व्याकरण एवं भाषाविज्ञान

 प्रमुख आचार्यो का परिचय - 

1 पाणिनि ( ५०० ई. पू. )

पाणिनि संस्कृत भाषा के सबसे बडे वैयाकरण हुए है । इनका जन्म तत्कालीन उत्तर भारत के गांधार में हुआ था । पाणिनि के गुरु का नाम उपवर्ष , पिता का नाम पणिन और माता का नाम दाक्षी था । इनके व्याकरण का नाम ' अष्टाध्यायी  ' है जिसमें ८ अध्याय और लगभग चार सहस्त्र सूत्र है । संस्कृत भाषा को व्याकरण सम्मत रुप देने में पाणिनि का योगदान अतुलनीय माना जाता है । अष्टाध्यायी मात्र व्याकरण ग्रन्थ नहीं हैं इसमें प्रकारांतर से तत्कालीन भारतीय समाज का पूरा चित्र मिलता है । उस समय के भूगोल , सामाजिक , आर्थिक , शिक्षा और राजनीतिक जीवन , दार्शनिक चिंतन , खान पान रहन, सहन आदि के प्रसंग स्थान . स्थान पर अंकित हैं ।

जीवनी एवं कार्य -

पाणिनि का जन्म , शालातुर नामक ग्राम में हुआ था । जहाँ काबुल नदी सिंधु में मिली है उस संगम से कुछ मील दूर यह गाँव था । उसे अब लाहौर कहते है । अपने जन्मस्थान के अनुसार पाणिनि शालातुरीय भी कहे जाते हैं । और अष्टाध्यायी में स्वयं उन्होने इस नाम का उल्लेख किया है । पाणिनि ने निरुक्त और व्याकरण की जो सामग्री पहले से थी उसका उन्होंने संग्रह और सूक्ष्म अध्ययन किया । इसका प्रमाण भी अष्टाध्यायी में है , जैसा शाकटायन , शाकल्य , भरद्वाज , गार्ग्य , शौनक , आपिशलि , गालव , और स्फोटायन आदि आचार्यो के मतों के उल्लेख से ज्ञात होता है । शाकटायन निश्चित रुप से पाणिनि से पूर्व के वैयाकरण थे , जैसा निरुक्तकार यास्क ने लिखा है । शाकटायन का मत था कि सब संज्ञा शब्द धातुओं से बनते है । पाणिनि की शिक्षा तक्षशिला विश्वविद्यालय में हुई है । कहा जाता हैं , जब वे अपनी सामग्री का संग्रह कर चुके तो उन्होंने कुछ समय तक एकांतवास किया और अष्टाध्यायी की रचना की । 

समयकाल - इनका समयकाल अनिश्चित तथा विवादित है । इतना तय है कि छठी सदी ईसा के पूर्व के बाद और चौथी सदी ईसापूर्व से पहले की अवधि में इनका अस्तित्व रहा होगा । ऐसा माना जाता है कि इनका जन्म पंजाब ( पाकिस्तान ) के शालातुर मे हुआ था जो आधुनिक मे पेशावर ( पाकिस्तान ) के नाम से जाना जाता है । इनका जिवनकाल 520 -460 ईसा पूर्व माना जाता है । 

आचार्य पाणिनि की रचनाऐं - 

आचार्य पाणिनि नें संस्कृत के रक्षण के लिए व्याकरण के पाँच ग्रन्थो की रचना की एवं एक काव्य लिखा -

(1) सूत्रपाठ - अष्टाध्यायी - इसमे  सूत्र हैं जो 8 अध्याय एवं प्रत्येक अध्याय 4-4 पाद यानि कुल 32 पाद में विभक्त हैं और कुल 4000 सूत्र है । 

