योगसूत्रों की रचना ४०० ई० के पहले पंतजलि ने की ।
इसका अनुवाद लगभग ४० भारतीय भाषाओं तथा २ विदेशी भाषाओं ( जावा और अरबी ) में हुआ ।
यह चार पादों या भागों मे विभक्त है ।
(१) समाधिपाद (५१ ) सूत्र (२) साधनपाद ( ५५ ) सूत्र (३) विभूतिपाद ( ५५ ) सूत्र (४) कैवल्यपाद ( ३४ ) सूत्र ।
प्रमुख व्याख्या ग्रन्थ
(१) व्यास भाष्य = व्यास (२) तत्ववैशारदी = वाचस्पतिमिश्र (३) योगवार्तिक = विज्ञानभिक्षु (४) भोजवृत्ति = धारेश्वर भोज
।। चित्तभूमि ।।
क्षिप्तं मूढं विक्षिप्तम् एकाग्रं निरुद्धम् इति चित्तभूमयः ( व्यासभाष्य १.१ )
(१) क्षिप्त = चित्त में रजोगुण की प्रधानता से चंचलता उत्पन्न होती है और चित्त अनेक विषयों में दौडता रहता है इसे ही क्षिप्त कहा जाता है ।
(२) मूढ = तमोगुण की प्रधानता से निद्रा आलस्य तन्द्रा आदि अवगुणों का प्रभाव बढता है इसी अवस्था को मूढ कहा जाता है । (३) विक्षिप्त = सत्वगुण की प्रधानता ससे उत्पन्न एकाग्रता के अचानक रजोगुण के प्रभाव से भंग हो जाने की अवस्था को विक्षिप्त कहा जाता है ।
(४) एकाग्र = सत्वगुण की प्रधानता से जब चित्त किसी एक विषय में एकाग्र रहता है जिससे सम्प्रज्ञात समाधि प्राप्त होती है । ऐसी अवस्था को एकाग्र कहा जाता है ।
(५) निरुद्ध = सम्प्रज्ञात समाधि को प्राप्त करने के बाद जब ध्याता ध्यान और ध्येय रूपी त्रिपुटी समाप्त हो जाती है तब प्राप्त असम्प्रज्ञात समाधि की अवस्था ही निरुद्ध कही जाती है ।
।। चित्तवृत्तिया ।।
वृ्त्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः ।। १.५ ।।
प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः ।। १.६ ।।
चित्त की वृत्तियां पाँच है ।
(१) प्रमाण = प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि ।। १.७ ।। प्रत्यक्ष , अनुमान और आगम ( शब्द तीन प्रमाण है )
(२) विपर्यय = विपर्ययो मिथ्याज्ञानम् अतद्रुपप्रतिष्ठम् ।। १.८ ।। ( मिथ्या ज्ञान को विपर्यय कहा जाता है )
(३) विकल्प = शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशुन्यो विकल्पः ।। १.९ ।। ( केवल शब्द ज्ञान से चिन्तनीय और वास्तविकता से रहित ज्ञान विकल्प है ) ।
(४) निद्रा = अभावप्रत्ययालम्बना वृत्तिर्निद्रा ।। १.१० ।। ( चित्त में सभी वृत्तियों का अभाव होना निद्रा है ) ।
(५) स्मृति = अनुभूतविषयासंप्रमोषः स्मृतिः ।। १.११ ।। ( अनुभूत विषयों की अवधारणा करना समृति है ) ।
ईश्वर का स्वरुप
क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः ।। १.२४ ।।
क्लेश ( अविद्या अस्मिता राग द्वेष अभिनिवेश रुपी ) कुशल और अकुशल कर्म , विपाक ( कर्मों का फल ) और आशय ( कर्मफलों के अनुरुप वासना आदि भोगों ) से अपरामृष्ट ( असम्बद्ध ) जो पुरुष विशेष है वह ईश्वर है ।
अविद्या = अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या
अस्मिता = दृग्दर्शनशक्त्योरेकात्मतेवास्मिता ।
राग = सुखानुशयी रागः
द्वेष = दुःखानुशयी द्वेषः
अभिनिवेश = स्वरसवाही विदुषोऽपि तथा रूढोऽभिनिवेशः ।
तस्य वाचकः प्रणवः ।। १.२७ ।।
ईश्वर का वाचक प्रणव ( ऊँ ) है । ईश्वर उसका वाच्य है ।
