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आधुनिक हिन्दी व्याकरण और रचना

 संज्ञा

१. कार्य और भेद । २. संज्ञा के रूपान्तर (लिंग, वचन और कारक में सम्बन्ध) ३. लिंग । ४. वचन । ५. कारक । ६. पद- परिचय |

१. संज्ञा : कार्य और भेद

'संज्ञा' उस विकारी शब्द को कहते हैं, जिससे किसी विशेष वस्तु, भाव और है, जीव के नाम का बोध हो । यहाँ 'वस्तु' शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में हुआ जो केवल वाणी और पदार्थ का वाचक नहीं, वरन् उनके धर्मों का भी सूचक है । साधारण अर्थ में 'वस्तु' का प्रयोग इस अर्थ में नहीं होता । अतः, वस्तु के अन्तर्गत प्राणी, पदार्थ और धर्म आते हैं। इन्हीं के आधार पर संज्ञा के भेद किये गये हैं ।

संज्ञा के भेद

संज्ञा के भेदों के सम्बन्ध में वैयाकरण एकमत नहीं हैं। पर अधिकतर वैयाकरण संज्ञा के पाँच भेद मानते हैं – (१) जातिवाचक, (२) व्यक्तिवाचक, (३) गुणवाचक, (४) भाववाचक, और (५) द्रव्यवाचक। ये भेद अँग्रेजी के आधार पर हैं; कुछ रूप के अनुसार और कुछ प्रयोग के अनुसार । संस्कृत व्याकरण में 'प्रातिपदिक' नामक शब्दभेद के अन्तर्गत संज्ञा, सर्वनाम, गुणवाचक (विशेषण) आदि आते हैं, क्योंकि वहाँ इन तीन शब्दभेदों का रूपान्तर प्रायः एक ही जैसे प्रत्ययों के प्रयोग से होता है । किन्तु, हिन्दी व्याकरण में सभी तरह की संज्ञाओं को दो भागों में बाँटा गया है— एक, वस्तु की दृष्टि से और दूसरा, धर्म की दृष्टि से-

संज्ञा 

।। धर्म - भाववाचक ।।

।। वस्तु -  व्यक्तिवाचक - जातिवाचक - समूहवाचक - द्रव्यवाचक ।।

इस प्रकार, हिन्दी व्याकरण में संज्ञा के मुख्यतः पाँच भेद हैं— (१) व्यक्तिवाचक, (२) जातिवाचक, (३) भाववाचक, (४) समूहवाचक, और (५) द्रव्यवाचक । पं० गुरु के अनुसार, “समूहवाचक का समावेश व्यक्तिवाचक तथा जातिवाचक में और द्रव्यवाचक का समावेश जातिवाचक में हो जाता है।"

व्यक्तिवाचक संज्ञा

जिस शब्द से किसी एक वस्तु या व्यक्ति का बोध हो, उसे 'व्यक्तिवाचक संज्ञा' कहते हैं। जैसे—राम, गाँधीजी, गंगा, काशी इत्यादि । 'राम', 'गाँधीजी' कहने से एक-एक व्यक्ति का 'गंगा' कहने से एक नदी का और 'काशी' कहने से एक नगर का बोध होता है। व्यक्तिवाचक संज्ञाएँ जातिवाचक संज्ञाओं की तुलना में कम है । दीमशित्स के अनुसार व्यक्तिवाचक संज्ञाएँ निम्नलिखित रूपों में होती है—

१. व्यक्तियों के नाम – श्याम, हरि, सुरेश ।

२. दिशाओं के नाम — उत्तर, पश्चिम, दक्षिण, पूर्व ।

३. देशों के नाम - भारत, जापान, अमेरिका, पाकिस्तान, बर्मा ।

४. राष्ट्रीय जातियों के नाम - भारतीय, रूसी, अमेरिकी ।

५. समुद्रों के नाम - काला सागर, भूमध्य सागर, हिन्द महासागर, प्रशान्त महासागर ।

६. नदियों के नाम — गंगा, ब्रह्मपुत्र, बोल्गा, कृष्णा, कावेरी, सिन्धु । 

७. पर्वतों के नाम — हिमालय, विन्ध्याचल, अलकनन्दा, - कराकोरम ।

८. नगरों, चौकों और सड़कों के नाम-वाराणसी, गया, चाँदनी चौक, हरिसन रोड, अशोक मार्ग ।

९. पुस्तकों तथा समाचारपत्रों के नाम-रामचरितमानस, ऋग्वेद, धर्मयुग, इण्डियन नेशन, आर्यावर्त ।

१०. ऐतिहासिक युद्धों और घटनाओं के नाम- पानीपत की पहली लड़ाई, सिपाही विद्रोह, अक्तूबर क्रान्ति ।

११. दिनों, महीनों के नाम- मई, अक्तूबर, जुलाई, सोमवार, मंगलवार । 

१२. त्योहारों, उत्सवों के नाम-- होली, दीवाली, रक्षाबन्धन, विजयादशमी ।

जातिवाचक संज्ञा

जिन संज्ञाओं से एक ही प्रकार की वस्तुओं अथवा व्यक्तियों का बोध हो, उन्हें 'जातिवाचक संज्ञा' कहते हैं। जैसे—मनुष्य, घर, पहाड़, नदी इत्यादि । 'मनुष्य' कहने से संसार की मनुष्य जाति का, 'घर' कहने से सभी तरह के घरों का, 'पहाड़' कहने से संसार के सभी पहाड़ों का और 'नदी' कहने से सभी प्रकार की नदियों का जातिगत बोध होता है।