(2) धातुपाठ - यह दश गणों मे विभक्त एवं लगभग 2000 धातुएं है ।

(3) गणपाठ - सूत्रपठित गणों का पाठ ।

(4) उणादिपाठ - यह भी सूत्र ही है । 

(5)   लिङ्गानुशासन - लिङ्ग निर्धारण विषय है । 

पाणिनि का काव्य - जाम्बवतीयकाव्यम् है ,। युधिष्ठिर मीमासक के कथनानुसार इनका द्विरुपकोष , नामक ग्रन्थ " इन्डिया आफिस पुस्तकालय ( लंडन ) " में सुरक्षित है । 

पाणिनि का संक्षिप्त परिचय -

जन्म ( 520 -460 ई. पू . ) शालातुरग्राम . मृत्यु - त्रयोदशी तिथि , माता दाक्षी , पणिनः , पिता - शालङ्किः व्यवसाय - वैयाकरणः कविः । राष्ट्रीयता - भारतीय , विधा - संस्कृतव्याकरण के सूत्र रचयिता , कृतियाँ - अष्टाध्यायी , धातुपाठ , गणपाठ , उणादिपाठ , लिङ्गानुशासनम् , काव्य - जाम्बवतीविजयम् 

2 कात्यायन ( 300 ई. पू .) 

वररुचि कात्यायन पाणिनीय सूत्रों के प्रसिद्ध वार्तिककार हैं । वररुचि कात्यायन के वार्तिक पाणिनीय व्याकरण के लिए अति महत्वशाली सिद्ध हुए हैं । वार्तिकों के आधार पर ही पीछे से पतंजलि ने महाभाष्य की रचना की । पुरुषोत्तम देव ने अपने त्रिकांडशेष अभिधानकोश में कात्यायन के ये नाम लिखे है - कात्य , पुनर्वसु , मेधाजित , और वररुचि । कात्य नाम गोत्रप्रत्यान्त है , महाभाष्य में उसका उल्लेख है । पुनर्वसु नाम नक्षत्र से संबंधीत है , भाषावृत्ति , में पुनर्वसु को वररुचि का पर्याय कहा गया है । मेधाजित का कहीं अन्यत्र उल्लेख नहीं मिलता । इसके अतिरिक्त , कथासरित्सागर और बृहत्कथामंजरी में कात्यायन वररुचि का एक नाम श्रुतधर , भी आया है । हेमचन्द्र एवं मेदिनी कोशों में भी कात्यायन केे वररुचि नाम का उल्लेख है । 

संभवतः इसी वररुचि कात्यायन ने वेदसर्वानुक्रमणी और प्रातिशाख्य की भी रचना की है । कात्यायन के बनाए कुछ भ्राजसंज्ञक श्लोकों की चर्चा भी महाभाष्य में की गई है । कैयट और नागेश के अनुसार भ्राजसंज्ञक श्लोक वार्तिककार के ही बनाए हुए है । कात्यायन ( 300 ई. पू . ) दक्षिणात्य वार्तिककार थे , प्रियतद्धिताः हि दाक्षिणात्याः पतंजलि । इनके काव्य के विषय में संकेत किया है । वाररुचं काव्यम् । कात्यायन पाणिनि और पतंजलि के मध्य श्रृखला जोडने वाले माने जाते है । 

कात्यायन की रचनाऐं - 

(१) कात्यायनस्मृति , (२) स्वर्गारोहणकाव्य , (३) उभयसारिकाभाग , (४) भ्राजश्लोक  

3. पतंजलि ( 185 ई . पू . )

पतंजलि गोनर्द ( गोंडा जिला उत्तर प्रदेश ) के निवासी थे , बाद में वे काशी में बस गए , थे य़े व्याकरणाचार्य पाणिनी के शिष्य थे । पतंजलि को शेषनाग का अवतार माना जाता है । इनकी माता का नाम गोणिका था । पतंजलि योगसूत्र के रचनाकार है । भारतीय साहित्य में पतंजलि के लिखे हुए तीन प्रमुख ग्रन्त मिलते है । योगसूत्र अष्टाध्यायी पर भाष्य और आयुर्वेद पर ग्रन्थ । कुछ विद्वानों का मत है कि ये तीनों ग्रन्थ एक ही व्यक्ति ने लिखे , अन्य की धारणा है कि ये विभिन्न व्यक्तियों की कृतियाँ है । पतंजलि ने पाणिनि के अष्टाध्यायी पर अपनी टीका लिखि जिसे महाभाष्य का नाम दिया । ( महा+भाष्य ( समीक्षा , टिप्पणी , विवेचना , आलोचना ) । 

