ५० ।। तब श्री पार्वती जी बोलीं हे पिताजी ! सुनिये , आप मुझे विष्णु भगवान को देना चाहते थे। आपकी यह बात मुझे अच्छी ना लगी इससे मैं वन में चली आयी ।। ५१ ।। यदि आप मेरा विवाह भगवान शंकर जी के साथ करें तो मैं घर चलूंगी नहीं तो यही रहना मैंने निश्चय कर लिया है ।। ५२ ।।
तथेत्युक्त्वा हिमवता नीताऽसि त्वं गृहं प्रति । ततो मह्यं प्रदत्तासि कृत्वा वैवाहिकीं क्रियाम् ।। ५३ ।।
तेन व्रतप्रभावेण सौभाग्यं लब्धवान् त्वया । तदादि ब्रतराजस्तु न कस्यापि निवेदितः ।। ५४ ।।
ममास्य ब्रतराजस्य श्रृणु देवि यथाऽभवत् । अलिभिर्हरिता यस्मात्तस्मात्सा हरतालिका ।। ५५ ।।
देव्युवाच = नामिदं कथितं देव विधिं वद मम प्रभो ।। किं पुण्यं किं फलं चास्य केन च क्रियते कथम् ।। ५६ ।।
ईश्वर उवाच = श्रृणु देवि विधिंवक्ष्ये नारिसौभाग्यहेतुकम् । कर्तव्यं प्रयत्नेन यदि सौभाग्यमिच्छति ।। ५७ ।।
तोरणादि प्रकर्तव्यं कदलीस्तम्भमण्डितम् । आच्छाद्य पट्टवस्त्रैस्तु नानावर्ण विचित्रितैः ।। ५८ ।।
चन्दनेन सुगन्धेन लेपयेद् गृहमण्डपम् । शखभेरीमृदंगस्तु कारयेद्बहुनिःस्वनाम् ।। ५९ ।।
नानामङ्गलगीतं च कर्त्तव्यं ममसद्मनि । स्थापयेद् बालुकालिङ्गं पार्वत्या सहितमम ।। ६० ।।
पूजयेद्वहुपुष्पैश्च गन्धधूपादिभिस्तथा नानाप्रकारैनैवेद्यै रात्रो जागरणं चरेत् ।। ६१ ।।
नारिकेलैः पूगीफलैजम्भीरैर्बकुलैस्तथा । बीजपूरैः सनारङ्गैः फलैश्चान्यैश्च भूरिशः ।। ६२ ।।
ऋतुफलोद्भवैभूरि प्रकारैः कन्दमूलकैः । गन्धपुष्पैर्धूपादीपैर्मन्त्रेणानेन पूजयेत् ।। ६३ ।।
नमः शिवायै शान्ताय पञ्चवक्त्राय शूलिने । नन्दिभृङ्गे महाकालगंधयुक्ताय शम्भवे ।। ६४ ।।
शिवायै हरकान्तायै प्रकृत्यैसृष्टिहेतवे । शिवायै सर्वमाङ्गल्ये शिवरुपे जगन्मये ।। ६५ ।।
शिवकल्याणदे नित्ये जगन्मातर्नमोऽतुते । शिवरुपे नमस्तुभ्यंशिवायै सततं नमः ।। ६६ ।।
नमस्ते ब्रह्मचारिण्यै जगद्धात्र्यै नमो नमः । संसारभयसन्तापास्त्राहि मां सिंहवाहिनी ।। ६७ ।।
येन कामेन् देवि त्वपूजितासि महेश्वरि । राज्यसौभाग्यसम्पत्तिर्देहि मामम्ब पार्वति ।। ६८ ।।
मन्त्रेणानेन देवित्वां पूजयित्वा मया सह । कथां श्रुत्वाविधानेन्दद्यादन्नं च भूरिशः ।। ६९ ।।
ब्राह्मणेभ्यो यथाशक्तिर्देयावस्त्रहिरण्यगाः । अन्येषां भूयसीदेयास्त्रीणां वै भूषणादिकम् ।। ७० ।।
भर्त्रा सह कथां श्रुत्वा भक्तियुक्तेन चेतसा । कृत्वाव्रतेश्वर देवि सर्वपापैः प्रमुच्यते ।। ७१ ।।
सप्तजन्म भवेद्राज्यंसौभाग्यंचैव वर्द्धते । तृतीयायां तु या नारी आहारं कुरूते यदि ।। ७२ ।।
सप्तजन्म भवेद्वन्ध्या वैदव्यं जन्मजन्मनि । दारिद्रय पुत्रशोकं च भजते दुःखभागिनी ।। ७३ ।।
पच्यते नरकं घोरे नोपवासं करोति या । अन्नाहारात् शूकरी स्यात् फलभक्षेण मर्कटी ।। ७४ ।।
जलौका जलपानेन क्षीराहारेण सर्पिणी । मांसाहाराद् भवेद्ब्याघ्री मार्जारी दधिभक्षणात् ।। ७५ ।।
मिष्ठान्नात् पिपीलिका च मक्षिका सर्वभक्षणात् । निद्रावशेनाजगरी कुक्कुटी पतिवञ्चनात् ।। ७६ ।।
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन् व्रतं कुर्यः सदास्त्रियः । रजते काञ्चने ताम्रे वेणवेचाथ मृन्मये ।। ७७ ।।
भाजने विन्यसेद्रत्नं सवस्त्रफलदक्षिणाम् । दानं चद्विजवर्याय दद्यादन्ते च पारणम् ।। ७८ ।।
एवं विधिं या कुरुते च नारी त्वया समाना रमते च भर्ता । भोगाननेकान् भुवि भाज्यमाना , सायुज्यमन्तेलभतेहरेण ।। ७९ ।।
अश्वमेघसहस्त्रणिवाजपेयशतानि च । कथा श्रवणंमात्रेणतत्फलं प्राप्यतेनरैः ।। ८० ।।
एतत्ते कथितं देव तवाग्रे ब्रतमुत्तमम् । कोटियज्ञकृतं पुण्यं यस्मानुष्ठानमात्रतः ।। ८१ ।।
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