जातिवाचक संज्ञाएँ निम्नलिखित स्थितियों की होती हैं-

१. सम्बन्धियों, व्यवसायों, पदों और कार्यों के नाम-बहन, मन्त्री, जुलाहा, प्रोफेसर, ठग ।

२. पशु-पक्षियों के नाम-घोड़ा, गाय, कौआ, तोता, मैना।

३. वस्तुओं के नाम-मकान, कुर्सी, घड़ी, पुस्तक, कलम, टेबुल । 

४. प्राकृतिक तत्त्वों से नाम-तूफान, बिजली, वर्षा, भूकम्प, ज्वालामुखी।

भाववाचक संज्ञा

जिस संज्ञा-शब्द से व्यक्ति या वस्तु के गुण या धर्म, दशा अथवा व्यापार का बोध होता है, उसे 'भाववाचक संज्ञा' कहते हैं। जैसे-लम्बाई, बुढ़ापा, नम्रता, मिठास, समझ, चाल इत्यादि। हर पदार्थ का धर्म होता है। पानी में शीतलता, आग में गर्मी, मनुष्य में देवत्व और पशुत्व इत्यादि का होना आवश्यक है। पदार्थ का गुण या धर्म पदार्थ से अलग नहीं रह सकता। घोड़ा है, तो उसमें बल है, वेग है और आकार भी है। व्यक्तिवाचक संज्ञा की तरह भाववाचक संज्ञा से भी किसी एक ही भाव का बोध होता है। 'धर्म, गुण, अर्थ' और 'भाव' प्रायः पर्यायवाची शब्द है। इस संज्ञा का अनुभव हमारी इन्द्रियों को होता है और प्रायः इसका बहुवचन नहीं होता ।

भाववाचक संज्ञाओं का निर्माण

भाववाचक संज्ञाओं का निर्माण जातिवाचक संज्ञा, विशेषण, क्रिया, सर्वनाम और अव्यय में प्रत्यय लगाकर होता है। उदाहरणार्थ-

(क) जातिवाचक संज्ञा से-बूढ़ा – बुढ़ापा; लड़का मित्रता; दास-दासत्व; पण्डित – पण्डिताई इत्यादि । -लड़कपन; मित्र-

(ख) विशेषण से गर्म-गर्मी; सर्द- सर्दी; कठोर — कठोरता; मीठा- मिठास; चतुर - चतुराई इत्यादि ।

(ग) क्रिया से - घबराना - घबराहट; सजाना सजाना - सजावट; चढ़ना - चढ़ाई; बहना – बहाव; मारना - मार; दौड़ना — दौड़ इत्यादि ।

(घ) सर्वनाम से - अपना-अपनापन, अपनाव;  मम - ममता, ममत्व; निज - निजत्व |

(ङ) अव्यय से—दूर-दूरी; परस्पर-पारस्पर्य; समीप-सामीप्य, निकट नैकट्य; शाबाश - शाबाशी; वाहवाह-वाहवाही इत्यादि ।

भाववाचक संज्ञा में जिन शब्दों का प्रयोग होता है, उनके धर्म में या तो गुण होगा या अवस्था या व्यापार । ऊपर दिये गये उदाहरण इस कथन की पुष्टि करते हैं ।

समूहवाचक संज्ञा

जिस संज्ञा से वस्तु अथवा व्यक्ति के समूह का बोध हो, उसे 'समूहवाचक संज्ञा कहते हैं। जैसे—व्यक्तियों का समूह-सभा, दल, गिरोह; वस्तुओं का समूह – गुच्छा, कुंज, मण्डल, घौद ।

द्रव्यवाचक संज्ञा

जिस संज्ञा से नाप-तौलवाली वस्तु का बोध हो, उसे 'द्रव्यवाचक संज्ञा' कहते हैं। इस संज्ञा का सामान्यतः बहुवचन नहीं होता। जैसे— लोहा, सोना, चाँदी, दूध, पानी, तेल, तेजाब इत्यादि ।

संज्ञाओं का प्रयोग

संज्ञाओं के प्रयोग में कभी-कभी उलटफेर भी हो जाया करता है । कुछ उदाहरण यहाँ दिये जाते हैं-

(क) जातिवाचक : व्यक्तिवाचक—कभी-कभी जातिवाचक संज्ञाओं का प्रयोग व्यक्तिवाचक संज्ञाओं में होता है। जैसे– 'पुरी' से जगन्नाथपुरी का, 'देवी' से दुर्गा का, 'दाऊ' से कृष्ण के भाई बलदेव का, 'संवत्' से विक्रमी संवत् का, 'भारतेन्दु' से बाबू हरिश्चन्द्र का और 'गोस्वामी' से तुलसीदासजी का बोध होता है। इसी तरह, बहुत-सी योगरूढ़ संज्ञाएँ मूल रूप से जातिवाचक होते हुए भी प्रयोग में व्यक्तिवाचक के अर्थ में चली आती हैं। जैसे- गणेश, हनुमान, हिमालय, गोपाल इत्यादि ।

