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प्रमुख भारतीय दर्शनो का सामान्य परिचय

प्रमुख भारतीय दर्शनो का सामान्य परिचय 

वैदिक काल के ऋषियों ने हिन्दुओं के सबसे प्राचीन दर्शन की नींव रखी । आरूणि - और याज्ञवल्क्य ( ८ वीं शताब्दी ईसापूर्व ) आदि प्राचीनतम हिन्दू दार्शनिक है । भारत में दर्शन उस विद्या को कहा जाता है जिनके द्वारा तत्व का ज्ञान हो सके । तत्व दर्शन या दर्शन का अर्थ है तत्व का ज्ञान मानव के दुःखों के निवृत्ति के लिए तथा तत्व ज्ञान कराने के लिए ही भारत में दर्शन का जन्म हुआ है । हृदय की गाँठ तभी खुलती है और शोक तथा संशय तभी दूर होते है जब एक सत्य का दर्शन होता है । मनु का कथन हैं कि सम्यक् दर्शन प्राप्त होने पर कर्म मनुष्य को बन्धन में नहीं डाल सकता है तथा जिनको सम्यक् दृष्टि नहीं है वे ही संसार के महामोह और जाल में फंस जाते है । भारतीय ऋषियों ने जगत के रहस्य को अनेक कोणों से समझने की कोशिश की है । दर्शन ग्रन्थ को दर्शन शास्त्र भी कहते है ।  यह शास्त्र शब्द शासु अनुशिष्टौ , धातु से निष्पन्न हैं । भारतीय दर्शन किस प्रकार और किन परिस्थितियों में अस्तित्व में आया . कुछ भी प्रमाणित रूप से नहीं कहा जा सकता । किन्तु इतना आवश्य स्पष्ट है कि उपनिषद् काल में दर्शन एक पृथक् सास्त्र के रुप में विकसित होने लगा था । तत्वों के अन्वेषण की प्रवृत्ति भारत वर्ष में उस सुदूर काल से है , जिसे हम वैदिक सुग के नाम से पुकारते है । ऋग्वेद के अत्यन्त प्राचीन युग से ही भारतीय विचारों में द्विविध प्रवृत्ति और द्विविध लक्ष्य के दर्शन हमें होते हैं प्रथम प्रवृत्ति प्रतिभा या प्रज्ञामूलक है तथा द्वितीय प्रवृत्ति तर्कमूलक हैं । प्रज्ञा के बल से ही पहली प्रवृत्ति तत्वों के विवेचन में कृतकार्य होती है । और दूसरी प्रवृत्ति तर्क के सहारे तत्त्वों के समीक्षण में समर्थ होती है । लक्ष्य भी आपम्भ से ही दो प्रकार के थे - धन का उपार्जन तथा ब्रह्म का साक्षात्कार । प्रज्ञामूलक और तर्क - मूलक प्रवृत्तियों के परस्पर सम्मिलन से आत्मा के औपनिषदिष्ठ तत्त्वज्ञान का स्फुट आविर्भाव हुआ । उपनिषदों के ज्ञान का पर्यवसान आत्मा और परमात्मा के एकीकरण को सिद्ध करने वाले प्रतिभामूलक वेदान्त में हुआ । भारतीय मनीषियों के उर्वर मस्तिष्क से जिस कर्म ज्ञान और भक्तिमय त्रिपथगा का प्रवाह उद्भूत हुआ उसने दूर - दूर से मानवों के आध्यात्मिक कल्मष को धोकर उन्हें पवित्र नित्य , शुद्ध - बुद्ध और सदा स्वच्छ बनाकर मानवता के विकास में योगदान दिया है । इसी पतितपावनी धारा को लोग दर्शन के नाम से पुकारते हैं । अन्वेषकों का विचार है कि इस शब्द का वर्तमान अर्थ में सबसे पहला प्रयोग वैशेषिक दर्शन में हुआ । 

दर्शन शब्द की व्युत्पत्ति -

पाणिनीय व्याकरण शास्त्र के अनुसार दर्शन शब्द दृशिर् प्रेक्षणे धातु से करण अर्थ में ल्युट् प्रत्यय करने से निष्पन्न होता है । अतएव दर्शन शब्द का अर्थ दृष्टि या देखना , जिसके द्वारा देखा जाय या जिसमें देखा जाय  होगा । दर्शन शब्द का शब्दार्थ केवल देखना या सामान्य देखाना ही नहीं हैं । इसीलिए पाणिनि ने धात्वर्थ में प्रेक्षण शब्द का प्रयोग किया है । प्रकृष्ट ईक्षण , जिसमें अन्तश्चक्षुओं द्वारा देखना या मनन करके सोपपत्तिक निष्कर्ष निकालाना ही दर्शन का अभिधेय हैं । इस प्रकार के प्रकृष्ट ईक्षण के साधन और फल दोनों का नाम दर्शन हैं । जहाँ पर इन सिद्धान्तों का संकलन दर्शन , मीमांसा दर्शन आदि -आदि ।

दर्शन शब्द का अर्थ -

दृश्यते अनेन इति दर्शनम् । अर्थात् जिसके द्वारा देखा जाए । देखने की प्रक्रिया दो प्रकार की होती है । 

(1) द्रष्टा - द्रष्टा की क्रिया नित्यदृष्टि 

(2) अन्तःकरण - इन्द्रिय से सम्बन्ध अन्तःकरण को ही दर्शन कहा जा सकता  हैं । जो कि दर्शन का लौकिक अर्थ है । एकमेव दर्शनं ख्यातिरेव दर्शनम् , यह दर्शन का रुढ़ अर्थ प्रधान होता है । क्योंकि व्युत्पत्ति के अर्थ की अपेक्षा रूढ़ अर्थ प्रधान होता है । अतः दर्शन शब्द दर्शनशास्त्र के अर्थ में ही प्रचलित है । दर्शन के क्षेत्र में मुख्यरूप से तत्व के स्वरूप , ज्ञान , ज्ञान के साधन ज्ञान की प्रमाणीकता आदि तथा आचार के विभिन्न बिन्दुओं यथा कर्म कर्मफल कर्मस्वातन्त्र्य आदि का विशेष अध्ययन किया जाता हैं । इस प्रकार दर्शन वह विधा है जिसके द्वारा तत्त्व ज्ञान एवं आचार सम्बन्धी विषयों का अध्ययन कर संसार का वास्तविक ज्ञान प्राप्त किया जाता है । 

भारतीय दर्शन का प्रतिपाद्य विषय  ।।

दर्शनों का उपदेश वैयत्तिक जीवन के सम्मार्जन और परिष्करण के लिए ही अधिक उपयोगी हैं । बिना दर्शनों के आध्यात्मिक पवित्रता एवं उन्नयन होना दुर्लभ हैं । दर्शन शास्तर ही हमें प्रमाण और तर्क के सहारे अन्धकार में दीपज्योति प्रदान करके हमारा मार्ग - दर्शन करनें में समर्थ होता हैं । गीता के अनुसार किं कर्मं किमकर्मेति कवयोप्यत्र मोहिताः " ( संसार में करणीय क्या हैं और अकरणीय क्या हैं इस विषय में विद्वान् भी अच्छी तरह नहीं जान पाते ) परम लक्ष्य एवं पुरूषार्थ की प्राप्ति दार्शनिक ज्ञान से ही संभव हैं , अन्यथा नहीं । दर्शन द्वारा विषयों को हम संक्षेप में दो वर्गों में रख सकते है । लौकिक और अलौकिक अथवा मानवी (सापेक्ष) और आध्यात्मिक(निरपेक्ष)। दर्शन या तो विस्तृत सृष्टि प्रपंच के विषय में सिद्धान्त या आत्मा के विषय में हमसे चर्चा करता है। इस प्रकार दर्शन के विषय जड़ और चेतन दोनों ही हैं। प्राचीन ऋग्वैदिक काल से ही दर्शनों के मूल तत्त्वों के विषय में कुछ न कुछ संकेत हमारे आर्ष साहित्य में मिलते हैं।

प्रमुख दर्शनशास्त्रों के प्रथम सूत्र-

पूर्वमीमांसा-  'अथातो धर्मजिज्ञासा' ।

वेदान्तसूत्र –  'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा'।

वैशेषिकसूत्र -  'अथातो धर्मं व्याख्यास्यामः । 

योगसूत्र -  'अथ योगानुशासनम्'।

सांख्यसूत्र -  'अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्तपुरुषार्थः’। 

न्यायसूत्र-  'प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितण्डाहेत्वाभासच्छलजातिनिग्रहस्थानानाम्तत्त्वज्ञानान्निः श्रेयसाधिगमः'।

भारतीय दर्शन का विकास-

वेदों में जो आधार तत्त्व बीज रूप में बिखरे दिखाई पड़ते थे, वे ब्राह्मणों में आकर कुछ उभरे; परन्तु वहाँ कर्मकाण्ड की लताओं के प्रतानों में फँसकर बहुत अधिक नहीं बढ़ पाये। आरण्यकों में ये अंकुरित होकर उपनिषदों में खूब पल्लवित हुए। दर्शनों का विकास जो हमें उपनिषदों में दृष्टिगोचर होता है, आलोचकों ने उसका श्रीगणेश लगभग दौ सौ वर्ष ईसा पूर्व स्थिर किया है। महात्मा बुद्ध से यह प्राचीन हैं। इतना ही नहीं विद्वानों ने सांख्य, योग और मीमांसा को भी बुद्ध से प्राचीन माना है। संभव है कि ये दर्शन वर्तमान रूप में उस समय न हों, तथापि वे किसी रूप में अवश्य विद्यमान थे। वैशेषिकदर्शन भी शायद बुद्ध से प्राचीन ही है; क्योंकि जैसा आज के युग में न्याय और वैशेषिक समान तत्र समझे जाते हैं, उसी प्रकार पहले पूर्व मीमांसा और वैशेषिक समझे जाते थे। बौद्धदर्शन पद्धति का आविर्भाव ईसा से पूर्व दो सौ वर्ष माना जाता है, परन्तु जैन दर्शन, बौद्ध दर्शन से भी प्राचीन ठहरता है। इसकी पुष्टि में यह प्रमाण दिया जाता है कि प्राचीन जैन दर्शनों में न तो बुद्ध दर्शन और न किसी हिन्दू दर्शन का ही खण्डन उपलब्ध होता है। महावीर स्वामी, जो जैन सम्प्रदाय के प्रवर्तक माने जाते हैं, वे भी बुद्ध से प्राचीन थे। अतएव जैन दर्शन का बुद्ध दर्शन से प्राचीन होना युक्तियुक्त अनुमान है। भारतीय दर्शनों का ऐतिहासिक क्रम निश्चित करना कठिन है। इन सब भिन्न-भिन्न दर्शनों का लगभग साथ ही साथ समान रूप से प्रादुर्भाव एवं विकास हुआ है। इधर-उधर तथा बीच में भी कई कड़ियाँ छिन्न-भिन्न हो गई हैं। अतः जो कुछ शेष है, उसी का आधार लेकर चलना है। इस

क्रम में शुद्ध ऐतिहासिकता न होने पर भी क्रमिक विकास की श्रृंखला आदि से अन्त तक चलती रही है। इसलिए प्रायः विद्वानों ने इसी क्रम का अनुसरण किया है। वैदिक दर्शनों में षड्दर्शन (छः दर्शन) अधिक प्रसिद्ध और प्राचीन हैं। ये छः दर्शन ये हैं- न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा और वेदान्त। गीता का कर्मवाद भी इनके समकालीन है। षडदर्शनों को 'आस्तिक दर्शन' कहा जाता है। वे वेद की सत्ता को मानते हैं। हिन्दू दार्शनिक परम्परा में विभिन्न प्रकार के आस्तिक दर्शनों के अलावा अनीश्वरवादी और भौतिकवादी दार्शनिक परम्पराएँ भी विद्यमान रहीं हैं।