जीवन - पतंजलि , शुङ्ग वंश के शासनकाल में थे । डाॅ भंडारकर ने पतंजलि का समय १८५ ई . पू . बोथलिक ने पतंजलि का समय २०० ईसा पूर्व एवं कीथ ने उनका समय १४० से १५० ईसा पूर्व माना है । पतंजलि पुष्यमित्र शुंग ( १९५ - १४२ ई . पू ) के शासनकाल में थे । उन्होनें पुष्यमित्र शुंग का अश्वमेध यज्ञ भी संपन्न कराया था । पतंजलि महान चिकित्सक थे और इन्हें ही चरक संहिता का प्रणेता माना जाता है । राजा भोज ने इन्हें तन के साथ मन का भी चिकित्सक कहा है । 

योगेन चित्तस्य पदेन वाचां मलं शरीरस्य च वैद्यकेन । 

योऽपाकरोत्तं प्रवरं मुनीनां पतंजलिं प्रांजलिरानतोऽस्मि ।। (भोज)

अर्थात् चित्त-शुद्धि के लिए योग ( योगसूत्र ) वाणी-शुद्धि के लिए व्याकरण ( महाभाष्य ) और शरीर-शुद्धि के लिए वैद्यकशास्त्र ( चरकसंहिता ) देनेवाले मुनिश्रेष्ठ पतंजलि को प्रणाम ।

पतंजलि की प्रमुख रचनाऐं 

(१) महाभाष्य (२) योगसूत्र (३) महानन्दकाव्य 

4 भर्तृहरि ( छठी शताब्दी ई . )

भर्तृहरि एक महान संस्कृत कवि थे । संस्कृत साहित्य के इतिहास में भर्तृहरि एक नीतिकार के रुप में प्रसिद्ध है । इनके शतकत्रय ( नीतिशतक , श्रृङ्गारशतक , वैराग्यशतक ) की उपदेशात्मक कहानियाँ भारतीय जनमानस को विशेष रुप से प्रभावित करती हैं । प्रत्येक शतक में सौ-सौ श्लोक हैं । बाद में इन्होने गुरु गोरखनाथ के शिष्य बनकर वैराग्य धारण कर लिया था इसलिये इनका एक लोकप्रचलित नाम बाबा भरधरी भी है ।  

जनश्रुति और परम्परा के अनुसार भर्तृहरि विक्रमसंवत् के प्रवर्तक सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के अग्रज माने जाते है । विक्रमसंवत् ईसवी सन् से ५६ वर्ष पूर्व प्रारम्भ होता है , जो विक्रमादित्य के प्रौढावस्था का समय रहा होगा । भर्तृहरि विक्रमादित्य के अग्रज थे , अतः इनका समय कुछ और पूर्व रहा होगा । विक्रमसंवत् के प्रारम्भ के विषय में भी विद्वानों में मतभेद हैं । कुछ लोग ईसवी सन् ७८ और कुछ लोग ईसवी सन् ५४४ में इसका प्रारम्भ मानते हैं । ये दोनों मत भी अग्राह्य प्रतीत होते है । फारसी ग्रन्थ कलितौ दिमनः में पंचतंत्र का एक पद्य शशिदिवाकर का भाव उद्धृत है । पंचतंत्र में अनेक ग्रन्थो के पद्यो का संकलन है । संभवतः पंचतंत्र में इसे नीतिशतक से ग्रहण किया गया होगा । फारसी ग्रंथ ५७१ ईसवी से ५८१ ई . के एक फारसी शासक के निमित्त निर्मित हुआ था । इसलिए राजा भर्तृहरि अनुमानतः ५५० ई० से पूर्व हम लोग के बीच आए थे । भर्तृहरि उज्जैयिनी के राजा थे । ये विक्रमादित्य उपाधि धारण करने वाले चन्द्रगुप्त द्वितीय के बडे भाई थे । इनके पिता का नाम चन्द्रसेन था । पत्नी का नाम पिंगला था जिसे वे अत्यन्त प्रेम करते थे । इन्होनें सुन्दर और रसपूर्ण भाषा में नीति , वैराग्य तथा श्रृङ्गार जैसे गूढ विषयों पर शतक-काव्य लिखे हैं । इस शतकत्रय के अतिरिक्त , वाक्यपदीय नामक एक उच्च श्रेणी का व्याकरण ग्रन्थ भी इनके नाम पर प्रसिद्ध है । कुछ लोग भट्टिकाव्य के रचयिता भट्टि से भी उनका ऐक्य मानते हैं । ऐसा कहा जाता है कि नाथपंथ के वैराग्य नामक उपपंथ के यह ही प्रवर्तक थे । चीनी यात्री इत्सिंग और ह्येनसांग के अनुसार इन्होंने बौद्ध धर्म ग्रहण किया था । 