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(ख) व्यक्तिवाचक : जातिवाचक – कभी-कभी व्यक्तिवाचक संज्ञा का प्रयोग जातिवाचक (अनेक व्यक्तियों के अर्थ) में होता है। ऐसा किसी व्यक्ति का असाधारण गुण या धर्म दिखाने के लिए किया जाता है। ऐसी अवस्था में व्यक्तिवाचक संज्ञा जातिवाचक संज्ञा में बदल जाती है । जैसे— गाँधी अपने समय के कृष्ण थे; यशोदा हमारे घर की लक्ष्मी है; तुम कलियुग के भीम हो इत्यादि ।

(ग) भाववाचक : जातिवाचक – कभी-कभी भाववाचक संज्ञा का प्रयोग जातिवाचक संज्ञा में होता है। उदाहरणार्थ – ये सब कैसे अच्छे पहरावे हैं! यहाँ ‘पहरावा' भाववाचक संज्ञा है, किन्तु प्रयोग जातिवाचक संज्ञा में हुआ। 'पहरावे' से 'पहनने के वस्त्र' का बोध होता है ।

२. संज्ञा के रूपान्तर (लिंग, वचन और कारक में सम्बन्ध)

संज्ञा विकारी शब्द है । विकार शब्दरूपों को परिवर्तित अथवा रूपान्तरित करता है । संज्ञा के रूप लिंग, वचन और कारक चिह्नों (परसर्ग) के कारण बदलते हैं।

लिंग के अनुसार

नर खाता है— नारी खाती है ।

लड़का खाता है— लड़की खाती है।

इन वाक्यों में 'नर' पुंलिंग है और 'नारी' स्त्रीलिंग । 'लड़का' पुंलिंग है और 'लड़की' स्त्रीलिंग। इस प्रकार, लिंग के आधार पर संज्ञाओं का रूपान्तर होता है ।

वचन के अनुसार

लड़का खाता है— लड़के खाते हैं ।

लड़की खाती है— लड़कियाँ खाती हैं ।

एक लड़का जा रहा है-तीन लड़के जा रहे हैं।

इन वाक्यों में 'लड़का' शब्द एक के लिए आया है और 'लड़के' एक से अधिक के लिए। 'लड़की' एक के लिए और 'लड़कियाँ' एक से अधिक के लिए व्यवहृत हुआ है। यहाँ संज्ञा के रूपान्तर का आधार 'वचन' है। 'लड़का' एकवचन है और 'लड़के' बहुवचन में प्रयुक्त हुआ है ।

कारक-चिह्नों के अनुसार

लड़का खाना खाता है— लड़के ने खाना खाया ।

लड़की खाना खाती है-लड़कियों ने खाना खाया ।

इन वाक्यों में 'लड़का खाता है' में 'लड़का' पुंलिंग एकवचन है और 'लड़के ने खाना खाया' में भी 'लड़के' पुंलिंग एकवचन है, पर दोनों के रूप में भेद है। इस रूपान्तर का कारण कर्ता कारक का चिह्न 'ने' है, जिससे एकवचन होते हुए भी 'लड़के' रूप हो गया है । इसी तरह, लड़के को बुलाओ, लड़के से पूछो, लड़के का कमरा, लड़के के लिए चाय लाओ इत्यादि वाक्यों में संज्ञा (लड़का-लड़के) एकवचन में आयी है । इस प्रकार, संज्ञा बिना कारक-चिह्न के भी होती है और कारक चिह्नों के साथ भी । दोनों स्थितियों में संज्ञाएँ एकवचन में अथवा बहुवचन में प्रयुक्त होती हैं । उदाहरणार्थ-

बिना कारक-चिह्न के लड़के खाना खाते हैं । (बहुवचन)

लड़कियाँ खाना खाती हैं। (बहुवचन)

कारक-चिह्नों के साथ - लड़कों ने खाना खाया ।

लड़कियों ने खाना खाया ।

लड़कों से पूछो ।

लड़कियों से पूछो ।

इस प्रकार, संज्ञा का रूपान्तर लिंग, वचन और कारक के कारण होता है।

३. लिंग

शब्द की जाति को लिंग कहते हैं ।

संज्ञा के जिस रूप से व्यक्ति या वस्तु की नर या मादा जाति का बोध हो, उसे व्याकरण में 'लिंग' कहते हैं। 'लिंग' संस्कृत भाषा का एक शब्द है, जिसका अर्थ होता है 'चिह्न' या 'निशान' । चिह्न' या 'निशान' किसी संज्ञा का ही होता है। 'संज्ञा' किसी वस्तु के नाम को कहते हैं और वस्तु या तो पुरुषजाति की होगी या स्त्रीजाति की। तात्पर्य यह कि प्रत्येक संज्ञा पुंलिंग होगी या स्त्रीलिंग। संज्ञा के भी दो रूप हैं । एक, अप्राणिवाचक संज्ञा — लोटा, प्याली, पेड़, पत्ता इत्यादि और दूसरा, प्राणिवाचक संज्ञा - घोड़ा घोड़ी, माता-पिता, लड़का-लड़की इत्यादि ।

लिंग के भेद

सारी सृष्टि की तीन मुख्य जातियाँ हैं— (१) पुरुष, (२) स्त्री और (३) जड़ । अनेक भाषाओं में इन्हीं तीन जातियों के आधार पर लिंग के तीन भेद किये गये हैं. (१) पुंलिंग, (२) स्त्रीलिंग और (३) नपुंसकलिंग । अँगरेजी व्याकरण में लिंग का निर्णय इसी व्यवस्था के अनुसार होता है। मराठी, गुजराती आदि आधुनिक आर्यभाषाओं में भी यह व्यवस्था ज्यों-की-त्यों चली आ रही है। इसके विपरीत, हिन्दी में दो ही लिंग–पुंलिंग और स्त्रीलिंग — हैं। नपुंसकलिंग यहाँ नहीं है। अतः, हिन्दी में सारे पदार्थवाचक शब्द, चाहे वे चेतन हों या जड़, स्त्रीलिंग और पुंलिंग, इन दो लिंगों में विभक्त हैं ।