भारतीय दर्शनों के सन्दर्भ में प्रमाणमीमांसा, तत्त्वमीमांसा एवं आचारमीमांसा-

॥ प्रमाणमीमांसा ॥

'प्रमेय' अर्थात् विषय का यथार्थ ज्ञान अर्थात् प्रमा के लिये प्रमाण की आवश्यकता होती है। चार्वाक लोग केवल प्रत्यक्ष प्रमाण मानते हैं। विषय तथा इन्द्रिय के सन्निकर्ष से उत्पन्न ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान कहलाता है। हमारी इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्ष दिखलायी पड़ने वाला संसार ही प्रमेय है। इसके अतिरिक्त अन्य पदार्थ असत् है। आँख, कान, नाक, जिह्वा और त्वचा के द्वारा रूप, शब्द, गन्ध, रस एवं स्पर्श का प्रत्यक्ष हम सबको होता है। जो वस्तु अनुभवगम्य नहीं होती उसके लिये किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता भी नहीं होती। बौद्ध, जैन नामक अवैदिक दर्शन तथा न्यायवैशेषिक आदि अर्द्धवैदिक दर्शन अनुमान को भी प्रमाण मानते हैं। उनका कहना है कि समस्त प्रमेय पदार्थों की सत्ता केवल प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध नहीं की जा सकती। परन्तु चार्वाक का कथन है कि अनुमान से केवल सम्भावना पैदा की जा सकती है। निश्चयात्मक ज्ञान प्रत्यक्ष से ही होता हैं। दूरस्थ हरे भरे वृक्षों को देखकर वहाँ पक्षियों का कोलाहल सुनकर, उधर से आने वाली हवा के ठण्डे झोके से हम वहाँ पानी की सम्भावना मानते हैं। जल की उपलब्धि वहाँ जाकर प्रत्यक्ष देखने से ही निश्चित होती है। अतः सम्भावना उत्पन्न करने तथा लोकव्यवहार चलाने के लिये अनुमान आवश्यक होता है किन्तु वह प्रमाण नहीं हो सकता। जिस व्याप्ति के आधार पर अनुमान प्रमाण की सत्ता मानी जाती है वह व्याप्ति के अतिरिक्त कुछ नहीं है। धूम के साथ अग्नि का, पुष्प के साथ गन्ध का होना स्वभाव है। सुख और धर्म का दुःख और अधर्म का कार्यकारण भाव स्वाभाविक है। जैसे कोकिल के शब्द में मधुरता तथा कौवे के शब्द में कर्कशता स्वाभाविक है उसी प्रकार सर्वत्र समझना चाहिये। जहाँ तक शब्द प्रमाण की बात है तो वह तो एक प्रकार से प्रत्यक्ष प्रमाण ही है। आप्त पुरुष के वचन हमको प्रत्यक्ष सुनायी देते हैं। उनको सुनने से अर्थ ज्ञान होता है। यह प्रत्यक्ष ही है। जहाँ तक वेदों का प्रश्न है उनके वाक्य अदृष्ट और अश्रुतपूर्ण विषयों का वर्णन करते हैं अत: उनकी विश्वसनीयता सन्दिग्ध है। साथ ही अधर्म आदि में अश्वलिंगग्रहण सदृश लज्जास्पद एवं मांसभक्षण सदृश घृणास्पद कार्य करने से तथा जर्भरी,तुर्फरी आदि अर्थहीन शब्दों का प्रयोग करने से वेद अपनी अप्रामाणिकता पुरुषार्थचतुष्टय को वे लोग पुरुष अर्थात् मनुष्य देह के लिये उपयोगी स्वयं सिद्ध करते हैं।

विभिन्न भारतीय दर्शनों के द्वारा स्वीकृत प्रमाण-

चार्वाक =   1. प्रत्यक्ष

जैन - बौद्ध =  2. प्रत्यक्ष, अनुमान

न्याय = 4. प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द 

वैशेषिक = 2. प्रत्यक्ष, अनुमान

सांख्य = 3. प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द

योग = 3. प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम (शब्द)

मीमांसा प्रभाकर = 5. प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति

मीमांसा-भाट्ट - वेदान्त = 6. प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति, अभाव

पौराणिक = 8. प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति, अभाव, सम्भव, ऐतिह्य 

॥तत्त्व मीमांसा॥

न्याय = 16 पदार्थ 

वैशेषिक = 7 पदार्थ 

सांख्य = 25 तत्त्व

योग = 26 तत्त्व

वेदान्त = 2 पदार्थ -जीव-अजीव (तत्त्व)

मीमांसा (भाट्ट) = 5 पदार्थ-द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, शक्ति 

मीमांसा (प्रभाकर) = 8 पदार्थ - द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, समवाय, शक्ति, संख्या सादृश्य

चार्वाक = 4 पृथ्वी, जल, तेज, वायु 

जैन = 2 (जीव, ब्रह्म ) तत्त्व 

बौद्ध = 2 पदार्थ- स्वलक्षण, सामान्य लक्षण  

॥आचार मीमांसा ॥

चार्वाक लोग इस प्रत्यक्ष दृश्यमान देह और जगत् के अतिरिक्त किसी अन्य पदार्थ को स्वीकार नहीं करते। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष नामक मानते हैं। उनकी दृष्टि में अर्थ और काम ही परम पुरुषार्थ है। धर्म नाम की वस्तु को मानना मूर्खता है क्योंकि जब इस संसार के अतिरिक्त कोई अन्य स्वर्ग आदि है ही नहीं तो धर्म के फल को स्वर्ग में भोगने की बात अनर्गल है। पाखण्डी धूर्तों के द्वारा कपोलकल्पित स्वर्ग का सुख भोगने के लिये यहाँ यज्ञ आदि करना धर्म नहीं है बल्कि उसमें की जाने वाली पशु हिंसा आदि के कारण वह अधर्म ही है तथा हवन आदि करना तत्तद वस्तुओं का दुरुपयोग तथा व्यर्थ शरीर को कष्ट देना है इसलिये जो कार्य शरीर को सुख पहुँचाये उसी को करना चाहिये। जिनसे इन्द्रियों की तृप्ति हो मन आनन्दित हो उन्हीं विषयों का सेवन करना चाहिये। शरीर इन्द्रिय मन के आनन्दावाप्ति में जो तत्त्व बाधक होते हैं उनको दूर करना, न करना, मार देना धर्म है। शारीरिक मानसिक कष्ट सहना, विषयानन्द से मन और शरीर को बलात् विरत करना अधर्म है। तात्पर्य यह है कि आस्तिक वैदिक एवं यहाँ तक कि अर्धवैदिक दर्शनों में, पुराणों स्मृतियों में वर्णित आचार का पालन यदि शरीर सुख का साधक है तो उनका अनुसरण करना चाहिये और यदि वे उसके बाधक होते हैं तो उनका सर्वथा सर्वदा त्याग कर देना चाहिये। 

दर्शन के प्रमुख वाद-

1. आरम्भवाद - नैयायिक

2. असत्ख्यातिवाद - माध्यमिक बौद्ध

3. आत्मख्यातिवाद - विज्ञानवादी बौद्ध

4. अख्यातिवाद - प्रभाकर

5. विपरीताख्यातिवाद - कुमारिल

6. अनिर्वचनीयख्यातिवाद- शंकराचार्य

7. अन्यथाख्यातिवाद- नैयायिक (गौतम)

8. विवेकख्याति- सांख्य

9. अनात्मवाद - शून्यवादी

10. शून्यवाद - बौद्ध

11. उत्पत्तिवाद/कृतिवाद - भट्टलोल्लट (मीमांसक)

12. भुक्तिवाद - भट्टनायक (सांख्य)

13. अनुमितिवाद/ज्ञप्तिवाद - शंकुक (न्याय)

14. अभिव्यक्तिवाद - अभिनवगुप्त (वेदान्त) 

15. व्यक्तिवाद - आनन्दवर्धन 

16. ज्ञाततावाद - कुमारिल

17. त्रिपुटीप्रत्यक्षवाद - प्रभाकर

18. परिणामवाद - सांख्य, योग, वेदान्त एवं विज्ञानवादी 19. प्रतिबिम्बवाद - प्रत्यभिज्ञा आभासवाद

20. दृष्टि सृष्टिवाद - शंकराचार्य

21. विवर्तवाद - वेदान्त 


व्याकरण का विशिष्ट अध्ययन UGC.NET

 तस्मै पाणिनये नमः 

परिभाषाएं-

संहिता संज्ञा

सूत्रम्- परः सन्निकर्षः संहिता । 1/1/109

वृत्ति:- वर्णानामतिशयितः सन्निधिः संहिता संज्ञा स्यात् ।

हिन्दी अर्थ- वर्णों की अत्यन्त समीपता को संहिता संज्ञा कहते है ।

संयोग संज्ञा

सूत्रम्- हलोऽनन्तराः संयोगः । 1/1/7

वृत्ति:- अज्भिरव्यवहिता हलः संयोगसंज्ञाः स्युः ॥

ईदूदन्तौ नित्यस्त्रीलिङ्गौ नदीसंज्ञौ स्तः ।

हिन्दी अर्थ- नित्य स्त्रीलिङ्ग ईकारान्त और ऊकारान्त की नदी संज्ञा होती है ।

गुण संज्ञा

सूत्रम्- अदेङ् गुणः । 1/1/2

वृत्ति:- अत् एङ् च गुणसंज्ञः स्यात् ।

हिन्दी अर्थ- ह्रस्व अकार और एङ् प्रत्याहार की गुण संज्ञा होती है ।

वृद्धि संज्ञा

सूत्रम्- वृद्धिरादैच् । 1/1/1

वृत्ति:- आदैच्च वृद्धिसंज्ञः स्यात्॥

हिन्दी अर्थ - दीर्घ आकार और ऐच् (ऐ, औ) की वृद्धि संज्ञा होती है ।

प्रादिपदिक संज्ञा

सूत्रम्- अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम् । 1/2/45

वृत्ति:-- धातुं प्रत्ययं प्रत्ययान्तं च वर्जयित्वा अर्थवच्छब्दस्वरूपं प्रातिपदिकसंज्ञं स्यात् ॥

हिन्दी अर्थ - अर्थात् धातु, प्रत्यय और प्रत्ययान्त से भिन्न कोई सार्थक शब्द को प्रातिपदिक कहते हैं।

सूत्रम्- कृत्तद्धितसमासाश्च । 1/2/46

वृत्ति:- कृत्तद्धितान्तौ समासाश्च तथा स्युः॥

हिन्दी अर्थ - कृदन्त, तद्धितान्त और समास की प्रातिपदिक संज्ञा होती है ।

नदी संज्ञा

सूत्रम्- यू ख्याख्यौ नदी । 1/4/3


घि संज्ञा

सूत्रम् - शेषो घ्यसखि । 1/4/7

वृत्ति:- ह्रस्वौ याविदुतौ तदन्तं सखिवर्ज घिसंज्ञम् ॥

हिन्दी अर्थ- सखि शब्द को छोड़कर ह्रस्व इकारान्त और उकारान्त की घि संज्ञा होती है ।

उपधा संज्ञा

सूत्रम् - अलोऽन्त्यात्पूर्व उपधा । 1/1/65

हिन्दी अर्थ - अंतिम वर्ण से पूर्व वर्ण की उपधा संज्ञा होती है ।

अपृक्त संज्ञा

सूत्रम्- अपृक्त एकाल् प्रत्ययः । 1/2/41

वृत्ति:- एकाल् प्रत्ययो यः सोऽपृक्तसंज्ञः स्यात् ॥

 हिन्दी अर्थ - एक अल् प्रत्यय की अपृक्त संज्ञा होती है ।

गति संज्ञा

सूत्रम्- गतिश्च । 1/4/60

वृत्ति:- प्रादयः क्रियायोगे गतिसंज्ञाः स्युः ।

हिन्दी अर्थ - प्रादियों की क्रिया के योग में गतिसंज्ञा होती है ।

पद संज्ञा

सूत्रम्- सुप्तिङन्तं पदम् । 1/4/14

वृत्ति:- सुबन्तं तिङन्तं च पदसंज्ञं स्यात्॥

हिन्दी अर्थ - सुबन्त और तिङन्त की पद संज्ञा होती है ।

विभाषा संज्ञा

सूत्रम्- न वेति विभाषा । 1/1/43

हिन्दी अर्थ - जहाँ विकल्प से होने और न होने, दोनों की स्थिति बनी रहती है वहाँ विभाषा संज्ञा होती है ।

