तस्मै पाणिनये नमः
(१) येन धौता गिरः पुंसां विमलैः शब्दवारिभिः । तमश्चाज्ञाननजं भिन्नं तस्मै पाणिनये नमः ।।
(२) अज्ञानान्धस्य लोकस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै पाणिनये नमः ।।
'' नत्वा सरस्वतीं देवीं शुद्धां गुण्यां करोम्यहम् । पाणिनीय प्रवेशाय लघुसिद्धान्त कौमुदीम्'' ।।
अन्वयः- अहम् वरदराज शुद्धां गुण्या सरस्वतीं देवीं नत्वा पाणिनीय-प्रवेशाय लघुसिदान्तकौमुदीं करोमि।
हिन्दी अर्थ - मैं (वरदराज) शुद्ध तथा गुणो से युक्त सरस्वती देवी को नमस्कार करके, पाणिनि के बनाये व्याकरण शास्त्र में बालकों के प्रवेश के लिये 'लघुसिद्धान्तकौमुदी' की रचना करता हूँ ।
अइउण् । ऋलृक् । एओङ् । ऐऔच् । हयवरट् । लण् । ञमङणनम् । झभञ् । घढधष् । जबगडदश् । खफछठथचटतव् । कपय् । शषसर् । हल् । (14 सूत्र )
इति माहेश्वराणि सूत्राण्यणादिसंज्ञार्थानि । एषामन्त्या इतः । हकारादिष्वकार उच्चारणार्थः । लण्मध्ये त्वित्संज्ञकः ।
हिन्दी अर्थ - ये चौदह सूत्र माहेश्वर अर्थात् महादेव से आये हुए हैं। इनका प्रयोजन अण् आदि संज्ञा करना है। इन के अन्तिम वर्ण इत् संज्ञक होते हैं । हकार आदियों में अकार उच्चारण के लिये हैं । परन्तु 'लण्' सूत्र में वह इत् संज्ञक हैं ।
१. हलन्त्यम् ।। १ . ३ . ३ . ।।
उपदेशेऽन्त्यं हलित्स्यात् । उपदेश आद्योच्चारणम् । सूत्रेष्वदृष्टं पदं सूत्रान्तरादनुवर्तनीयं सर्वत्र ।
हिन्दी अर्थ - उपदेश के अन्त्य हल् इत् संज्ञक होते हैं । आद्यों के उच्चारण को अथवा धातु आदि के आद्य उच्चारण को उपदेश कहते है। सूत्रो में जो पद न हो ( पर वृत्ति में दिखाई दे) वह पद सर्वत्र पिछले (या कही-कही अगले) सूत्रों से ले लेना चाहिये।
२. अदर्शनं लोपः ।। १ . १. ६० ।।
प्रसक्त्स्यादर्शनं लोपसंज्ञं स्यात् ।
हिन्दी अर्थ - विद्यमान का अदर्शन लोप संज्ञक होता है ।
३. तस्य लोपः ।। १ .३ . ९ ।।
तस्येतो लोपः स्यात् । णादयोऽणाद्यर्थाः ।
हिन्दी अर्थ - उस इत संज्ञक का लोप होता हैं। ण् आदि 'अण्' आदियों के लिये हैं ।
४. आदिरन्त्येन सहेता ।। १ . १ . ७१ ।।
अन्त्येनेता सहित आदिर्मध्यगानां स्वस्य च संज्ञा स्यात् । यथाऽणिति अ इ उ वर्णानां संज्ञा । एवमच् हल् अलित्यादयः ।
हिन्दी अर्थ - अन्त्य इत् से युक्त आदि वर्ण, मध्यगत वर्णों की तथा अपनी संज्ञा हो । जैसे- 'अण्' यह 'अइउ' वर्णों की संज्ञा है। इसी प्रकार अक्, अच्, हल्, अल् आदि भी जान लेने चाहिये।
५. ऊकालोऽज्झ्रस्वदीर्घप्लुतः ।। १ . २ . २७ ।।
उश्च ऊश्च ऊ३श्च वः वां काल इव कालो यस्य सोऽच् क्रमाद् ह्रस्वदीर्घप्लुतसंज्ञः स्यात् । स प्रत्येकमुदात्तादि भेदेन त्रिधा ।
हिन्दी अर्थ - एकमात्रिक, द्विमात्रिक तथा त्रिमात्रिक उकार के उच्चारण काल के सदृश जिस अच् का उचारण काल हो, वह अच् क्रमशः हस्व-दीर्घं-प्लुत संज्ञक होता है।
उच्चैरुदात्तः ।। १.२.२९ ।।
हिन्दी अर्थ - भागों वाले तालु आदि स्थानों में जो अच् उपर वाले भाग से बोला जाय वह उदात्त होता है ।
नीचैरनुदात्तः ।। १.२.३० ।।
हिन्दी अर्थ - भागों वाले तालु आदि स्थानों में जो अच् नीचे वाले भाग से बोला जाय वह अनुदात्त संज्ञक होता है ।
समाहारः स्वरितः ।। १.२.३१ ।।
( उदात्तनुदात्तत्वे वर्णधर्मौं समाह्रियेते यस्मिन् सोऽच् स्वरितसंज्ञः स्यात् )
हिन्दी अर्थ - उदात्त और अनुदात्त वर्णों के धर्म जो और उदात्तत्व अनुदात्तत्व दोनों जिस अच् में विद्यमान हो वह अच् 'स्वरित' होता है।
स नवविधोऽपि प्रत्येकमनुनासिकत्वाननुनासिकत्वाभ्यां द्विधा ।
हिन्दी अर्थ - वह नौ प्रकार का होते हुए पुनः प्रत्येक अनुनासिक और यो अननुनासिक भेद से दो प्रकार का होता है ।
मुखनासिकावचनोऽनुनासिकः ।। १.१.८ ।।
मुख सहित नासिकयोच्चार्यमाणो वर्णोऽनुनासिकसंज्ञः स्यात् । तदित्थम् - अ इ उ ऋ एषां वर्णानां प्रत्येकमष्टादश भेदाः । लृ - वर्णस्य द्वादश तस्य दीर्घाभावात् । एचामपि द्वादश , तेषां ह्रस्वाभावात् ।।
हिन्दी अर्थ - मुख सहित नासिका से बोला जाने वाला वर्ण 'अनुनासिक' संज्ञक होता हैं । इस प्रकार-'अ, इ, उ, ऋ' इन वर्णों में प्रत्येक के अठारह भेद हो जाते हैं । 'ऌ' वर्ण के दीर्घ न होने से बारह भेद हो जाते हैं ।
तुल्यास्यप्रयत्नं सवर्णम् । १.१.९ ।
ताल्वादिस्थानमाभ्यन्तरप्रयत्नश्चेत्येतद् द्वयं यस्य येन तुल्यं तन्मिथः सवर्ण - संज्ञं स्यात् ।।
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