वाक्यों में लिंग-निर्णय

हिन्दी में लिंगों की अभिव्यक्ति वाक्यों में होती है, तभी संज्ञाशब्दों का लिंगभेद स्पष्ट होता है । वाक्यों में लिंग विशेषण, सर्वनाम, क्रिया और विभक्तियों में विकार उत्पन्न करता है। जैसे-

विशेषण में

मोटा-सा आदमी आया है। ('आदमी' पुंलिंग के अनुसार)
यह बड़ा मकान है । ('मकान' पुंलिंग के अनुसार)
यह बड़ी पुस्तक है । ('पुस्तक' स्त्रीलिंग के अनुसार)
यह छोटा कमरा है। ('कमरा' पुंलिंग के अनुसार)
यह छोटी लड़की है। ('लड़की' स्त्रीलिंग के अनुसार)
टिप्पणी- हिन्दी में विशेषण का लिंगभेद इन दो नियमों के अनुसार किया जा सकता है-

(क) आकारान्त विशेषण स्त्रीलिंग में ईकारान्त हो जाता है; जैसे - अच्छा – अच्छी, काला-काली, उजला-उजली, भला-भली, पीला-पीली । 
(ख) अकारान्त विशेषणों के रूप दोनों लिंगों में समान होते हैं; जैसे- मेरी टोपी गोल है। मेरा कोट सफेद है। उसकी पगड़ी लाल है। लड़की सुन्दर है । उसका शरीर सुडौल है । यहाँ सुन्दर, गोल आदि विशेषण हैं ।

सर्वनाम में


मेरी पुस्तक अच्छी है । ('पुस्तक' स्त्रीलिंग के अनुसार ) 
मेरा घर बड़ा  है । ('घर' पुंलिंग के अनुसार )
उसकी कलम खो गयी है।  ('कलम' स्त्रीलिंग के अनुसार ) 
उसका स्कूल बन्द है ।  ('स्कूल' पुंलिंग के अनुसार )
तुम्हारी जेब खाली है ।  ('जेब' स्त्रीलिंग के अनुसार )  
तुम्हारा कोट अच्छा है। ( 'कोट' पुंलिंग के अनुसार )

क्रिया में


बुढ़ापा आ गया । ('बुढ़ापा' पुंलिंग के अनुसार)
सहायता मिली है । ('सहायता' स्त्रीलिंग के अनुसार)
भात पका है। ('भात' पुंलिंग के अनुसार)
दाल बनी है।   ('दाल' स्त्रीलिंग के अनुसार)
 

विभक्ति में


सम्बन्ध - गुलाब का रंग लाल है । ('रंग' पुंलिंग के अनुसार)
आपका चरित्र अच्छा है। ('चरित्र' पुंलिंग के अनुसार)
आपकी नाक कट गयी। ('नाक' स्त्रीलिंग के अनुसार)
सम्बोधन - अधि देवि ! तुम्हारी जय हो ।  ('देवि' स्त्रीलिंग के अनुसार)

तत्सम (संस्कृत) शब्दों का लिंगनिर्णय   संस्कृत पुंलिंग शब्द


पं० कामताप्रसाद गुरु ने संस्कृत शब्दों को पहचानने के निम्नलिखित नियम बताये हैं-

(अ) जिन संज्ञाओं के अन्त में 'त्र' होता है । जैसे—चित्र, क्षेत्र, पात्र, नेत्र, चरित्र, शस्त्र इत्यादि ।

(आ) 'नान्त' संज्ञाएँ। जैसे— पालन, पोषण, दमन, वचन, नयन, गमन, हरण  इत्यादि ।
अपवाद - 'पवन' उभयलिंग है ।

(इ) 'ज' - प्रत्ययान्त संज्ञाएँ। जैसे–जलज, स्वेदज, पिण्डज, सरोज इत्यादि । 

(ई) जिन भाववाचक संज्ञाओं के अन्त में त्व, त्य, व, य होता है । जैसे— सतीत्व, बहूत्व, नृत्य, कृत्य, लाघव, गौरव, माधुर्य इत्यादि ।

(उ) जिन शब्दों के अन्त में 'आर', 'आय', वा 'आस' हो । जैसे— विकार, विस्तार, संसार, अध्याय, उपाय, समुदाय, उल्लास, विकास, ह्रास इत्यादि ।

अपवाद - सहाय (उभयलिंग), आय (स्त्रीलिंग) ।

(ऊ) 'अ' प्रत्ययान्त संज्ञाएँ। जैसे— क्रोध, मोह, पाक, त्याग, दोष, स्पर्श इत्यादि । अपवाद - जय (स्त्रीलिंग), विनय (उभयलिंग) आदि ।

(ऋ) 'त' - प्रत्ययान्त संज्ञाएँ । जैसे—चरित, गणित, फलित, मत, गीत, स्वागत इत्यादि ।

(ए) जिनके अन्त में 'ख' होता है। जैसे – नख, मुख, सुख, दुःख, लेख, मख, शंख इत्यादि ।