सवर्ण संज्ञा

सूत्रम्- तुल्यास्यप्रयत्नं सवर्णम् । 1/1/8

वृत्ति:- ताल्वादिस्थानमाभ्यन्तरप्रयत्त्रश्चेत्येतद्द्वयं यस्य येन तुल्यं तन्मिथः सवर्णसंज्ञं स्यात्।

हिन्दी अर्थ - जिन दो या दो से अधिक वर्णों के उच्चारण स्थान तथा आभ्यन्तर प्रयत्न दोनों समान हो उनकी परस्पर सवर्ण संज्ञा होती है ।

टि संज्ञा

सूत्रम्- अचोऽन्त्यादि टि । 1/1/64

वृत्ति:- अचां मध्ये योऽन्त्यः स आदिर्यस्य तट् टिसंज्ञं स्यात्।

हिन्दी अर्थ - अचों में जो अन्य अच् है वह आदि में है जिसके उस शब्द समुदाय की टि होती है।

प्रगृह्य संज्ञा

सूत्रम्- ईदूदेद् द्विवचनं प्रगृह्यम् | 1/1/11

वृत्ति:- ईदूदेदन्तं द्विवचनं प्रगृह्यं स्यात् ।

हिन्दी अर्थ- द्विवचनान्त ईकारान्त, ऊकारान्त और एकारान्त की प्रगृह्य संज्ञा होती है ।

सर्वनामस्थान संज्ञा

सूत्रम्- सुडनपुंसकस्य । 1 / 1 /43

वृत्ति:- स्वादिपञ्चवचनानि सर्वनामस्थानसंज्ञानि स्युरक्लीबस्य॥

हिन्दी अर्थ - नपुंसक लिङ्ग को छोड़कर सु आदि पाँच प्रत्ययों की सर्वनामस्थान संज्ञा होती है ।

सूत्रम्- शि सर्वनामस्थानम् । 1/1/42

वृत्ति:- शि इत्येतदुक्तसंज्ञं स्यात् ॥

हिन्दी अर्थ - शि सर्वनामस्थान संज्ञक होता है । 'ज्ञान+इ' यहाँ 'शि' की सर्वनामस्थान संज्ञा हुई।

भ संज्ञा

सूत्रम्- यचि भम् । 1/4/18

वृत्ति:- यादिष्वजादिषु च कप्प्रत्ययावधिषु स्वादिष्वसर्वनामस्थानेषु पूर्व भसंज्ञं स्यात् ।

हिन्दी अर्थ- सर्वनामस्थानसंज्ञक प्रत्ययों को छोड़कर सु से लेकर कप प्रत्यय पर्यन्त यकारादि और अकारादि प्रत्ययों के परे होने पर पूर्वशब्दस्वरूप भसंज्ञक होता है ।

सर्वनाम संज्ञा

सूत्रम्- सर्वादीनि सर्वनामानि । 1/1/27

हिन्दी अर्थ- सर्व, विश्व, उभ, उभयादि सर्वादिगण पठित शब्दों की सर्वनाम संज्ञा होती है ।

निष्ठा संज्ञा

सूत्रम्- क्तक्तवतू निष्ठा । 1/1/26 

वृत्ति:- एतौ निष्ठासंज्ञौ स्तः ॥

हिन्दी अर्थ - क्त और क्तवतू इन प्रत्ययों की निष्ठा संज्ञा होती है ।

ब्राह्मण साहित्य UGC.NET

।। ब्राह्मण साहित्य ।।

ब्राह्मण शब्द की व्युत्पत्ति - ब्राह्मण ग्रन्थों के अर्थ में 'ब्राह्मण' शब्द विभिन्न तीन अर्थों में बनता है। 'ब्रह्मन्' शब्द से 'अण्' प्रत्यय करके 'ब्राह्मण' शब्द बना है। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार ब्रह्मन् शब्द के तीन अर्थ हैं-

1. 'मंत्र' ब्रह्म वै मन्त्रः । (शत. 7. 1.1.5)

2. 'यज्ञ' - ब्रह्म यज्ञः । (शत. 3. 1.4.15 ) 

3. पवित्र ज्ञान या रहस्यात्मक विद्या ।

अर्थात् जिन ग्रन्थों में वैदिक रहस्यों का उद्घाटन किया गया है, उन्हें 'ब्राह्मण' कहते हैं । ब्राह्मण ग्रन्थों में यज्ञों के तीन प्रकार के आध्यात्मिक, आधिदैविक और वैज्ञानिक स्वरूप को प्रस्तुत किया गया है । "श्री सत्यव्रत सामश्रमी' ने 'ब्राह्मण' शब्द की 'प्रोक्त (कथित, वर्णित) अर्थ में अण् प्रत्यय करके 'ब्राह्मण' शब्द की सिद्धि की है । अतः वेदमंत्रों की व्याख्या और विनियोग प्रस्तुत करने वाले ग्रन्थ को 'ब्राह्मण' कहते हैं ।

ब्राह्मण का अर्थ- "ग्रन्थ" अर्थ में ब्राह्मण शब्द नपुंसकलिंग है। मीमांसा-दर्शन के अनुसार मंत्रभाग या संहिताग्रन्थों के अतिरिक्त वेद- भाग को 'ब्राह्मण कहते हैं । 'भट्टभास्कर' के अनुसार कर्मकाण्ड और मंत्रों के व्याख्यान ग्रंथों को ब्राह्मण कहते हैं- "ब्राह्मणं नाम कर्मणस्तन्मन्त्राणां व्याख्यानग्रन्थः " । (भट्टभास्कर, तैत्तिरीय सं. 1.5.1 भाष्य) वाचस्पति मिश्र के अनुसार 'ब्राह्मण' उन ग्रन्थों को कहते हैं जिनमें निर्वचन (निरुक्ति) मंत्रों का विविध यज्ञों में विनियोग, प्रयोजन, प्रतिष्ठान (अर्थवाद) और विधि का वर्णन होता है । 

वाचस्पति मिश्र ने ब्राह्मण के चार प्रयोजनों का वर्णन किया है-

1. निर्वचन 2. विनियोग 3. प्रतिष्ठान 4. विधि ।

"नैरुक्त्यं यत्र मन्त्रस्य विनियोगः प्रयोजनम् ।

प्रतिष्ठानं विधिश्चैव ब्राह्मणं तदिहोच्यते " ।। ( वाचस्पति मिश्र) 

1. निर्वचन - शब्दों की निरुक्ति बताना । किसी वस्तु के नाम का आधार क्या है, तथा किस धातु से वह नाम बना है ।

2. विनियोग - किस यज्ञ की किस विधि में किस कार्य के लिए कौन सा मंत्र निर्दिष्ट है, इसका विशद वर्णन |

3. प्रतिष्ठान - प्रतिष्ठान का अभिप्राय "अर्थवाद" है । अर्थात् यज्ञ की प्रत्येक विधि का क्या महत्त्व है, उसके करने से क्या लाभ हैं, एवं उसके न करने से क्या हानियाँ हैं ।

4. विधि - यज्ञ और उससे सम्बद्ध कार्यकलाप का विस्तृत विवरण बताना। मीमांसादर्शन के भाष्य में 'शबरस्वामी' ने इन्हीं विषयों को कुछ और विस्तृत करते हुए ब्राह्मण ग्रन्थों के प्रतिपाद्य विषयों की संख्या दस बताई है ।

1. हेतु 2. निर्वचन 3. निन्दा 4. प्रशंसा 5. संशय 6. विधि  7. परक्रिया 8. पुराकल्प 9. व्यवधारण कल्पना 

10. उपमान ।। 

" हेतुर्निर्वचनं निन्दा प्रशंसा संशयो विधिः । परक्रिया पुराकल्पो व्यवधारण कल्पना । उपमानंदशैतेतु विधयो ब्राह्मणस्यवै" ।। (मीमांसासूत्र, शाबर भाष्य 2.18)

1. हेतु- यज्ञ में कोई कार्य क्यों किया जाता है, इसका कारण बताना। 

2. निर्वचन- शब्दों की निरुक्ति बताना। जैसे- नद् धातु से नदी शब्द । 

3. निन्दा- यज्ञ में निषिद्ध कर्मों की निन्दा । जैसे यज्ञ में असत्य- भाषण निषेध।

4. प्रशंसा- यज्ञ में विहित कार्यों की प्रशंसा करना । जैसे- 'यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म' अर्थात् यज्ञ सर्वश्रेष्ठ कर्म है, अतः अवश्य करना चाहिए। 

5. संशय- किसी यज्ञीय कर्म के विषय में कोई सन्देह उपस्थित हो तो उसका निवारण करना।

6. विधि- विधि का अभिप्राय यज्ञिय क्रियाकलाप की पूरी विधि का विशद निरूपण करना है।

7. परक्रिया- परक्रिया का भाव परार्थक क्रिया, परहित या परोपकार वाले कर्तव्यों का वर्णन करना है।

8. पुराकल्प- यज्ञ की विभिन्न विधियों के समर्थन में किसी प्राचीन आख्यान या ऐतिहासिक घटना का वर्णन करना। जैसे- हरिश्चन्द्रोपाख्यान में प्रसिद्ध 'चरैवेति, चरैवेति' आदि निर्देश। 

9. व्यवधारण-कल्पना- परिस्थिति के अनुसार कार्य की व्यवस्था करना ।

 10. उपमान- कोई उपमा या उदाहरण देकर वर्ण्य विषय की पुष्टि करना । जैसे- ऐतरेय ब्राह्मण में 'चरैवेति' की पुष्टि में सूर्य का उदाहरण प्रस्तुत किया गया है।

।। ब्राह्मणग्रन्थों का वर्गीकरण- ।।

(क) ऋग्वेद - ऐतरेय, शांखायन (कौषीतकि) 

(ख) शुक्ल यजुर्वेद- शतपथ,

(ग) कृष्ण यजुर्वेद- तैत्तिरीय,

(घ) सामवेद- पंचविंश (ताण्ड्य महाब्राह्मण या प्रौढ़), षड्विंश/अद्भुत, सामविधान, आर्षेय, जैमिनीय (तलवकार), जैमिनीय आर्षेय, जैमिनीय उपनिषद् (छान्दोग्य), संहितोपनिषद, देवताध्याय, मंत्र (उपनिषद्), वंश ।

 (ङ) अथर्ववेद- गोपथ,

अनुपलब्ध ब्राह्मण ग्रन्थ = 16,

'डॉ. भट्टकृष्ण घोष' ने 16 अनुपलब्ध ब्राह्मणों के उद्धरण एकत्र किए हैं, जिनमें शाट्यायन ब्राह्मण महत्वपूर्ण है।1.