भर्तृहरि की रचनाऐं -

वाक्यपदीय , नीतिशतक , श्रृङ्गारशतक , वैराग्यशतक , दीपिका टीका 

5. वामनजयादित्य ( सातवीं शताब्दी ) 

जयादित्यवामन संस्कृत के वैयाकरण थेें । काशिकावृत्ति जयादित्य और वामन की सम्मलित रचना है । हेमचन्द्र ने अपने शब्दानुशासन में व्याख्याकार जयादित्य को बहुत ही रुचिपूर्ण ढंग से स्मरण किया है । 

चीनी यात्री इत्सिंग ने अपनी भारत यात्रा के प्रसंग में जयादित्य का प्रभावपूर्ण ढंग से वर्णन किया है । जयादित्य के जनम मरण आदि वृत्तान्त के बारे में कोई भी परिमार्जित एवं पुष्कल ऐतिहासिक सामग्री नहीं मिलती है । तदनुसार जयादित्य का देहावसान सं.718 वि. के आस पास हुआ होगा । जयादित्य ने भारविकृत पद्यांश उद्धृत किया है । इस अनुमानिक तथ्य के आधार पर जयादित्य का सं. 650 से 700 वि. तक के मध्य अवस्थित होना माना जा सकता है । पाणिनि मुनि ने अष्टाध्यायी के आठ अध्यायों में व्याकरण सूत्रों को लिखा है । अष्टाध्यायी को सभी सम्प्रदाय के लोंगो ने समान रुप से अपनाया है । जयादित्य ने काशिका नाम से अष्टाध्यायी पर व्याख्या की है । काशी में इसकी सृष्टि हुई होगी , क्योकि काशिका का प्रधान अर्थ यही है ( काश्यां भवः काशिका ) कुशकाशावलंबन न्याय से हमको जयादित्य के बारें में सोचनें का अवसर मिलता है । सम्भव है कि जयादित्य काशीवासी हों । काशी आज भी विद्वानों एवं संस्कृत व्याकरण के पठन पाठन और व्याकरण ग्रन्थों की सृष्टि का प्रधान केन्द्र है । 

राजतंगिणी में जयापीड नामक राजा का नाम आया है , जो 667 शताब्दी में काश्मीर के सिंहासन पर बैठा था और जिसके एक मंत्री का नाम वामन था । कुछ लोग इसी जयापीड को काशिका का कर्ता मानते है । पर मैक्समूलर का मत है । कि काशिका जयादित्य काश्मीर के जयापीड से पहले हुआ है , क्योकि चीनी यात्री इत्सिंग ने 612 शताब्दी में अपनी पुस्तक में जयादित्य के वृत्तिसूत्र का उल्लेख किया है । इस विषय में इतना समझ रखना चाहिए के कल्हण के दिए हुए संवत् विल्कुल ठीक नहीं है । कााााशिका के प्रकाशक बालशास्त्री का मत है कि काशिका का कर्ता बौद्ध था , क्योकि उसने मङ्गला चरण नहीं लिखा है और पाणिनि के सूत्रों में फेरफार किया । 