योगाङ्ग योग के आठ अङ्ग होते हैं
यमनियमासनप्राणामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानि ।। २.२९ ।।
(१) यम = अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्ययापरिग्रहा यमाः ।
(२) नियम = शौचसंतोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः ।
(३) आसन = स्थिरसुखम् आसनम् ।
(४) प्राणायाम = तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः ।
(५) प्रत्याहार = स्वविषयासंप्रयोगे चित्तस्वरूपानुकारः इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः ।
(६) धारणा = देशबन्धश्चित्तस्य धारणा ।
(७) ध्यान = तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम् ।
(८) समाधि = तदेवार्थमात्रविर्भासं स्वरुपशून्यमिव समाधिः
यम के पाँच प्रकार
(१) अहिंसा = अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्संनिधौ वैरत्यागः ।
(२) सत्य = सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम् ।
(३) अस्तेय = अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम् ।
(४) ब्रह्मचर्य = ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठां वीर्यलाभः ।
(५) अपरिग्रह = अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथंतासंबोधः ।
नियम के पाँच प्रकार
(१) शौच = शौचात् श्वाङ्गजुगुप्सा परैरसंसर्गः ।
(२) सन्तोष = संतोषाद् अनुत्तमः सुखलाभः ।
(३) तप = कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयात् तपसः ।
(४) स्वाध्याय = स्वाध्यायात् इष्टदेवतासंप्रयोगः ।
(५) ईश्वरप्रणिधान = समाधिसिद्धिरीश्वरप्रणिधानात् ।
समाधि २ प्रकार की होती है ।
(१) सम्प्रज्ञात समाधि - इसी को सवितर्क , सविचार , सबीज आदि नामों से भी जाना जाता है । जब चित्त निर्वात दीप की तरह अचल होकर किसी एक वस्तु में ही लीन हो जाता है उस अवस्था को सम्प्रज्ञात समाधि कहा जाता है
(२) असम्प्रज्ञात समाधि - इसको निर्वितर्क , निर्विचार और निर्बीज आदि नामों से जाना जाता है । जब चित्त ध्याता , ध्यान और ध्येय आदि से भी अतीत होकर अपने लक्ष्य में ही लीन हो जाता है ऐसी चरम अवस्था को असम्प्रज्ञात समाधि कहा जाता है ।
कैवल्य
योगदर्शन में मोक्ष को कैवल्य कहा जाता है ।
तद्भावात् संयोगाभावो हानं तद्दृशेः कैवल्यम् ।
अविद्या के अभाव से और संयोग के अभाव से स्पष्ट होने वाला कैवल्य है ।
तद्वैराग्याद् अपि दोषबीजक्षये कैवल्यम् ।
विशोका सिद्धि से जब वैराग्य उत्पन्न होता है तो समग्र राग आदि दोषों के कारण का क्षय हो जाने से कैवल्य प्राप्त होता है ।
सत्त्वपुरुषयोः शुद्धिसाम्ये कैवल्यम् इति ।
बुद्धि और पुरुष की शुद्धि की समानता होने से कैवल्य की प्राप्ति होती है ।
पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरुपप्रतिष्ठा वा ।
गुणो से जब पुरूष का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता तब विपरीत क्रम से गुणों का लय होना ही कैवल्य है अथवा द्रष्टा का अपने रुप में स्थित हो जाना कैवल्य है ।
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