।। ऋग्वेदीय ब्राह्मण ।।

(क) ऐतरेय ब्राह्मण- रचयिता- (महिदास ऐतरेय), पिता- याज्ञवल्क, माता- इतरां (याज्ञवल्क की द्वितीय पत्नी) । “महिदासैतरेयर्षिसंदृष्टं ब्राह्मणं तु यत् । आसीद विप्रो यज्ञवल्को द्विभार्यस्तस्य द्वितीयामितरेति चाहुः” । (ऐत. व्रा. सुखप्रदा वृत्ति) । अध्याय- 40, पंचिकाएं - 8, खंड/'कण्डिका' = 285, पाँच अध्यायों की एक पंचिका होती है । ऋग्वेद में होतृ (होता) नामक ऋत्विज् यज्ञ के कार्यकलापों का वर्णन करता है, अत: इस ब्राह्मण में होता-विषयक पक्ष की विशेष मीमांसा की गयी है ।

।। होता मण्डल के 7 ऋत्विज ।।

(1) होता (2) मैत्रावरुण (3) ब्राह्मणांच्छसी (4) नेष्टा (5) पोता (6) अच्छावाक (7) आग्नीध्र

ये सभी सोमयागों के तीनों सवनों प्रातः, मध्याह्न और सायंकालीन यज्ञ में ऋग्वेद के मंत्रों का पाठ करते थे ।

।। मुख्य आख्यान एवं विषय ।।

(1) शुनःशेप आख्यान, (2) नामनेदिष्टोपाख्यान, (3) चरैवेतिगान,

।। ऐतरेय ब्राह्मण महत्व ।।

• यज्ञ का महत्त्व (ब्रह्म वै यज्ञः) • विष्णु का देवों में महत्  • आचार शिक्षा • दश प्रकार की शासनप्रणाली

• वैज्ञानिक तथ्य • राजा के द्वारा देश भक्ति की शपथ लेना • यज्ञों का विभाजन • अतिथि सत्कार

• दीक्षित क्षत्रिय और वैश्य का भी ब्राह्मण बनाना । • चरैवेति की शिक्षा • भौगोलिक सन्दर्भ

• चक्रवर्ती महाराज 

।। (ख) शांखायन/कौषीतकि ।।

अध्याय = 30, खण्ड = 4-17, सम्पूर्ण खण्ड = 266, शांखायन ने गुरु का नाम अमर रखने के लिए इसका नाम (कौषितकी ब्राह्मण) रखा। शांखायन 'कोषितकि' के शिष्य थे।

।। 2. यजुर्वेदीय ब्राह्मण ।।

।। (1) शुक्लयजुर्वेद- (क) शतपथ ब्राह्मण ।।

“शतं पन्थानों मार्गा नामाध्याया यस्य तत् शतपथम्” जिसमें सौ अध्याय-रूपी मार्ग हैं, उसे शतपथ कहते हैं।

रचयिता- याज्ञवल्क्य वाजसनि के पुत्र होने से- वाजसनेय। याज्ञवल्य के पिता वाजसनि के विषय में सायण ने लिखा है कि वे अन्न-दाता के रूप में विख्यात थे, अत: उनका नाम वाजसनि पड़ा । वाज- अन्न, सनि- दाता।

अध्याय= माध्यन्दिन में = 100, काण्व में = 104

।। (1) माध्यन्दिन ।।

काण्ड = 14, अध्याय=100, ब्राह्मण = 438, कंण्डिकाएं = 7624, 

।। (2) काण्व ।।

काण्ड = 17, अध्याय = 104, ब्राह्मण=435, कंण्डिकाएं 6806, सम्पूर्ण ग्रन्थ 14 भागों में विभक्त है।

।। मुख्य आख्यान एवं विषय ।।

(1) पुरुरवा उर्वशी, (2) दुष्यन्त शकुन्तला, (3) जलप्लावन, (4) मन और वाणी का विवाद ।

।। विशिष्ट सन्दर्भ ।।

(1) याज्ञवल्क्य और शांडिल्य, (2) यज्ञ का महत्व, (3) यज्ञ का आध्यात्मिक रूप, (4) सांस्कृतिक और ऐतिहासिक तत्व, (5) महत्वपूर्ण आख्यान, (6) स्वाध्याय प्रशंसा,




अक्ष सूक्तम् (10.34)

 अक्षसूक्तम्   ।। 10.34 ।।

ऋषि- कवषऐलूष

प्रावेपा मा बृहतो मादयन्ति प्रवातेजा इरिणे वर्वृतानाः । 

सोमस्येव मौजवतस्य भक्षो विभीदको जागृविर्मह्यमच्छान् ॥1॥

न मा मिमेथ न जिहीळ एषा शिवा सखिभ्य उत मह्यमासीत् ।

अक्षस्याहमेकपरस्य हेतोरनुव्रतामप जायामरोधम् ॥2॥ 

द्वेष्टि श्वश्रूरप जाया रुणद्धि न नाथितो विन्दते मर्डितारम् । 

अश्वस्येव जरतो वस्यस्य नाहं विन्दामि कितवस्य भोगम् ॥3॥ 

अन्ये जायां परि मृशन्त्यस्य यस्यागृधद्वेदने वाज्यक्षः । 

पिता माता भ्रातर एनमाहुर्न जानीमो नयता बद्धमेतम् ॥4॥ 

यदादीध्ये न दविषाण्येभिः परायद्भ्योऽव हीये सखिभ्यः । 

न्युप्ताश्च बभ्रुवो वाचमक्रतें एमीदेषां निष्कृतं जारिणीव ॥5॥ 

सभामेति कितवः पृच्छमानो जेष्यामीति तन्वा शूशुजानः । 

अक्षासो अस्य वि तिरन्ति कामं प्रतिदीने दधत आ कृतानि ॥6॥ 

अक्षास इदङ्कुशिनो नितोदिनो निकृत्वानस्तपनास्तापयिष्णवः । 

कुमारदेष्णा जयतः पुनर्हणो मध्वा सम्पृक्ताः कितवस्य बर्हणा ॥ 7 

त्रिपञ्चाशः क्रीळति व्रात एषां देव इव सविता सत्यधर्मा । 

उग्रस्य चिन्मन्यवे ना नमन्ते राजा चिदेभ्यो नम इत्कृणोति ॥8॥ 

नीचा वर्तन्त उपरि स्फुरन्त्यहस्तासो हस्तवन्तं सहन्ते । 

दिव्या अङ्गारा इरिणे न्युप्ताः शीताः सन्तो हृदयं निर्दहन्ति ॥9॥ 

जाया तप्यते कितवस्य हीना माता पुत्रस्य चरतः क्व स्वित् । 

ऋणावा बिभ्यद्धनमिच्छमानोऽन्येषामस्तमुप नक्तमेति ॥10॥ 

स्त्रियं दृष्ट्वाय कितवं ततापान्येषां जायां सुकृतं च योनिम् । 

पूर्वाह्ने अश्वान्युयुजे हि बभ्रुन्सो अग्नेरन्ते वृषलः पपाद ॥11॥ 

यो वः सेनानीर्महतो गणस्य राजा द्रातस्य प्रथमो बभूव । 

तस्मै कृणोमि न धना रुणध्मि दशाहं प्राचीस्तदृतं वदामि ॥12॥ 

अक्षैर्मा दीव्यः कृषिमित्कृषस्व वित्ते रमस्व बहु मन्यमानः । 

तत्र गावः कितव तत्र जाया तन्मे वि चष्टे सवितायमर्यः ॥ 13 ॥ 

मित्रं कृणुध्वं खलु मृळता नो मा नो घोरेण चरताभि धृष्णु । 

नि वो नु मन्युर्विशतामरातिरन्यो बभ्रूणां प्रसितौ न्वस्तु ॥14॥

शब्दार्थ-

प्रावेपाः- कम्पनशीलः, इरिण-अक्षपट्ट, विभीतकः- विभीतक का पासा, मिमेथ- क्रोध करना, जिहीळे-लञ्जित करना, मर्डितारः- सुख देने वाला, वेदने- धन पर, अक्ष- जुए का पासा, अवहीय- छिपना, कितव- जुआरी, शूशुजानः- चमकता हुआ, कृत- दाव, नितोदिनः- चाबुक से युक्त पासों का (53) संख्या का समूह अक्षपट्ट पर खेलता है। मन्यवः- क्रोधी, योनि- घर, वृषलः- नीच आचरण करने वाला, दश- दस अङ्गुलियां, सविता- संसार का प्रेरक, मन्यु- क्रोध ।


सांख्यकारिका UGC.NET अध्ययन

 ।। ईकाइ – 4 ।।

दर्शन साहित्य का विशिष्ट अध्ययन 

सांख्य दर्शन -

सांख्यकारिका सांख्य दर्शन का सबसे पुराना उपलब्ध ग्रन्थ है । इसके रचयिता ईश्वरकृष्ण हैं । संस्कृत के एक विशेष प्रकार के श्लोकों को '’ कारिका '’ कहते है । सांख्यकारिकाओं का समय बहुमत से ईं तृतीय शताब्दी के मध्य माना जाता है । वस्तुतः इनका समय इससे पर्याप्त पूर्व का प्रतीत होता है । इससे ईश्वरकृष्ण ने कहा है कि इसकी शिक्षा कपिल से आसुरी को , आसुरी से पंचशिख को और पंचशिख से उनको प्राप्त हुई । इसमें उन्होनें सांख्य दर्शन की षष्ठिंतत्र नामक कृती का भी उल्लेख किया है । सांख्यकारिका में 72 श्लोक हैं जो आर्या छन्द में लिखे हैं । ऐसा अनुमान किया जाता है कि अन्तिम 3 श्लोक बाद में जोड़े गये ( प्रक्षिप्त ) हैं । सांख्यकारिका पर विभिन्न विद्वानों द्वारा अनेक टीकाएँ की गयीं है जिनमें युक्तिदीपिका , गौड़पादभाष्यम् , जयमङ्गला , तत्वकौमुदी , नारायणकृत-सांख्यचन्द्रिका आदि प्रमुख हैं । सांख्यकारिका पर सबसे प्राचीन भाष्य गौंड़पाद द्वारा रचित है । दूसरा महत्वपूर्ण भाष्य वाचस्पति मिश्र द्रारा रचित सांख्यकौमुदी है । 

सांख्यकारिका का चीनी भाषा में अनुवाद 6ठीं शताब्दी में हुआ । सन् 1832 में क्रिश्चियन ळासेन ने इसका लैटिन में अनुवाद किया । एच टी कोलब्रुक ने इसको सर्वप्रथम अंग्रेजी में रुपान्तरित किया । 

सांख्यकारिका 68+4=72 कारिका , लेखक – ईश्वरकृष्ण सांख्यकारिका का अपरनाम – सुवर्णसप्तति - कनकसप्तति - हिरण्यसप्तति , है ।।

।। साङ्ख्यकारिका ॥

दु:खत्रयाभिघाताज्जिज्ञासा तदपघातके हेतौ । दृष्टे साऽपार्था चेन्नैकान्तात्यन्तोऽभावात् ॥ 1 ॥ 

दृष्टवदानुश्रविकः स ह्यविशुद्धिक्षयातिशययुक्तः । तद्विपरीतः श्रेयान् व्यक्ताव्यक्तज्ञविज्ञानात् ॥ 2 ॥ 

मूलप्रकृतिरविकृतिर्महदाद्या: प्रकृतिविकृतयः सप्त । षोडशकस्तु विकारो न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः ॥ 3 ॥ 

दृष्टमनुमानमाप्तवचनं च सर्वप्रमाणसिद्धत्वात् । त्रिविधं प्रमाणमिष्टं प्रमेयसिद्धिः प्रमाणाद्धि ॥ 4 ॥ 

प्रतिविषयाध्यवसायो दृष्टं त्रिविधमनुमानमाख्यातम् । तल्लिङ्गलिङ्गिपूर्वकमाप्तश्रुतिराप्तवचनं तु ॥ 5 ॥ 

सामान्यतस्तु दृष्टादतीन्द्रियाणां प्रतीतिरनुमानात् । तस्मादपि चासिद्धं परोक्षमाप्तागमात्सिद्धम् ॥ 6 ॥ 

अतिदूरात् सामीप्यादिन्द्रियघातान्मनोऽनवस्थानात् । सौक्ष्म्याद्व्यवधानादभिभवात् समानाभिहाराच्च ॥ 7 ॥ 

सौक्ष्म्यात्तदनुपलब्धिर्नाभावात् कार्यतस्तदुपलब्धेः । महदादि तच्च कार्यं प्रकृतिसरूपं विरूपं च ॥ 8 ॥ 

असदकरणादुपादानग्रहणात् सर्वसम्भवाभावात् शक्तस्यशक्यकरणात् कारणभावाच्च सत्कार्यम् ॥9॥ 

हेतुमदनित्यमव्यापि सक्रियमनेकमाश्रितं लिङ्गम् । सावयवं परतन्त्रं व्यक्तं विपरीतमव्यक्तम् ॥ 10 ॥ 