बहुत से वैयाकरण प्रायः काशिका को सम्पूर्ण रुप से जयादित्य का बनाया हुआ नहीं मानते । पुरूषोत्तमदेव हरिदत्त आदि विद्वानों ने भाषावृत्ति , पदमंजरी , अमरटीका , सर्वस्व , अष्टाङ्गहृदय ( सर्वाङ्ग सुंदरी टीका ) में इसका उल्लेख किया है । कुछ विद्वान जयादित्य और वामन को काशिका का निर्माता मानते है । काशिका के समान भर्त्रीश्वर , जयंत , मैत्रेयरक्षित , आदि की अष्टाध्यायी व्याख्याएं थी । उनमें से कम वृत्तियाँ पाई जाती है । काशिका के प्रभाव में नवीन प्राचीन सभी वृत्तियाँ विलीन है । काशिका पर जिनेन्द्रबुद्धि कृत काशिका विवरण पंजिका  ( न्यास और हरदत्त मिश्र ने पदमंजरि ग्रन्थ लिखा है । जिनेन्द्र कृत ग्रन्थ न्यास नाम से प्रसिद्ध है । यह बहुत विशालकाय कई भागों वाला ग्रन्थ है । न्यास ने सर्वथा कासिका के समर्थन में प्रयास किया है । परन्तु पदमंजरी में कैयट ( महाभाष्य के टीकाकार ) का अनुसर है . और अनावश्यक सामग्री को विडंवित किया गया है । 

6. भट्टोजिदीक्षित ( सोलहवीं शताब्दी )

भट्टोजी दीक्षित १६वीं शताब्दी में उत्पन्न संस्कृत वैयाकरण थे जिन्होंने सिद्धान्त कौमुदी की रचना की । इनका निवास स्थान काशी था । इन्होने शेषकृष्ण से व्याकरण और धर्मशास्त्र का अध्ययन किया वेदान्त का नृसिंहाश्रम  , मीमांसा का अपय्यदीक्षित से अध्ययन किया । इनके शिष्य वरदराज भी व्याकरण के महान पण्डित हुए । 

पाणिनीय व्याकरण के अध्ययन की प्राचीन परिपाटी में पाणिनीय सूत्रपाठ के क्रम को आधार माना जाता था । यह क्रम प्रयोगसिद्धि की दृष्टि से कठिन था क्योंकि एक ही प्रयोग का साधन करने के लिए विभिन्न अध्यायों के सूत्र लगाने पडते थे । इस कठिनाई को देखकर ऐसी पद्धति के अविष्कार की आवश्यकता पडी जिसमें प्रयोगविशेष की सिद्धि के लिए आवश्यक सभी सूत्र एक जगह उपलब्ध हो । भट्टोजिदीक्षित ने प्रक्रिया कौमुदी के आधार पर सिद्धान्तकौमुदी की रचना की  । इस ग्रन्थ पर उन्होंने स्वयं प्रौढमनोरमा टीका लिखी । पाणिनीय सूत्रो पर अष्टाध्यायी क्रम से एक अपूर्ण व्याख्या , शब्दकौस्तुभ तथा वैयाकरणभूषणसार कारिका भी इनके ग्रन्थ है । इनकी सिद्धान्त कौमुदी लोकप्रिय है । 

भट्टोजिदीक्षित का संक्षिप्त परिचय - 

पिता - लक्ष्मीधरभट्ट = भ्राता - रङ्गोजीभट्ट = गुरु - शेषकृष्ण = पुत्र - भानुदीक्षित ( रामाश्रय ) = भ्रातृपुत्र - कौण्डभट्ट = पौत्र - हरिदीक्षित

भट्टोजिदीक्षित की रचनाऐं - 

(१) सिद्धान्त कौमुदी (२) प्रौणमनोरमा (३) शब्दकौस्तुभ (४) वैयाकरणभूषणकारिका (५) तत्वकौस्तुभ वेदान्त 