संस्कृत स्त्रीलिंग शब्द


पं० कामताप्रसाद गुरु ने संस्कृत स्त्रीलिंग शब्दों को पहचानने के निम्नलिखित नियमों का उल्लेख अपने व्याकरण में किया है-
(अ) आकारान्त संज्ञाएँ। जैसे—दया, माया, कृपा, लज्जा, क्षमा, शोभा इत्यादि । (आ) नाकारान्त संज्ञाएँ। जैसे प्रार्थना, वेदना, प्रस्तावना, रचना, घटना इत्यादि । (इ) उकारान्त संज्ञाएँ। जैसे—वायु, रेणु, रज्जु, जानु, मृत्यु, आयु, वस्तु, धातु, ऋतु इत्यादि ।
अपवाद - मधु, अश्रु, तालु, मेरु, हेतु, सेतु इत्यादि ।
(ई) जिनके अन्त में 'ति' वा 'नि' हो । जैसे—गति, मति, रीति, हानि, ग्लानि, योनि, बुद्धि, ऋद्धि सिद्धि (सिध्+ति = सिद्धि) इत्यादि ।
(उ) 'ता' - प्र(ऋ) 'इमा' – प्रत्ययान्त शब्द । जैसे-महिमा, गरिमा, कालिमा, लालिमा इत्यादि ।
तत्सम पुंलिंग शब्द
चित्र, पत्र, पात्र, मित्र, गोत्र, दमन, गमन, गगन, श्रवण, पोषण, शोषण, पालन, लालन, मलयज, जलज, उरोज, सतीत्व, कृत्य, स्त्रीत्व, लाघव, वीर्य, माधुर्य, कार्य, कर्म, प्रकार, प्रहार, विहार, प्रचार, सार, विस्तार, प्रसार, अध्याय, स्वाध्याय, उपहार, ह्रास, मास, लोभ, क्रोध, बोध, मोद, ग्रन्थ, नख, मुख, शिख, दुःख, सुख, शंख, तुषार, तुहिन, उत्तर, प्रश्न, मस्तक, आश्चर्य, नृत्य, काष्ठ, छत्र, मेघ, कष्ट, प्रहर, सौभाग्य, अंकन, अंकुश, अंजन, अंचल, अन्तर्धान, अन्तस्तल, अम्बुज, अंश, अकाल, अक्षर, कल्मष, कल्याण, कवच, कायाकल्प, कलश, काव्य, कास, गज, गण, ग्राम, गृह, चन्द्र, चन्दन, क्षण, छन्द, अलंकार, सरोवर, परिमाण, परिमार्जन, संस्करण, संशोधन, परिवर्तन, परिवेष्टन, परिशोध, परिशीलन, प्रांगण, प्राणदान, वचन, मर्म, यवन, रविवार, सोमवार, मार्ग, राजयोग, रूप, रूपक, स्वदेश, राष्ट्र, प्रान्त, नगर, देश, सर्प, सागर, साधन, सार, तत्त्व, स्वर्ग, दातव्य, दण्ड, दोष, धन, नियम, पक्ष, पृष्ठ, विधेयक, विनिमय, विनियोग, विभाग, विभाजन, विरोध, विवाद, वाणिज्य, शासन, प्रवेश, अनुच्छेद, शिविर, वाद, अवमान, अनुमान, आकलन, निमन्त्रण, नियन्त्रण, आमन्त्रण, उद्भव, निबन्ध, नाटक, स्वास्थ्य, निगम, न्याय, समाज, विघटन, विसर्जन, विवाह, व्याख्यान, धर्म, वित्त, उपादान, उपकरण, आक्रमण, पर्यवेक्षण, श्रम, विधान, बहुमत, निर्माण, सन्देश, प्रस्ताव, ज्ञापक, आभार, आवास, छात्रावास, अपराध, प्रभाव, उत्पादन, लोक, विराम, परिहार विक्रम, न्याय, संघ, परिवहन, प्रशिक्षण, प्रतिवेदन, संकल्प इत्यादि ।
तत्सम स्त्रीलिंग शब्द
दया, माया, कृपा, लज्जा, क्षमा, शोभा, सभा, प्रार्थना, वेदना, समवेदना, प्रस्तावना, रचना, घटना, अवस्था, नम्रता, सुन्दरता, प्रभुता, जड़ता, महिमा, गरिमा, कालिमा, लालिमा, ईर्ष्या, भाषा, अभिलाषा, आशा, निराशा, पूर्णिमा, अरुणिमा, काया, कला, चपला, अक्षमता, इच्छा, अनुज्ञा, आज्ञा, आराधना, उपासना, याचना, रक्षा, संहिता, आजीविका, घोषणा, गणना, परीक्षा, गवेषणा, नगरपालिका, नागरिकता, योग्यता, सीमा, स्थापना, संस्था, सहायता, मन्त्रणा, मान्यता, व्याख्या, शिक्षा, समता, सम्पदा, संविदा, सूचना, सेवा, सेना, अनुज्ञप्ति, विज्ञप्ति, अनुमति, अभियुक्ति, अभिव्यक्ति, उपलब्धि, विधि, क्षति, पूर्ति, विकृति, चित्तवृत्ति, जाति, निधि, सिद्धि, समिति, नियुक्ति, निवृत्ति, रीति, शक्ति, प्रतिकृति, कृति, प्रतिभूति, प्रतिलिपि, अनुभूति, युक्ति, धृति, हानि, स्थिति, परिस्थिति, विमति, वृत्ति, आवृत्ति, शान्ति, सन्धि, समिति, सम्पत्ति, सुसंगति, कटि, छवि, रुचि, अग्नि, केलि, नदी, नारी, मण्डली, लक्ष्मी, शताब्दी, श्री, कुण्डली, कुण्डलिनी, कौमुदी, गोष्ठी, धात्री, मृत्यु, आयु, वस्तु, ऋतु, रज्जु, रेणु, वायु इत्यादि ।
अपवाद - शशि, रवि, पति, मुनि, गिरि इत्यादि ।
अब हम हिन्दी के तद्भव शब्दों के लिंगविधान पर विचार करेंगे।
तद्भव (हिन्दी) शब्दों का लिंगनिर्णय
तद्भव शब्दों के लिंगनिर्णय में अधिक कठिनाई होती है। तद्भव शब्दों का लिंगभेद, वह भी अप्राणिवाचक शब्दों का, कैसे किया जाय और इसके सामान्य नियम क्या हों, इसके बारे में विद्वानों में मतभेद है। पण्डित कामताप्रसाद गुरु ने हिन्दी केत्यायान्त भाववाचक संज्ञाएँ। जैसे—नम्रता, लघुता, सुन्दरता, प्रभुता, जड़ता इत्यादि ।
(ऊ) इकारान्त संज्ञाएँ । जैसे—निधि, विधि, परिधि, राशि, अग्नि, छवि, केलि, रुचि इत्यादि ।
अपवाद - वारि, जलधि, पाणि, गिरि, अद्रि, आदि, बलि इत्यादि ।
(ऋ) 'इमा' – प्रत्ययान्त शब्द । जैसे-महिमा, गरिमा, कालिमा, लालिमा इत्यादि ।