त्रिगुणमविवेकि विषयः सामान्यमचेतनं प्रसवधर्मि । व्यक्तं तथा प्रधानं तद्विपरीतस्तथा च पुमान् ॥ 11 ॥ 

प्रीत्यप्रीतिविषादात्मका: प्रकाशप्रवृत्तिनियमार्थाः । अन्योन्याभिभवाश्रयजननमिथुनवृत्तयश्च गुणाः ॥ 12 ॥ 

सत्त्वं लघु प्रकाशकमिष्टमुपष्टम्भकं चलं च रजः । गुरु वरणकमेव तमः प्रदीपवच्चार्थतो वृत्तिः ॥ 13 ॥

अविवेक्यादेः सिद्धिस्त्रैगुण्यात् तद्विपर्ययाभावात् । कारणगुणात्मकत्वात् कार्यस्याव्यक्तमपि सिद्धम् ॥ 14 ॥ 

भेदानां परिमाणात् समन्वयात् शक्तितः प्रवृत्तेश्च । कारणकार्यविभागादविभागाद् वैश्वरूप्यस्य ॥ 15 ॥ 

कारणमस्त्यव्यक्तं प्रवर्तते त्रिगुणतः समुदयाच्च । परिणामतः सलिलवत् प्रतिप्रतिगुणाश्रयविशेषात् ॥ 16 ॥

संघातपरार्थत्वात् त्रिगुणादिविपर्यादधिष्ठानात् । पुरुषोऽस्ति भोक्तृभावात् कैवल्यार्थं प्रवृत्तेश्च ॥ 17 ॥ 

जननमरणकरणानां प्रतिनियमादयुगपत्प्रवृत्तेश्च । पुरुषबहुत्वं सिद्धं त्रैगुण्यविपर्ययाचैव ॥ 18 ॥ 

तस्माच्च विपर्यासात् सिद्धं साक्षित्वमस्य पुरुषस्य । कैवल्यं माध्यस्थ्यं द्रष्टृत्वमकर्तृभावश्च ॥ 19 ॥ 

तस्मात्तत्संयोगादचेतनं चेतनावदिव लिङ्गम् । गुणकर्तृत्वेऽपि तथा कर्तेव भवत्युदासीनः ॥ 20 ॥ 

पुरुषस्य दर्शनार्थं कैवल्यार्थं तथा प्रधानस्य । पङ्घन्धवदुभयोरपि संयोगस्तत्कृतः सर्गः ॥ 21 ॥ 

प्रकृतेर्महांस्ततोऽहंकारस्तस्माद् गणश्च षोडशकः । तस्मादपि षोडशकात् पञ्चभ्यः पञ्चभूतानि ॥ 22 ॥ 

अध्यवसायो बुद्धिर्धर्मो ज्ञानं विराग ऐश्वर्यम् । सात्त्विकमेतद्रूपं तामसमस्माद्विपर्यस्तम् ॥ 23 ॥ 

अभिमानोऽहंकारः तस्माद्विविधः प्रवर्तते सर्ग: । एकादशकश्च गणस्तन्मात्रपञ्चकश्चैव ॥ 24 ॥ 

सात्त्विक एकादशकः प्रवर्तते वैकृतादहंकारात् । भूतादेस्तन्मात्रः स तामसस्तैजसादुभयम् ॥ 25 ॥

बुद्धीन्द्रियाणि चक्षुः श्रोत्रघ्राणरसनत्वगाख्यानि । वाक्पाणिपादपायूपस्थानि कर्मेन्द्रियाण्याहुः ॥ 26 ॥ 

उभयात्मकमत्र मनः सङ्कल्पमिन्द्रियं च साधर्म्यात् । गुणपरिणामविशेषान्नानात्वं बाह्यभेदाश्च ॥ 27 ॥ 

रूपादिषु पञ्चानामालोचनमात्रमिष्यते वृत्तिः । वचनादानविहरणोत्सर्गानन्दाश्च पञ्चानाम् ॥ 28 ॥ 

स्वालक्षण्यं वृत्तिस्त्रयस्य सैषा भवत्यसामान्या । सामान्यकरणवृत्तिः प्राणाद्या वायवः पञ्च ॥ 29 ॥ 

युगपच्चतुष्टयस्य तु वृत्तिः क्रमशश्च तस्य निर्दिष्टा । दृष्टे तथाप्यदृष्टे त्रयस्य तत्पूर्विका वृत्तिः ॥ 30 ॥ 

स्वां स्वां प्रतिपद्यन्ते परस्पराकूतहेतुकां वृत्तिम् । पुरुषार्थ एव हेतुर्न केनचित् कार्यते करणम् ॥ 31 ॥ 

करणं त्रयोदशविधं तदाहरणधारणप्रकाशकरम् । कार्यं च तस्य दशधाऽऽहार्यं धार्यं प्रकाश्यं च ॥ 32 ॥ 

अन्तःकरणं त्रिविधं दशधा बाह्यं त्रयस्य विषयाख्यम् । साम्प्रत्कालं बाह्यं त्रिकालमाभ्यन्तरं करणम् ॥ 33 ॥ 

बुद्धीन्द्रियाणि तेषां पञ्च विशेषाविशेषविषयाणि । वाग्भवति शब्दविषया शेषाणि तु पञ्चविषयाणि ॥ 34 ॥ 

सान्तःकरणा बुद्धिः सर्वं विषयमवगाहते यस्मात् । तस्मात् त्रिविधं करणं द्वारि द्वाराणि शेषाणि ॥ 35 ॥

एते प्रदीपकल्पाः परस्परविलक्षणा गुणविशेषाः । कृत्स्नं पुरुषस्यार्थं प्रकाश्य बुद्धौ प्रयच्छन्ति ॥ 36 

सर्वं प्रत्युपभोगं यस्मात् पुरुषस्य साधयति बुद्धिः । सैव च विशिनष्टि पुनः प्रधानपुरुषान्तरं सूक्ष्मम् ॥ 37 ॥ 

तन्मात्राण्यविशेषास्तेभ्यो भूतानि पञ्च पञ्चभ्यः । एते स्मृता विशेषा: शान्ता घोराश्च मूढाश्च ॥ 38 ॥ 

सूक्ष्मा मातापितृजा: सह प्रभूतैस्त्रिधा विशेषाः स्युः । सूक्ष्मास्तेषां नियता मातापितृजा निवर्तन्ते ॥ 39 ॥ 

पूर्वोत्पन्नमसक्तं नियतं महदादिसूक्ष्मपर्यन्तम् । संसरति निरुपभोगं भावैरधिवासितं लिङ्गम् ॥ 40 ॥ 

चित्रं यथाऽऽश्रयमृते स्थाण्वादिभ्यो विना यथाच्छाया । तद्वद्विना विशेषैर्न तिष्ठति निराश्रयं लिङ्गम् ॥ 41 ॥ 

पुरुषार्थहेतुकमिदं निमित्तनैमित्तिकप्रसङ्गेन । प्रकृतेर्विभुत्वयोगान्नटवद् व्यवतिष्ठते लिङ्गम् ॥ 42 ॥ 

सांसिद्धिकाश्च भावा: प्राकृतिका वैकृताश्च धर्माद्याः । दृष्टाः करणाश्रयिणः कार्याश्रयिणश्च कललाद्याः ॥ 43 ॥ 

धर्मेण गमनमूर्ध्वं गमनमधस्ताद् भवत्यधर्मेण । ज्ञानेन चापवर्गो विपर्ययादिष्यते बन्धः ॥ 44 ॥

वैराग्यात् प्रकृतिलयः संसारो भवति राजसाद् रागात् । ऐश्वर्यादविघातो विपर्ययात्तद्विपर्यासः ॥ 45 ॥

एष प्रत्ययसर्गो विपर्ययाशक्तितुष्टिसिद्ध्याख्यः । गुणवैषम्यविमर्दात् तस्य च भेदास्तु पञ्चाशत् ॥ 46 ॥ 

पञ्च विपर्ययभेदा भवन्त्यशक्तिश्च करणवैकल्यात् । अष्टाविंशतिभेदा तुष्टिर्नवधाऽष्टधा सिद्धिः ॥ 47 ॥ 

भेदस्तमसोऽष्टविधो मोहस्य च दशविधो महामोहः । तामिस्रोऽष्टादशधा तथा भवत्यन्धतामिस्रः ॥ 48 ॥ 

एकादशेन्द्रियवधाः सह बुद्धिवधैरशक्तिरुद्दिष्टा । सप्तदश वधा बुद्धेर्विपर्ययात् तुष्टिसिद्धीनाम् ॥ 49 ॥ 

आध्यात्मिक्यश्चतस्रः प्रकृत्युपादानकालभाग्याख्याः । बाह्या विषयोपरमात् पञ्च च नव तुष्टयोऽभिमताः ॥ 50 ॥

उहः शब्दोऽध्ययनं दु:खविघातास्त्रयः सुहृत्प्राप्तिः । दानं च सिद्धयोऽष्टौ सिद्धेः पूर्वोऽङ्कुशस्त्रिविधः ॥ 51 ॥ 

न विना भावैर्लिङ्गं न विना लिङ्गेन भावनिर्वृत्तिः । लिङ्गाख्यो भावाख्यस्तस्माद् द्विविधः प्रवर्तते सर्गः ॥ 52 || 

अष्टविकल्पो दैवस्तैर्यग्योनश्च पञ्चधा भवति । मानुष्यश्चैकविधः समासतो भौतिकः सर्गः ॥ 53 ॥ 

ऊर्ध्वं सत्त्वविशालस्तमोविशालश्च मूलतः सर्गः । मध्ये रजोविशालो ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तः ॥ 54 ॥ 

तत्र जरामरणकृतं दुःखं प्राप्नोति चेतन: पुरुष: । लिङ्गस्याविनिवृत्तेस्तस्माद् दुःखं स्वभावेन ॥ 55 ॥ 

इत्येष प्रकृतिकृतो महदादिविशेषभूतपर्यन्तः । प्रतिपुरुषविमोक्षार्थं स्वार्थ इव परार्थ आरम्भः ॥ 56 ॥ 

वत्सविवृद्धिनिमित्तं क्षीरस्य यथा प्रवृत्तिरज्ञस्य । पुरुषविमोक्षनिमित्तं तथा प्रवृत्तिः प्रधानस्य ॥ 57 ॥

 औत्सुक्यविनिवृत्यर्थं यथा क्रियासु प्रवर्तते लोकः । पुरुषस्य विमोक्षार्थं प्रवर्तते तद्वदव्यक्तम् ॥ 58 ॥ 

रङ्गस्य दर्शयित्वा निवर्तते नर्तकी यथा नृत्यात् । पुरुषस्य तथाऽत्मानं प्रकाश्य विनिवर्तते प्रकृतिः ॥ 59 ॥ 

नानाविधैरुपायैरुपकारिण्यनुपकारिणः पुंसः । गुणवत्यगुणस्य सतः तस्यार्थमपार्थकं चरति ॥ 60 ॥ 

प्रकृतेः सुकुमारतरं न किञ्चिदस्तीति मे मतिर्भवति । या दृष्टाऽस्मीति पुनर्न दर्शनमुपैति पुरुषस्य ॥ 61 ॥ 

तस्मान्न बध्यतेऽद्धा न मुच्यते नापि संसरति कञ्चित् । संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः ॥ 62 ॥ 

रूपैः सप्तभिरेव तु बध्नात्यात्मानमात्मना प्रकृति: । सैव च पुरुषार्थं प्रति विमोचयत्येकरूपेण ॥ 63 ॥ 

एवं तत्त्वाभ्यास्यान्नास्मि न मे नाहमित्यपरिशेषम् । अविपर्ययाद्विशुद्धं केवलमुत्पद्यते ज्ञानम् ॥ 64 ॥ 

तेन निवृत्तप्रसवामर्थवशात् सप्तरूपविनिवृत्ताम् । प्रकृतिं पश्यति पुरुष: प्रेक्षकवदवस्थितः स्वस्थः ॥ 65 ॥ 

