।। ब्राह्मण साहित्य ।।
ब्राह्मण शब्द की व्युत्पत्ति - ब्राह्मण ग्रन्थों के अर्थ में 'ब्राह्मण' शब्द विभिन्न तीन अर्थों में बनता है। 'ब्रह्मन्' शब्द से 'अण्' प्रत्यय करके 'ब्राह्मण' शब्द बना है। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार ब्रह्मन् शब्द के तीन अर्थ हैं-
1. 'मंत्र' ब्रह्म वै मन्त्रः । (शत. 7. 1.1.5)
2. 'यज्ञ' - ब्रह्म यज्ञः । (शत. 3. 1.4.15 )
3. पवित्र ज्ञान या रहस्यात्मक विद्या ।
अर्थात् जिन ग्रन्थों में वैदिक रहस्यों का उद्घाटन किया गया है, उन्हें 'ब्राह्मण' कहते हैं । ब्राह्मण ग्रन्थों में यज्ञों के तीन प्रकार के आध्यात्मिक, आधिदैविक और वैज्ञानिक स्वरूप को प्रस्तुत किया गया है । "श्री सत्यव्रत सामश्रमी' ने 'ब्राह्मण' शब्द की 'प्रोक्त (कथित, वर्णित) अर्थ में अण् प्रत्यय करके 'ब्राह्मण' शब्द की सिद्धि की है । अतः वेदमंत्रों की व्याख्या और विनियोग प्रस्तुत करने वाले ग्रन्थ को 'ब्राह्मण' कहते हैं ।
ब्राह्मण का अर्थ- "ग्रन्थ" अर्थ में ब्राह्मण शब्द नपुंसकलिंग है। मीमांसा-दर्शन के अनुसार मंत्रभाग या संहिताग्रन्थों के अतिरिक्त वेद- भाग को 'ब्राह्मण कहते हैं । 'भट्टभास्कर' के अनुसार कर्मकाण्ड और मंत्रों के व्याख्यान ग्रंथों को ब्राह्मण कहते हैं- "ब्राह्मणं नाम कर्मणस्तन्मन्त्राणां व्याख्यानग्रन्थः " । (भट्टभास्कर, तैत्तिरीय सं. 1.5.1 भाष्य) वाचस्पति मिश्र के अनुसार 'ब्राह्मण' उन ग्रन्थों को कहते हैं जिनमें निर्वचन (निरुक्ति) मंत्रों का विविध यज्ञों में विनियोग, प्रयोजन, प्रतिष्ठान (अर्थवाद) और विधि का वर्णन होता है ।
वाचस्पति मिश्र ने ब्राह्मण के चार प्रयोजनों का वर्णन किया है-
1. निर्वचन 2. विनियोग 3. प्रतिष्ठान 4. विधि ।
"नैरुक्त्यं यत्र मन्त्रस्य विनियोगः प्रयोजनम् ।
प्रतिष्ठानं विधिश्चैव ब्राह्मणं तदिहोच्यते " ।। ( वाचस्पति मिश्र)
1. निर्वचन - शब्दों की निरुक्ति बताना । किसी वस्तु के नाम का आधार क्या है, तथा किस धातु से वह नाम बना है ।
2. विनियोग - किस यज्ञ की किस विधि में किस कार्य के लिए कौन सा मंत्र निर्दिष्ट है, इसका विशद वर्णन |
3. प्रतिष्ठान - प्रतिष्ठान का अभिप्राय "अर्थवाद" है । अर्थात् यज्ञ की प्रत्येक विधि का क्या महत्त्व है, उसके करने से क्या लाभ हैं, एवं उसके न करने से क्या हानियाँ हैं ।