तत्सम पुंलिंग शब्द


चित्र, पत्र, पात्र, मित्र, गोत्र, दमन, गमन, गगन, श्रवण, पोषण, शोषण, पालन, लालन, मलयज, जलज, उरोज, सतीत्व, कृत्य, स्त्रीत्व, लाघव, वीर्य, माधुर्य, कार्य, कर्म, प्रकार, प्रहार, विहार, प्रचार, सार, विस्तार, प्रसार, अध्याय, स्वाध्याय, उपहार, ह्रास, मास, लोभ, क्रोध, बोध, मोद, ग्रन्थ, नख, मुख, शिख, दुःख, सुख, शंख, तुषार, तुहिन, उत्तर, प्रश्न, मस्तक, आश्चर्य, नृत्य, काष्ठ, छत्र, मेघ, कष्ट, प्रहर, सौभाग्य, अंकन, अंकुश, अंजन, अंचल, अन्तर्धान, अन्तस्तल, अम्बुज, अंश, अकाल, अक्षर, कल्मष, कल्याण, कवच, कायाकल्प, कलश, काव्य, कास, गज, गण, ग्राम, गृह, चन्द्र, चन्दन, क्षण, छन्द, अलंकार, सरोवर, परिमाण, परिमार्जन, संस्करण, संशोधन, परिवर्तन, परिवेष्टन, परिशोध, परिशीलन, प्रांगण, प्राणदान, वचन, मर्म, यवन, रविवार, सोमवार, मार्ग, राजयोग, रूप, रूपक, स्वदेश, राष्ट्र, प्रान्त, नगर, देश, सर्प, सागर, साधन, सार, तत्त्व, स्वर्ग, दातव्य, दण्ड, दोष, धन, नियम, पक्ष, पृष्ठ, विधेयक, विनिमय, विनियोग, विभाग, विभाजन, विरोध, विवाद, वाणिज्य, शासन, प्रवेश, अनुच्छेद, शिविर, वाद, अवमान, अनुमान, आकलन, निमन्त्रण, नियन्त्रण, आमन्त्रण, उद्भव, निबन्ध, नाटक, स्वास्थ्य, निगम, न्याय, समाज, विघटन, विसर्जन, विवाह, व्याख्यान, धर्म, वित्त, उपादान, उपकरण, आक्रमण, पर्यवेक्षण, श्रम, विधान, बहुमत, निर्माण, सन्देश, प्रस्ताव, ज्ञापक, आभार, आवास, छात्रावास, अपराध, प्रभाव, उत्पादन, लोक, विराम, परिहार विक्रम, न्याय, संघ, परिवहन, प्रशिक्षण, प्रतिवेदन, संकल्प इत्यादि ।