रङ्गस्थ इत्युपेक्षक एको दृष्टाहमित्युपरमत्यन्या । सति संयोगेऽपि तयोः प्रयोजनं नास्ति सर्गस्य ॥ 66 ॥ 

सम्यग्ज्ञानाधिगमाद् धर्मादीनामकारणप्राप्तौ । तिष्ठति संस्कारवशाच् चक्रभ्रमिवद् धृतशरीरः ॥ 67 ॥ 

प्राप्ते शरीरभेदे चरितार्थत्वात् प्रधानविनिवृत्तौ । ऐकान्तिकमात्यन्तिकमुभयं कैवल्यमाप्नोति ॥ 68 ॥ 

पुरुषार्थज्ञानमिदं गुह्यं परमर्षिणा समाख्यातम् । स्थित्युत्पत्तिप्रलयाश्चिन्त्यन्ते यत्र भूतानाम् ॥ 69 ॥ 

एतत्पवित्रमग्र्यं मुनिरासुरयेऽनुकम्पया प्रददौ । आसुरिरपि पञ्चशिखाय तेन च बहुधा कृतं तत्रम् ॥ 70 ॥ 

शिष्यपरम्परयाऽऽगतमीश्वरकृष्णेन चैतदार्यादिभिः । संक्षिप्तमार्यमतिना सम्यग्विज्ञाय सिद्धान्तम् ॥ 71 ॥ 

सप्तत्यां किल येऽर्थास्तेऽर्थाः कृत्स्नस्य षष्टितन्त्रस्य । आख्यायिकाविरहिताः परवादविवर्जिताश्चापि ॥ 72 ॥


।। सांख्यकारिका की प्रमुख कारिकाएं ।। 

सांख्यदर्शन के अन्दर २५ तत्वों को अङ्गीकार किया जाता है और उनकी मीमांसा भी बडे ही अच्छे ढंग से इस दर्शन के अन्दर की गई है । इन्हीं पञ्चविंशति पदार्थों के ज्ञान से जीव आध्यात्मिक , आधिभौतिक या , आधिदैविक इन तीन प्रकार के दुःखों से सर्वथा छुटकारा प्राप्त कर लेता है । सांख्या नें इन तीनों दुखों के विनाश का कारण इसी विवेकज्ञान को अन्त में स्वीकार किया है । जैसे कि ईश्वरकृष्ण नें सांख्यकारिका में कहा है ।

दुःखत्रयाभिघाताजिज्ञासा तदपघातके हेतौ । दृष्टे साऽपार्था चेनैकान्तात्यन्तोऽभावात् ।। 1 ।।

अर्थात् संसार के अन्दर आकर प्राणिमात्र जब आध्यात्मिक आधिभौतिक तथा आधिदैविक इन तीनों प्रकार के दुःखों के विनाश के कारण में जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि उनकी निवृत्ति के कारणीभूत औषध सेवन अथवा कामिनी के उपभोग रूप दृष्ट उपाय शान्त हो जाती है तो शास्त्र के आधार पर होने वाले दुरधिगम त्त्वज्ञान की क्या आवश्यकता है ? इसका उत्तर दिया कि पूर्वोक्त तीनों प्रकार की दुःखों की निवृत्ति दृष्ट उपाय से ऐकान्तिक ( आवश्यक ) रूप से तथा आत्यन्तिक ( फिर कभी भी दुःख उत्पन्न न हो ) रुप से नहीं होती है । अतः इसकी निवृत्ति के लिए शास्त्र में होने वाला त्त्वज्ञान ही श्रेयस्कर है ।

त्रिविध दुःख

(1) आध्यात्मिक - शारीरिक और मानसिक दुःख ही आध्यात्मिक है । इसे ही दैहिक दुःख भी कहा जाता है । देहजन्य अनेक रोग या बीमारी बुभूक्षा , तितिक्षा , क्रोध , सन्ताप , अनुताप , प्रभृति , दैहिक , या आध्यात्मिक दुःख है ।

(2) आधिभौतिक - इसी तरह आधिभौतिक दुःख को बाहरी कारणों से उत्पन्न कहा गया है । आधिभौतिक दुःख अस्मभावित है । तथा सर्पदंश , अकारण वैर , विरोध , युद्ध , प्रकृतिक प्रकोप , भूकम्प , या फसलों का नष्ट हो जाना , अकाल या महामारी , जैसे दुःख इसके भीतर परिगणित होते है ।

(3) आधिदैविक - भूत , प्रेत , अतिवृष्टि , या अनावृष्टि , यक्ष , राक्षस , या क्रूर , ग्रहादि के प्रकोप से उत्पन्न दुःख को आधिभौतिक दुःख कहा जाता है । इनके शमन के लिए अनेक शास्त्रीय और लौकिक उपाय भी बतलाये गये है , फिर भी दुख तो दुःख ही है । इन्ही दुःखों से प्राणी संसार मे सन्तप्त रहता है ।

इसमें तो केवल दुःखत्रय के विनाशकारिणी मूल वस्तु में जिज्ञासा का प्रदर्शन किया है । यह दुःखत्रय से विनाश का कारण कौन है , इसका स्पष्टीकरण ईश्वरकृष्ण नें आगे की कारिका मे किया है ।

दृष्टवदानुश्रविकः स ह्यविशुद्धिक्षयातिशययुक्तः । तद्विपरितः श्रेयान् व्यक्ताव्यक्तज्ञविज्ञानात् ।। 2 ।।

दृष्ट ( लौकिक ) उपाय की तरह आनुश्रविक ( वैदिक ) उपाय भी हैं और वह वैदिक उपाय भी अविशुद्ध , क्षय तथा अतिशय इन तीन दोषों से युक्त है इसलिए उनके विपरित व्यक्त ( महदादि 23 पदार्थ ) हैं , अव्यक्त ( प्रकृति ) और ज्ञ ( पुरुष ) के विशिष्ट ज्ञान से ही तीन प्रकार के दुःखों की निवृत्ति होती है ।  

।। प्रमाण ।।

दृष्टमनुमानमाप्तवचनं च सर्वप्रमाणसिद्धत्वात् । त्रिविधं प्रमाणमिष्टं प्रमेयसिद्धिः प्रमाणाद्धि ।। 4 ।।

प्रतिविषयाध्यवसायो दृष्टं त्रिविधमनुमानमाख्यातम् । तल्ळिङ्गलिङ्गिपूर्वकमाप्तश्रुतिराप्तवचनं तु ।। 5 ।।

सांख्य के अनुसार प्रमाणों की संख्या तीन है- प्रत्यक्ष , अनुमान और शब्द अन्य लोगों से स्वीकृत और सब प्रमाण इन्हीं तीन प्रमाणों से सिद्ध हैं । प्रमाणों को स्वीकार करने की आवश्यकता इसलिए होती है कि घट-पट आदि प्रमेय पदार्थों की सिद्धि प्रमाण के आधार पर ही होती है । 

।। १ प्रत्यक्ष ।। 

प्रतिविषयाध्यवसायो दृष्टम् - अर्थात् वस्तु या विषय और इन्द्रियों के संयोग से प्राप्त ज्ञान ही प्रत्यक्ष है । वाचस्पति मिश्र के अनुसार , प्रत्यक्ष की तीन विशेषताएँ हैं । 

( i ) प्रत्यक्ष के लिए यथार्थ वस्तु का रहना आवश्यक है । यह वस्तु बाह्य या आन्तरिक कुछ भी हो सकती है । पृथ्वी , पानी  , अग्नि , आदि बाह्य वस्तुएँ तथा सुख , दुःख , आन्तरिक विषय हैं । 

( ii ) प्रत्यक्ष के लिए इन्द्रिय - वस्तु सन्निकर्ष आवश्यक है । 

( iii ) प्रत्यक्ष के लिए बुद्धि की सक्रियता भी आवश्यक है । केवल वस्तु और इन्द्रिय के संयोग से हीं ज्ञान नहीं उत्पन्न हो जाता । इसके लिए बुद्धि की क्रिया अनिवार्य है , बुद्धि में सत्वगुण रहने के कारण यह पुरुष के चैतन्य को प्रतिबिम्बित करती है और ज्ञानोदय होता है । संश्लेषण और विश्लेषण का कार्य करकें बुद्धि हमें प्रत्यक्ष ज्ञान देती हैं । 

सांख्यदर्शन के अनुसार प्रत्यक्ष के दो प्रकार हैं - 

।। ( १ ) निर्विकल्पक प्रत्यक्ष ( २ ) सविकल्पक प्रत्यक्ष ।।

(१) निर्विकल्पक प्रत्यक्ष -  निर्विकल्पक प्रत्यक्ष में वस्तु का केवल आभास मिलता है । इसमें वस्तु के विषय में पूर्ण ज्ञान नहीं होता । इस प्रत्यक्ष ज्ञान की अभिव्यक्ति शब्दों के माध्यम से सम्भव नहीं है । यह ज्ञान शिशु एवं गूँगे के ज्ञान से मिलता - जुलता हैं । शिशु और गूँगे अपने अनुभव को अभिव्यक्ति देने में असमर्थ होते हैं।

(२) सविकल्पक प्रत्यक्ष - सविकल्पक प्रत्यक्ष में केवल वस्तु के अस्तित्व का ही अभास नहीं होता बल्कि उसकी पूर्ण जानकारी भी हो जाती हैं जैसे - यदि कोई व्यक्ति हमारे सामने से गुजरे और उसके विषय में हमें पूर्ण जानकारी हो जाय तो यह  प्रत्यक्ष ज्ञान हैं । निविकल्पक प्रत्यक्ष ही विकसित होकर सविकल्पक प्रत्यक्ष  हो जाता हैं । 

।। 2 अनुमान ।। 

सांख्यमत में अनुमान के स्वरूप का त्रिविधमनुमानमाख्यातम् तल्लिङ्गलिङ्गिपूर्वकम् कहकर शाब्दिक भेद अवश्य कर दिया है परन्तु आर्थिक स्वरूप अनुमान का वही है जो कि नैयायिकों ने माना है कि व्याप्तिविशिष्टपक्षधर्मताज्ञान और इसी अर्थ में वाचस्पति मिश्र ने लिङ्गलिङ्गिपूर्वकम् का पर्यवसान भी किया है और यह अनुमान तीन प्रकार का है

1. पूर्ववत्   2. शेषवत्    3. सामान्यतोदृष्ट,

1. पूर्ववत् पूर्ववत् अनुमान दो वस्तुओं के मध्य व्याप्ति-सम्बन्ध पर आश्रित है। उदाहरण- धुएँ और आग में व्याप्ति सम्बन्ध रहने से धुएँ की उपस्थिति से आग की उपस्थिति का अनुमान किया जाता है या जैसे बादलों से आच्छादित आकाश को देखकर तथा बिजली की कड़कड़ाहट को सुनकर भाविकालीन वृष्टिरूप (वर्षा) कार्य का अनुमान होता है।

2. शेषवत् अनुमान उसे कहते हैं जहाँ कार्य से कारण का अनुमान होता हैं क्योंकि अन्तिम कार्य को शेष शब्द से कहा है और उस कार्यरूप लिंग से होने वाले अनुमान को शेषवत् अनुमान कहा है। उदाहरणस्वरूप प्रात:काल चारों ओर पानी जमा देखकर रात में वर्षा के हो चुकने का | अनुमान करना।

3. सामान्यतोदृष्ट- यदि दो वस्तुओं को साथ-साथ देखें तब एक को देखकर दूसरे का अनुमान करना सामान्यतोदृष्ट है । हम लोगों ने बगुले को उजला पाया है। ज्यों ही हम सुनते हैं कि अमुक पक्षी बगुला है, त्यों ही हम अनुमान करते हैं कि वह उजला होगा।

3. शब्द -

आप्तश्रुतिराप्तवचनम्- अर्थात् आप्तपुरुष के द्वारा उच्चरित यथार्थवाक्य से उत्पन्न वाक्यार्थज्ञान को ही शब्दप्रमाण कहा वेदश्रुति-स्मृति- इतिहास-पुराण-धर्मशास्त्र एवं सामान्यशास्त्र आदि के वाक्यों से उत्पन्न हुए ज्ञानों का भी शब्दप्रमाण में ही अन्तर्भाव हो जाता है।