4. विधि - यज्ञ और उससे सम्बद्ध कार्यकलाप का विस्तृत विवरण बताना। मीमांसादर्शन के भाष्य में 'शबरस्वामी' ने इन्हीं विषयों को कुछ और विस्तृत करते हुए ब्राह्मण ग्रन्थों के प्रतिपाद्य विषयों की संख्या दस बताई है ।
1. हेतु 2. निर्वचन 3. निन्दा 4. प्रशंसा 5. संशय 6. विधि 7. परक्रिया 8. पुराकल्प 9. व्यवधारण कल्पना
10. उपमान ।।
" हेतुर्निर्वचनं निन्दा प्रशंसा संशयो विधिः । परक्रिया पुराकल्पो व्यवधारण कल्पना । उपमानंदशैतेतु विधयो ब्राह्मणस्यवै" ।। (मीमांसासूत्र, शाबर भाष्य 2.18)
1. हेतु- यज्ञ में कोई कार्य क्यों किया जाता है, इसका कारण बताना।
2. निर्वचन- शब्दों की निरुक्ति बताना। जैसे- नद् धातु से नदी शब्द ।
3. निन्दा- यज्ञ में निषिद्ध कर्मों की निन्दा । जैसे यज्ञ में असत्य- भाषण निषेध।
4. प्रशंसा- यज्ञ में विहित कार्यों की प्रशंसा करना । जैसे- 'यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म' अर्थात् यज्ञ सर्वश्रेष्ठ कर्म है, अतः अवश्य करना चाहिए।
5. संशय- किसी यज्ञीय कर्म के विषय में कोई सन्देह उपस्थित हो तो उसका निवारण करना।
6. विधि- विधि का अभिप्राय यज्ञिय क्रियाकलाप की पूरी विधि का विशद निरूपण करना है।
7. परक्रिया- परक्रिया का भाव परार्थक क्रिया, परहित या परोपकार वाले कर्तव्यों का वर्णन करना है।
8. पुराकल्प- यज्ञ की विभिन्न विधियों के समर्थन में किसी प्राचीन आख्यान या ऐतिहासिक घटना का वर्णन करना। जैसे- हरिश्चन्द्रोपाख्यान में प्रसिद्ध 'चरैवेति, चरैवेति' आदि निर्देश।
9. व्यवधारण-कल्पना- परिस्थिति के अनुसार कार्य की व्यवस्था करना ।
10. उपमान- कोई उपमा या उदाहरण देकर वर्ण्य विषय की पुष्टि करना । जैसे- ऐतरेय ब्राह्मण में 'चरैवेति' की पुष्टि में सूर्य का उदाहरण प्रस्तुत किया गया है।
।। ब्राह्मणग्रन्थों का वर्गीकरण- ।।
(क) ऋग्वेद - ऐतरेय, शांखायन (कौषीतकि)
(ख) शुक्ल यजुर्वेद- शतपथ,
(ग) कृष्ण यजुर्वेद- तैत्तिरीय,
(घ) सामवेद- पंचविंश (ताण्ड्य महाब्राह्मण या प्रौढ़), षड्विंश/अद्भुत, सामविधान, आर्षेय, जैमिनीय (तलवकार), जैमिनीय आर्षेय, जैमिनीय उपनिषद् (छान्दोग्य), संहितोपनिषद, देवताध्याय, मंत्र (उपनिषद्), वंश ।
(ङ) अथर्ववेद- गोपथ,
अनुपलब्ध ब्राह्मण ग्रन्थ = 16,
'डॉ. भट्टकृष्ण घोष' ने 16 अनुपलब्ध ब्राह्मणों के उद्धरण एकत्र किए हैं, जिनमें शाट्यायन ब्राह्मण महत्वपूर्ण है।1.