(६) त्रिस्थलीसेतु ( धर्मशास्त्र ) (७) तिथिनिर्णयधर्मशास्त्र (८) प्रवरनिर्णय धर्मशास्त्र (९) चतुर्विंशतिमतव्याख्या धर्मशास्त्र 

सिद्धान्तकौमुदी की प्रमुख टीकाएँ -

तत्वबोधिनी - ज्ञानेन्द्र सरस्वती - 

बालमनोरमा - वासुदेव दीक्षित -

 प्रौढमनोरमा - भट्टोजिदीक्षित -

 लघुशब्देन्दु शेखर - नागेशभट्ट  -

7. नागेशभट्ट ( सत्रहवीं शताब्दी ) 

नागेशभट्ट ( 1673-1743 ) अठारवीं सदी के पूर्वार्द्ध । इनके पिता का नाम - शिवभट्ट तथा माता - सती देवी और गुरु का नाम - हरिदीक्षित था । नागेश महाराष्ट्रीय ब्राह्मण थे । प्रयाग के समीपस्थ श्रृंगवेरपुर के राजा रामसिंह से ये सम्मानित हुए । नागेश व्याकरण के अतिरिक्त साहित्य शास्त्र योगशास्त्र , धर्मशास्त्र आदि के भी विद्वान थे । इन्होनें व्याकरण ग्रन्थों पर कई टीकाएँ लिखी जिसमें - लघुशब्देन्दुशेखर ( सिद्धान्तकौमुदी की टीका ) वैय्याकरणसिद्धान्तमंजूषा , परिभाशेन्दुशेखर , बहुत प्रसिद्ध है । इनके उपर तात्विक दृष्टि से तन्त्रसार का अधिक प्रभाव पडा़ है । व्याकरण को नव्यन्याय और तार्किकता के साथ समन्वित करने का आरम्भ नागेश भट्ट ने किया । अपने गुरू हरिदीक्षित से इन्होनें १८ बार व्याकरण पढा़ तथा अध्ययन किया ।।

।। नागेशभट्ट की रचनाऐं ।।

(१) लघुशब्देन्दुशेखर (२) वैय्याकरणसिद्धान्तमंजूषा (३) परिभाशेन्दुशेखर (४) उद्योत टीका (५) लघुमञ्जूषा (६) परमलघुमञ्जूषा (७) स्फोटवाद (८) महाभाष्य प्रत्याख्यानसंग्रह (९) बृहच्छब्देन्दुशेखर (१०) रसमञ्जरी टीका ।।

8 . जैनेन्द्रव्याकरण ( छठी शताब्दी ) 

जैनेन्द्र व्याकरण दिगम्बर सम्प्रदाय जैन आचार्य देवनन्दी की रचना हैं । इस पर अभयनन्दी की वृत्ति प्रसिद्ध है । उदाहरण में जैन संप्रदाय के शब्द मिलते हैं । जैनेन्द्र व्याकरण परम्परा के उपलब्ध समस्त व्याकरणों में सबसे प्रचीन है । देवनन्दी पूज्यपाद का  जैनेन्द्र व्याकरण है । इस व्याकरण का आधार पाणिनि व्याकरण , और चान्द्रव्याकरण है । जिनेन्द्रेण प्रोक्तं जैनेन्द्रम् । इसमें सबसे प्राचीन आचार्यों का उल्लेख है । चन्द्रय्य कवि ने कन्नड़ भाषा में पूज्यपाद का जीवनचरित लिखा । पिता - माधवभट्ट , माता , - श्रीदेवी ग्राम - कोले कर्नाटक । गणरत्नमहोदधि के कर्ता वर्धमान ने इन्हें दिग्वस्त्र के नाम से स्मरण किया है । इन्होनें एकशेषप्रकरण रहित व्याकरण की रचना सर्वप्रथम की थी - देवोपग्यमेकशेषव्याकरणम् । जैनेन्द्रव्याकरण को पञ्चाध्यायी कहा जाता है । पूज्यपाद का शिष्य दुर्विनीत ।। 


 



  





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