सत्कार्यवाद

सांख्यदर्शन सत्कार्यवाद का समर्थक है। सत्कार्यवाद का अर्थ है कि कार्य में सत् होता है अर्थात् कार्य न तो कोई नवीन वस्तु है, न ही कोई नया कारण आरम्भ, बल्कि वह कारण की ही बदली हुई अवस्था है। इस परिवर्तन को नया आरम्भ कहने के स्थान पर कारण की व्यक्त अवस्था कहना उचित है अर्थात् कारण में कार्य पहले अव्यक्त था और अब व्यक्त हो गया है। सांख्यकारिका में सत्कार्यवाद की स्थापना इस कारिका द्वारा की गई है-

“असदकरणादुपादानग्रहणात्सर्वसंभवाभावात् ।

शक्तस्य शक्यकरणात् कारणाभावाच्च सत्कार्यम् ।। 9 ।।

असद् अकरणात्- जिसका अस्तित्व ही नहीं है, उसकी कभी उत्पत्ति नहीं हो सकती। जैसे- बालू में घी का अभाव है, इसलिए किसी भी प्रकार से बालू से घी नहीं निकाला जा सकता ।

उपादान ग्रहणात्- किसी कार्य की उत्पत्ति के लिए उपयुक्त कारण की खोज की जाती है। जैसे- दही उत्पन्न करने के लिए दूध की खोज की जाती है और तेल उत्पन्न करने के लिए तिलहन की खोज होती है। इससे पता चलता है कि कार्य अपने खास कारण में ही पहले से स्थित है।

सर्वसम्भवाभावात्- हर वस्तु से हर वस्तु नहीं उत्पन्न हो सकती जैसे- बालू से घी नहीं निकलता और न रूई से टेबल बनता है। यदि कार्य अपने खास कारण में नहीं रहता, तो फिर किसी से किसी भी वस्तु की उत्पत्ति हो जाती।

शक्तस्य शक्यकरणात्- कारण अपनी योग्यता के अनुकूल ही कार्य उत्पन्न करता है। जैसे- दूध से दही, मलाई या अन्य कोई खाद्य-पदार्थ बना सकता है। इससे खाद नहीं बना सकता। इसी प्रकार, तिलहन केवल तेल या खली उत्पन्न कर सकता है, चना नहीं। इससे सिद्ध होता है कि कारण उसी कार्य को उत्पन्न कर सकता है, जिसके लिए वह योग्य हो। ऐसा इसलिए होता है कि, क्योंकि कार्य पहले से ही अपने कारण में निहित है।

कारणाभावाच्च सत्कार्यम्- कार्य और कारण अभिन्न हैं। इन्हें एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। कारण कार्य का छिपा हुआ रूप है और कार्य कारण का खुला हुआ रूप। इससे पता चलता कि कार्य कारण में उत्पत्ति के पूर्व विद्यमान रहता है ।

॥पुरुषस्वरूप॥

सांख्य के द्वैतवाद में प्रकृति के अतिरिक्त दूसरी सत्ता पुरुष की ही कही गई है। सांख्य में पुरुष की धारणा लगभग वही है जिसे अन्य दर्शनों में आत्मा कहा गया है। सांख्य दर्शन पुरुष के सम्बन्ध में तीन मूल प्रश्नों पर विचार करता है।

1. पुरुष का स्वरूप क्या है।

2. पुरुष के अस्तित्व की सिद्धि हेतु तर्क ।

3. पुरुषों की अनेकता या बहुत्व सिद्ध करने के तर्क। 

पुरुष का स्वरूप-

सांख्य दर्शन के अनुसार पुरुष का स्वरूप अन्य भारतीय दर्शनों की आत्मा से पर्याप्त साम्य रखता है। इसका स्वरूप स्पष्ट करते हुए मूलत: इसे प्रकृति के सर्वथा विपरीत कहा गया है। यह शुद्ध चैतन्यस्वरूप है और सभी अवस्थाओं में चेतन्ययुक्त रहता है जबकि प्रकृति जड़ है। यह प्रकृति के समान त्रिगुणात्मक नहीं, निस्त्रिगुण है। यह ज्ञाता और विषयी है जबकि प्रकृति ज्ञेय और विषय है तथा प्रकृति परिणामी अर्थात् क्रियाशील है जबकि पुरुष नित्य तथा अपरिणामी। पुरुष की सत्ता स्वत: सिद्ध है और इसका निषेध करना असम्भव है क्योंकि इसका निषेध करने वाला निषेधकर्ता स्वयं पुरुष का ही स्वरूप है। यह सत् और चेतन ... है किन्तु आनन्दस्वरूप नहीं है क्योंकि आनन्द की उत्पत्ति सत्त्व गुण से होती है जबकि यह निस्त्रिगुण या निर्गुण है। पुनः यह कर्ता नहीं भोक्ता मात्र है क्योंकि यह चेतन किन्तु निष्क्रिय है। यह प्रकृति और उसके विकारों का उसी प्रकार भोग करता है; जैसे राजा स्वयं अन्नोत्पादन नही करते हुए भी अन्न का भोग करता है। सांख्य का पुरुष अन्य दर्शनों के आत्म-विचार के समान होते भी कुछ दृष्टियों से उनसे भिन्न है। चार्वाकीय देहात्मवाद के विरुद्ध यह पुरुष या आत्मा की भिन्न व नित्य सत्ता स्वीकार करता है। बौद्ध दर्शन मानता है कि आत्मा स्थायी नहीं है बल्कि चेतना का प्रवाह मात्र है, जबकि सांख्य ने पुरुष को नित्य माना है। न्याय-वैशेषिक चेतना को आत्मा का आगन्तुक गुण मानते हैं जबकि सांख्यानुसार चेतना पुरुष का स्वभाव है। शंकर ने आत्मा को सच्चिदानन्द व एक माना है जबकि सांख्य का पुरुष संख्या में अनेक है और सत्त्व गुण से उत्पन्न होने वाले आनन्द से भी रहित अर्थात् सत् चित् है।

पुरुष के अस्तित्व की सिद्धि हेतु तर्क-

ईश्वरकृष्ण की सांख्यकारिका में पुरुष की सत्ता सिद्ध करने हेतु पाँच तर्क दिए गए हैं जो निम्नलिखित कारिका में संकलित हैं।

संघातपरार्थत्वात् त्रिगुणादिविपर्ययादधिष्ठानात् ।

पुरुषोऽस्ति भोक्तृभावात् कैवल्यार्थं प्रवृत्तेश्च ॥17॥

संघातपरार्थत्वात्- यह जगत् प्रकृति के तीनों गुणों से निर्मित है और जड़ होने के कारण साधन है। प्रश्न है कि इसका साध्य कौन है? यदि जड़ पदार्थ को ही इसका साध्य मानें तो अनावस्था दोष पैदा होता है। इसका साध्य वही हो सकता है जो चेतन हो तथा भोक्ता हो। यह पुरुष ही है। यह 'प्रयोजनमूलक' प्रमाण है। 

त्रिगुणादिविपर्ययात्- प्रकृति अपने स्वरूप में त्रिगुणात्मक है तथा परिणामी है । तार्किक दृष्टि से त्रिगुण निर्गुण की ओर संकेत करता है और परिणामी अपरिणामी की ओर। यह निस्त्रिगुण तथा अपरिणामी तत्त्व ही पुरुष है। यह पुरुष की सत्ता सिद्धि का 'तर्कशास्त्रीय' तर्क है।

अधिष्ठानात्- कोई भी क्रिया किसी आधार की अपेक्षा रखती है। प्रश्न है कि चिन्तन तथा अनुभव व ज्ञान इत्यादि का अधिष्ठान कौन है? यह प्रकृति नहीं सकती क्योंकि प्रकृति ज्ञेय, विषय तथा जड़ है जबकि यह अधिष्ठान ज्ञाता, विषयी तथा चेतन होना चाहिए। यह अधिष्ठान पुरुष ही है। इस तर्क को 'तत्त्वमीमांसीय' तर्क कहते हैं। 

भोक्तृभावात्- प्रकृति और उसके विचार जड़ होने के कारण भोग्य हैं. अत: भोक्ता की अपेक्षा रखते हैं। इसका भोक्ता वही हो सकता है जो जड़ न हो अर्थात् चेतन हो । यह चेतन भोक्ता पुरुष ही है। इसे 'नीतिपरक प्रमाण' कहते हैं।

कैवल्यार्थं प्रवृत्तेश्च- बहुत से व्यक्ति कैवल्य की प्रवृत्ति से युक्त होते हैं और उसके लिए अत्यधिक प्रयास भी करते हैं। प्रश्न है कि कैवल्य की प्रवृत्ति व प्राप्ति किसे होती है? यह सत्ता पुरुष की ही है। इस तर्क को ‘धार्मिक’ तथा ‘आध्यात्मिक' तर्क कहते हैं।

पुरुष की अनेकता सिद्धि के तर्क-

सांख्य दर्शन जैन, न्याय-वैशेषिक तथा मीमांसा दर्शन के समान आत्मा अनेकता में विश्वास रखता है। पुरुष या आत्मा की अनेकता सिद्ध करने के लिए ही वह तीन तर्क प्रस्तुत करता है जो निम्नलिखित कारिका में संकलित है-

“जननमरणकरणानां प्रतिनियमात् अयुगपत्प्रवृत्तेश्च ।

पुरुष बहुत्वं सिद्धं त्रैगुण्यविपर्ययात् चैव" ॥18॥ 

जननमरणकरणानां प्रतिनियमात्- यदि पुरुष को अनेक न माना जाए तो विभिन्न व्यक्तियों के जन्म, मृत्यु तथा अनुभव अलग-अलग नहीं माने जा सकते हैं जबकि अनुभव से हम जानते हैं कि व्यक्ति के जन्म और मृत्यु आदि भिन्न-भिन्न होते हैं। यदि पुरुष एक ही होता तो एक व्यक्ति के जन्म से सभी जीवित हो जाते और एक ही की मृत्यु से सभी मर जाते।

अयुगपत्प्रवृत्तेश्च- इस तर्क के अनुसार सभी व्यक्तियों की प्रवृत्ति के परस्पर भिन्न होने का यही कारण है कि सभी में भिन्न-भिन्न पुरुष हैं। प्रवृत्ति का अर्थ है मानसिक तथा शारीरिक कर्म। प्रत्येक व्यक्ति के मानसिक तथा शारीरिक कर्म इसलिए परस्पर भिन्न हैं क्योंकि सभी के अन्तःकरण व इन्द्रिय इत्यादि भिन्न-भिन्न हैं। यदि ऐसा न होता तो एक के हँसने से सभी हँसते और एक के गिरने से सभी गिर जाते।

 त्रैगुण्यविपर्ययात्- इस तर्क के अनुसार तीन गुणों की आनुपातिक विभिन्नता पुरुषों की अनेकता सिद्ध करती है। तीनों गुणों की आनुपातिक भिन्नता सर्वप्रथम देवता, मनुष्य व राक्षस योनियों में द्रष्टव्य है क्योंकि देवता सत्त्वप्रधान, मनुष्य रजोगुण प्रधान तथा राक्षस तमोगुण प्रधान होते हैं। पुनः विभिन्न मनुष्यों में भी तीनों गुणों का आनुपातिक वैविध्य दिखाई पड़ता है जिसके आधार पर हम मनुष्यों में विभेद करते हैं। इस विभेद से सिद्ध होता है कि पुरुष अनेक हैं।

तस्माच्च विपर्यासात् सिद्धं साक्षित्वमस्य पुरुषस्य । 

कैवल्यं माध्यस्थ्यं द्रष्टृत्वमकर्तृभावश्च ॥ 19 ॥

और उसके (त्रिगुणादि) के विपरीत स्वभाव वाला होने से इस पुरुष के साक्षी भाव, मध्यस्थ भाव, द्रष्टा भाव और कर्तृत्व का अभाव सिद्ध होता है ।