।। ऋग्वेदीय ब्राह्मण ।।
(क) ऐतरेय ब्राह्मण- रचयिता- (महिदास ऐतरेय), पिता- याज्ञवल्क, माता- इतरां (याज्ञवल्क की द्वितीय पत्नी) । “महिदासैतरेयर्षिसंदृष्टं ब्राह्मणं तु यत् । आसीद विप्रो यज्ञवल्को द्विभार्यस्तस्य द्वितीयामितरेति चाहुः” । (ऐत. व्रा. सुखप्रदा वृत्ति) । अध्याय- 40, पंचिकाएं - 8, खंड/'कण्डिका' = 285, पाँच अध्यायों की एक पंचिका होती है । ऋग्वेद में होतृ (होता) नामक ऋत्विज् यज्ञ के कार्यकलापों का वर्णन करता है, अत: इस ब्राह्मण में होता-विषयक पक्ष की विशेष मीमांसा की गयी है ।
।। होता मण्डल के 7 ऋत्विज ।।
(1) होता (2) मैत्रावरुण (3) ब्राह्मणांच्छसी (4) नेष्टा (5) पोता (6) अच्छावाक (7) आग्नीध्र
ये सभी सोमयागों के तीनों सवनों प्रातः, मध्याह्न और सायंकालीन यज्ञ में ऋग्वेद के मंत्रों का पाठ करते थे ।
।। मुख्य आख्यान एवं विषय ।।
(1) शुनःशेप आख्यान, (2) नामनेदिष्टोपाख्यान, (3) चरैवेतिगान,
।। ऐतरेय ब्राह्मण महत्व ।।
• यज्ञ का महत्त्व (ब्रह्म वै यज्ञः) • विष्णु का देवों में महत् • आचार शिक्षा • दश प्रकार की शासनप्रणाली
• वैज्ञानिक तथ्य • राजा के द्वारा देश भक्ति की शपथ लेना • यज्ञों का विभाजन • अतिथि सत्कार
• दीक्षित क्षत्रिय और वैश्य का भी ब्राह्मण बनाना । • चरैवेति की शिक्षा • भौगोलिक सन्दर्भ
• चक्रवर्ती महाराज
।। (ख) शांखायन/कौषीतकि ।।
अध्याय = 30, खण्ड = 4-17, सम्पूर्ण खण्ड = 266, शांखायन ने गुरु का नाम अमर रखने के लिए इसका नाम (कौषितकी ब्राह्मण) रखा। शांखायन 'कोषितकि' के शिष्य थे।
।। 2. यजुर्वेदीय ब्राह्मण ।।
।। (1) शुक्लयजुर्वेद- (क) शतपथ ब्राह्मण ।।
“शतं पन्थानों मार्गा नामाध्याया यस्य तत् शतपथम्” जिसमें सौ अध्याय-रूपी मार्ग हैं, उसे शतपथ कहते हैं।
रचयिता- याज्ञवल्क्य वाजसनि के पुत्र होने से- वाजसनेय। याज्ञवल्य के पिता वाजसनि के विषय में सायण ने लिखा है कि वे अन्न-दाता के रूप में विख्यात थे, अत: उनका नाम वाजसनि पड़ा । वाज- अन्न, सनि- दाता।
अध्याय= माध्यन्दिन में = 100, काण्व में = 104
।। (1) माध्यन्दिन ।।
काण्ड = 14, अध्याय=100, ब्राह्मण = 438, कंण्डिकाएं = 7624,
।। (2) काण्व ।।
काण्ड = 17, अध्याय = 104, ब्राह्मण=435, कंण्डिकाएं 6806, सम्पूर्ण ग्रन्थ 14 भागों में विभक्त है।
।। मुख्य आख्यान एवं विषय ।।
(1) पुरुरवा उर्वशी, (2) दुष्यन्त शकुन्तला, (3) जलप्लावन, (4) मन और वाणी का विवाद ।
।। विशिष्ट सन्दर्भ ।।
(1) याज्ञवल्क्य और शांडिल्य, (2) यज्ञ का महत्व, (3) यज्ञ का आध्यात्मिक रूप, (4) सांस्कृतिक और ऐतिहासिक तत्व, (5) महत्वपूर्ण आख्यान, (6) स्वाध्याय प्रशंसा,
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