तत्सम स्त्रीलिंग शब्द


दया, माया, कृपा, लज्जा, क्षमा, शोभा, सभा, प्रार्थना, वेदना, समवेदना, प्रस्तावना, रचना, घटना, अवस्था, नम्रता, सुन्दरता, प्रभुता, जड़ता, महिमा, गरिमा, कालिमा, लालिमा, ईर्ष्या, भाषा, अभिलाषा, आशा, निराशा, पूर्णिमा, अरुणिमा, काया, कला, चपला, अक्षमता, इच्छा, अनुज्ञा, आज्ञा, आराधना, उपासना, याचना, रक्षा, संहिता, आजीविका, घोषणा, गणना, परीक्षा, गवेषणा, नगरपालिका, नागरिकता, योग्यता, सीमा, स्थापना, संस्था, सहायता, मन्त्रणा, मान्यता, व्याख्या, शिक्षा, समता, सम्पदा, संविदा, सूचना, सेवा, सेना, अनुज्ञप्ति, विज्ञप्ति, अनुमति, अभियुक्ति, अभिव्यक्ति, उपलब्धि, विधि, क्षति, पूर्ति, विकृति, चित्तवृत्ति, जाति, निधि, सिद्धि, समिति, नियुक्ति, निवृत्ति, रीति, शक्ति, प्रतिकृति, कृति, प्रतिभूति, प्रतिलिपि, अनुभूति, युक्ति, धृति, हानि, स्थिति, परिस्थिति, विमति, वृत्ति, आवृत्ति, शान्ति, सन्धि, समिति, सम्पत्ति, सुसंगति, कटि, छवि, रुचि, अग्नि, केलि, नदी, नारी, मण्डली, लक्ष्मी, शताब्दी, श्री, कुण्डली, कुण्डलिनी, कौमुदी, गोष्ठी, धात्री, मृत्यु, आयु, वस्तु, ऋतु, रज्जु, रेणु, वायु इत्यादि ।
अपवाद - शशि, रवि, पति, मुनि, गिरि इत्यादि ।
अब हम हिन्दी के तद्भव शब्दों के लिंगविधान पर विचार करेंगे।
तद्भव (हिन्दी) शब्दों का लिंगनिर्णय
तद्भव शब्दों के लिंगनिर्णय में अधिक कठिनाई होती है। तद्भव शब्दों का लिंगभेद, वह भी अप्राणिवाचक शब्दों का, कैसे किया जाय और इसके सामान्य नियम क्या हों, इसके बारे में विद्वानों में मतभेद है। पण्डित कामताप्रसाद गुरु ने हिन्दी के
तद्भव शब्दों को परखने के लिए पुंलिंग के तीन और स्त्रीलिंग के दस नियमों का उल्लेख अपने 'हिन्दी व्याकरण' में किया है। वे नियम इस प्रकार हैं-

तद्भव पुंलिंग शब्द

(अ) ऊनवाचक संज्ञाओं को छोड़ शेष आकारान्त संज्ञाएँ। जैसे-कपड़ा, गन्ना, पैसा, पहिया, आटा, चमड़ा इत्यादि ।
(आ) जिन भाववाचक संज्ञाओं के अन्त में ना, आव, पन, वा, पा होता है। जैसे—आना, गाना, बहाव, चढ़ाव, बड़प्पन, बढ़ावा, बुढ़ापा इत्यादि ।
(इ) कृदन्त की आनान्त संज्ञाएँ। जैसे—लगान, मिलान, खान, पान, नहान, उठान इत्यादि ।
अपवाद-उड़ान, चट्टान इत्यादि ।

तद्भव स्त्रीलिंग शब्द

(अ) ईकारान्त संज्ञाएँ। जैसे-नदी, चिट्ठी, रोटी, टोपी, उदासी इत्यादि ।
अपवाद - घी, जी, मोती, दही इत्यादि ।
(आ) ऊनवाचक याकारान्त संज्ञाए। जैसे—गुड़िया, खटिया, टिबिया, पुड़िया, ठिलिया इत्यादि ।
(इ) तकारान्त संज्ञाएँ। जैसे-रात, बात, लात, छत, भीत, पत इत्यादि ।
अपवाद - भात, खेत, सूत, गात, दाँत इत्यादि ।
(ई) ऊकारान्त संज्ञाएँ। जैसे-बालू, लू, दारू, ब्यालू, झाड़ू इत्यादि । अपवाद-आँसू, आलू, रतालू, टेसू इत्यादि ।
(उ) अनुस्वारान्त संज्ञाएँ। जैसे—सरसों, खड़ाऊँ, भौं, चूँ, जूँ इत्यादि । अपवाद - गेहूँ ।
(ऊ) सकारान्त संज्ञाएँ। जैसे--प्यास, मिठास, निंदास, रास (लगाम), बाँस, साँस इत्यादि ।
अपवाद- निकास, काँस, रास (नृत्य) ।
(ॠ) कृदन्त नकारान्त संज्ञाएँ, जिनका उपान्त्य वर्ण अकारान्त हो अथवा जिनकी धातु नकारान्त हो । जैसे—रहन, सूजन, जलन, उलझन, पहचान इत्यादि ।
अपवाद - चलन आदि ।
(ए) कृदन्त की अकारान्त संज्ञाएँ। जैसे— लूट, मार, समझ, दौड़, सँभाल, रगड़, चमक, छाप, पुकार इत्यादि ।
अपवाद - नाच, मेल, बिगाड़, बोल, उतार इत्यादि ।
(ऐ) जिन भाववाचक संज्ञाओं के अन्त में ट, वट, हट, होता है। जैसे-सजावट, घबराहट, चिकनाहट, आहट, झंझट इत्यादि ।
(ओ) जिन संज्ञाओं के अन्त में 'ख' होता है। जैसे—ईख, भूख, राख, चीख, काँख, कोख, साख, देखरेख इत्यादि ।
अपवाद-पंख, रूख ।

अर्थ के अनुसार लिंगनिर्णय

कुछ लोग अप्राणिवाचक शब्दों का लिंगभेद अर्थ के अनुसार करते हैं। पं० कामताप्रसाद गुरु ने इस आधार और दृष्टिकोण को 'अव्यापक और अपूर्ण' कहा है; क्योंकि इसके जितने उदाहरण हैं, प्रायः उतने ही अपवाद हैं। इसके अलावा, इसके जो थोड़े-से नियम बने हैं, उनमें सभी तरह के शब्द सम्मिलित नहीं होते । गुरुजी ने इस सम्बन्ध में जो नियम और उदाहरण दिये हैं, उनमें भी अपवादों की भरमार है उन्होंने जो भी नियम दिये हैं, वे बड़े जटिल और अव्यावहारिक हैं । यहाँ इन नियमों का उल्लेख किया जा रहा है--