तस्मात्तत्संयोगादचेतनं चेतनावदिव लिङ्गम् । 

गुणकर्तृत्वेऽपि तथा कर्तेव भवत्युदासीनः ॥ 20 ॥ 

इसलिए यह अचेतन (महदादि) लिङ्गतत्त्व उस चेतन पुरुष के संयोग से चेतन जैसा हो जाता है। गुणों के कर्ता होने पर उदासीन पुरुष भी कर्ता की तरह हो जाता है ।

॥प्रकृतिस्वरूप॥

सांख्य दर्शन के द्वैतवाद में एक तत्त्व प्रकृति है जबकि दूसरा तत्त्व पुरुष। सांख्य-दर्शन प्रकृति के सम्बन्ध में जिन बातों का विश्लेषण करता है, वे हैं-प्रकृति का ज्ञान कैसे होता है, प्रकृति का स्वरूप, प्रकृति की अवस्थाएँ तथा प्रकृति के अस्तित्व के प्रमाण। प्रकृति का ज्ञान कैसे होता है? सांख्य के अनुसार प्रकृति का ज्ञान अनुमान के माध्यम से होता है, जब हम विश्व के मूल कारण की खोज करते हैं। विश्व में दो प्रकार की वस्तुएँ हैं-

(1) स्थूल पदार्थ= जैसे-मिट्टी, पानी, पवन इत्यादि।

(2) सूक्ष्मातिसूक्ष्म पदार्थ = जैसे- इन्द्रिय, मन, अहंकार आदि। विश्व का मूल कारण वही हो सकता है जो इन दोनों प्रकार के पदार्थों को आधार दे सके। यह कारण महाभूत नहीं हो सकते क्योंकि महाभूतों से मन और बुद्धि जैसे सूक्ष्म पदार्थ उत्पन्न नहीं हो सकते। विश्व का कारण पुरुष भी नहीं हो सकता क्योंकि पुरुष शुद्ध चेतन्यस्वरूप है, जबकि विश्व में मिट्टी और जल जैसे स्थूल व जड़ पदार्थ भी हैं। सांख्य के अनुसार प्रकृति ही वह कारण है जो स्थूल तथा सूक्ष्म दोनों प्रकार के पदार्थों का आधार बनने में सक्षम है। अतः जगत् के कारण की खोज की प्रक्रिया में अनुमान के माध्यम से प्रकृति के स्वरूप का ज्ञान होता है। 

प्रकृति का स्वरूप-

सांख्य के अनुसार प्रकृति में अनेक विशेषताएँ हैं। यह नित्य तथा शाश्वत है क्योंकि उत्पत्ति और विनाश से परे है। यह स्वतंत्र है अर्थात् किसी भी तरह आत्मा या पुरुष पर निर्भर नहीं है। यह अचेतन है और इसी कारण विषय अथवा ज्ञेय है, विषयी या ज्ञाता नहीं। इसकी वास्तविक सत्ता है और यह सतत् क्रियाशील है। पुनः प्रकृति सामान्य है न कि विशेष। इन विशेषताओं के कारण प्रकृति को कई नामों से व्यक्त किया गया है जैसे- ‘अव्यक्त' अर्थात् विश्वरूपी कार्य की अव्यक्त अवस्था, ‘प्रधान' अर्थात् विश्व का मूल कारण, 'अजा' अर्थात् नित्य व शाश्वत, 'अनुमान' अर्थात् अनुमानगम्य और 'प्रसवधर्मिणी' अर्थात् परिणामी या जगत् को जन्म देने वाली।

प्रकृति के अस्तित्व के तर्क-

सांख्य दर्शन ने प्रकृति के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए पाँच तर्क प्रस्तुत किए हैं जो ईश्वरकृष्ण कृत सांख्यकारिका की निम्नलिखित कारिका में संकलित किए गए हैं।

“भेदानां परिमाणात् समन्वयात् शक्तितः प्रवृत्तेश्च।

कारणकार्यविभागात् अविभागात् वैश्वरूपस्य”॥ 15 ॥ 

भेदानां परिमाणात्- जगत् के सम्पूर्ण पदार्थ परिमित अर्थात् सीमित हैं। परिमित पदार्थ का है। आधार परिमित को नहीं माना जा सकता क्योंकि इससे अनवस्था दोष उपस्थित होता है। परिमित वस्तु अपरिमित आधार की अपेक्षा रखती है और भेद अभेद की। यह परिमित आधार प्रकृति ही है।

समन्वयात्- जगत् के सभी पदार्थ सुख-दुःख मोहात्मक हैं क्योंकि वे सत्व, रजस् और तमस् नामक गुणों से निर्मित हैं। प्रश्न है कि इन तीनों गुणों को मूल रूप से कौन धारण करता है? पुरुष ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि वह निर्गुण है। अतः तीनों गुणों का समन्वय करने वाली सत्ता प्रकृति ही है।

शक्तितः प्रवृत्तेश्च- कोई भी कार्य तभी उत्पन्न होता है जब उसके लिए समर्थ कारण विद्यमान हो। जगत् में दो प्रकार के पदार्थ हैं-स्थूल पदार्थ तथा सूक्ष्मातिसूक्ष्म पदार्थ। इस जगत् का समर्थ कारण वही हो सकता है जो दोनों को धारण करें। यह कारण महाभूत नहीं हो सकते क्योंकि वे सूक्ष्म पदार्थों को धारण नहीं कर सकते। यह कारण पुरुष भी नहीं हो सकता, क्योंकि शुद्ध चैतन्यस्वरूप होने के कारण वह जड़ पदार्थों को धारण नहीं कर सकता। अतः जगत् का समर्थ कारण प्रकृति ही है।

कार्यकारणविभागात्- सत्कार्यवाद के अनुसार कारण की व्यक्त अवस्था को ही कार्य कहते हैं। अर्थात् व्यक्त कार्य अव्यक्त अवस्था में कारण में ही विद्यमान होते हैं। यह जगत् एक कार्य है। अत: इसके लिए एक कारण चाहिए जिससे यह व्यक्त हुआ है। यह कारण प्रकृति ही है। 

अविभागात् वैश्वरूपस्य- जैसे सोने की अँगूठी गलकर पुनः सोना बन जाती है। प्रश्न है कि प्रलयावस्था में विश्व किसमें लीन होता है? यह कारण प्रकृति ही है। अनुसार कार्य तिरोभूत होकर पुनः कारण में ही लीन हो जाते हैं ।

कारणमस्त्यव्यक्तं प्रवर्तते त्रिगुणतः समुदयाच्च । 

परिणामतः सलिलवत् प्रतिप्रतिगुणाश्रयविशेषात् ॥16॥ 

उपरोक्त भेदादि हेतुओं के कारण अव्यक्त तत्त्व कारणात्मक है, त्रिगुणात्मक होने से तथा एकरूप होने से (व्यक्त तत्त्व) प्रवृत्त होता है और प्रत्येक गुण के आश्रय विशेष के कारण जल की तरह परिणाम में भेद प्रतीत होता है ।

प्रकृति की अनुपलब्धि के आठ कारण-

अतिदूरात् सामीप्यादिन्द्रियघातान्मनोऽनवस्थानात् । 

सौक्ष्म्याद्व्यवधानादभिभवात् समानाभिहाराच्च ॥7॥ 

अत्यन्त दूर होने से, अत्यन्त समीप होने से, इन्द्रियों के सामर्थ्य नष्ट होने से, मन के एक जगह पर न टिकने से, अतिसूक्ष्म होने से, व्यवधान होने से, किसी अन्य से अभिभूत हो जाने से, और अपने सदृश का व्यवहार हो जाने से प्रकृति की सत्ता उपलब्ध होने पर भी अनुपलब्ध हैं ।

प्रकृति की उपलब्धि-

सौक्ष्म्यात्तदनुपलब्धिर्नाभावात् कार्यतस्तदुपलब्धेः । 

महदादि तच्च कार्यं प्रकृतिसरूपं विरूपं च ॥८॥

अतिसूक्ष्म होने के कारण ही प्रकृति की प्रतीति नहीं होती है न कि अभाव के कारण । उस प्रकृति के उपलब्धि उसके कार्य तत्त्वों से हो जाती है और ये कार्य महदादि पञ्चभूतान्त तत्त्व ही हैं, और ये महदादि तत्त्व प्रकृति के विसदृश तथा सदृश रूप वाले हैं ।

व्यक्त और अव्यक्त में असमानता-

हेतुमदनित्यमव्यापि सक्रियमनेकमाश्रितं लिंङ्गम् । 

सावयवं परतत्रं व्यक्तं विपरीतमव्यक्तम् ॥10॥

महदादि पञ्चभूतान्त हेतु से युक्त, अनित्य (उत्पन्न विनाशशील), अव्यापि, सक्रिय, अनेक, आश्रित, लिङ्ग, सावयव और परतत्र है और इसके विपरीत स्वभाव वाला अव्यक्त (प्रकृतितत्त्व) है ।

व्यक्त और अव्यक्त में समानता-

त्रिगुणमविवेकि विषय: सामान्यमचेतनं प्रसवधर्मि । 

व्यक्तं तथा प्रधानं तद्विपरीतस्तथा च पुमान् ॥11॥ 

व्यक्त तत्त्व (महदादि भूतान्त) तथा अव्यक्ततत्त्व (प्रकृति) त्रिगुण, अविवेकि, विषय, सामान्य, अचेतन, प्रसवधर्मी, से युक्त है, और पुरुष तत्त्व इसके विपरीत स्वभाव वाला है ।

अव्यक्त तत्त्व की सिद्धि-

अविवेक्यादेः सिद्धिस्त्रेगुण्यात् तद्विपर्ययाभावात् । 

कारणगुणात्मकत्वात् कार्यस्याव्यक्तमपि सिद्धम् ॥14॥

उपयुक्त अविवेकी आदि स्वरूप महदादि में सिद्ध होते हैं, त्रिगुणात्मक होने से तथा उनके (अव्यक्त) विपर्यय का अभाव हो जाने से और कार्य का कारणगुणात्मक होने से अव्यक्त तत्त्व भी सिद्ध हो जाता है ।

  प्रकृति की दो अवस्थाएँ-

सांख्य के अनुसार प्रकृति की दो अवस्थाएँ हैं-

1. साम्यावस्था 2. वैषम्यावस्था ।

साम्यावस्था में प्रकृति में सरूपपरिणाम सतत् रूप से चलता रहता है। प्रकृति इस समय भी निरन्तर सक्रिय होती है किन्तु इस समय सत्व, रजस् और तमस् गुण अपने-अपने भीतर ही क्रियाशील रहते हैं। यह अवस्था तब बदलती है जब पुरुष की सन्निधि के कारण गुणक्षोभ होता है। इससे सर्वप्रथम रजस् गुण गतिशील होता है और तदुपरान्त तीनों गुण एक-दूसरे के साथ क्रिया-प्रतिक्रिया करते हैं। यही विरूपपरिणाम है जो सृष्टि के लिए उत्तरदायी है। इसी के कारण विश्व की सभी वस्तुओं का निर्माण होता है और उनकी प्रवृत्ति भी उनमें विद्यमान गुणों के अनुपात से निर्धारित होती है ।

प्रकृति के तीन गुण-

“प्रीत्यप्रीतिविषादात्मका: प्रकाशप्रवृत्तिनियमार्थाः । 

अन्योन्याभिभवाश्रयजननमिथुनवृत्तयश्च गुणाः” ॥12॥

सांख्य दर्शन प्रकृति की व्याख्या उसके तीन गुणों के माध्यम से करता है जो न केवल प्रकृति में, बल्कि प्रकृति से उत्पन्न प्रत्येक वस्तु में भी उपस्थित होते हैं। ये सूक्ष्म तथा अतीन्द्रिय हैं, इसीलिये अनुमान के विषय है-      1. सत्त्व- प्रीति, 2. रजस्- अप्रीति, 3. तमस्- विषाद ।

















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