(क) अप्राणिवाचक पुंलिंग हिन्दी शब्द

१. शरीर के अवयवों के नाम पुंलिंग होते हैं। जैसे—कान, मुँह, दाँत, ओठ, पाँव, हाथ, गाल, मस्तक, तालु, बाल, अँगूठा, मुक्का, नाखून, नथना, गट्टा इत्यादि । अपवाद — कोहनी, कलाई, नाक, आँख, जीभ, ठोड़ी, खाल, बाँह, नस, हड्डी, इन्द्रिय, काँख इत्यादि ।
२. रत्नों के नाम पुंलिंग होते हैं। जैसे—मोती, माणिक, पन्ना, हीरा, जवाहर, मूँगा, नीलम, पुखराज, लाल इत्यादि । अपवाद – मणि, चुन्नी, लाड़ली इत्यादि ।
३. धातुओं के नाम पुंलिंग होते हैं। जैसे-ताँबा, लोहा, सोना, सीसा, काँसा, राँगा, पीतल, रूपा, टीन इत्यादि । अपवाद–चाँदी ।
४. अनाज के नाम पुंलिंग होते हैं। जैसे—जौ, गेहूँ, चावल, बाजरा, चना, मटर, तिल इत्यादि । अपवाद – मकई, जुआर, मूँग, खेसारी इत्यादि ।
५. पेड़ों के नाम पुंलिंग होते हैं । जैसे- पीपल, बड़, देवदारु, चीड़, आम, शीशम, सागौन, कटहल, अमरूद, शरीफा, नीबू, अशोक तमाल, सेब, अखरोट इत्यादि । अपवाद – लीची, नाशपाती, नारंगी, खिरनी इत्यादि ।
६. द्रव्य पदार्थों के नाम पुंलिंग होते हैं। जैसे—पानी, घी, तेल, अर्क, शर्बत, इत्र, सिरका, आसव, काढ़ा, रायता इत्यादि । अपवाद- -चाय, स्याही, शराब ।
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७. भौगोलिक जल और स्थल आदि अंशों के नाम प्रायः पुंलिंग होते हैं। जैसे—देश, नगर, रेगिस्तान, द्वीप, पर्वत, समुद्र, सरोवर, पाताल, वायुमण्डल, नभोमण्डल, प्रान्त इत्यादि ।
अपवाद - पृथ्वी, झील, घाटी इत्यादि ।

(ख) अप्राणिवाचक स्त्रीलिंग हिन्दी शब्द

१. नंदियों के नाम स्त्रीलिंग होते हैं। जैसे—गंगा, यमुना, महानदी, गोदावरी, सतलज, रावी, व्यास, झेलम इत्यादि ।
अपवाद-शोण, सिन्धु, ब्रह्मपुत्र नद हैं, अतः पुंलिंग हैं ।
२. नक्षत्रों के नाम स्त्रीलिंग होते हैं। जैसे- भरणी, अश्विनी, रोहिणी इत्यादि । अपवाद - अभिजित, पुष्य आदि ।
३. बनिये की दूकान की चीजें स्त्रीलिंग हैं। जैसे- लौंग, इलायची, मिर्च, दालचीनी, चिरौंजी, हल्दी, जावित्री, सुपारी, हींग इत्यादि ।

अपवाद - धनिया, जीरा, गर्म मसाला, नमक, तेजपत्ता, केसर, कपूर इत्यादि । ४. खाने-पीने की चीजें स्त्रीलिंग है। जैसे— कचौड़ी, पूरी, खीर, दाल, पकौड़ी, रोटी, चपाती, तरकारी, सब्जी, खिचड़ी इत्यादि ।
अपवाद - पराठा, हलुआ, भात, दही, रायता इत्यादि ।
प्रत्ययों के आधार पर तद्भव हिन्दी शब्दों का लिंगनिर्णय
हिन्दी के कृदन्त और तद्धित-प्रत्ययों में स्त्रीलिंग-पुंलिंग बनानेवाले अलग-अलग प्रत्यय इस प्रकार हैं-
स्त्रीलिंग कृदन्त प्रत्यय - अ, अन्त, आई, आन, आवट, आस, आहट, ई, औती, आवनी, क, की, त, ती, नी इत्यादि हिन्दी कृदन्त प्रत्यय जिन धातु-शब्दों में लगे होते हैं, वे स्त्रीलिंग होते हैं। जैसे—लूट, चमक, देन, भिड़न्त, लड़ाई, लिखावट, प्यास, घबराहट, हँसी, मनौती, छावनी, बैठक, फुटकी, बचत, गिनती, करनी, भरनी ।
द्रष्टव्य – इन स्त्रीलिंग कृदन्त प्रत्ययों में अ, क, और न प्रत्यय कहीं-कहीं पुंलिंग में भी आते हैं और कभी-कभी इनसे बने शब्द उभयलिंग भी होते हैं । जैसे— 'सीवन' ('न'-प्रत्ययान्त) क्षेत्रभेद से दोनों लिंगों में चलता है। शेष सभी प्रत्यय स्त्रीलिंग हैं ।
पुंलिंग कृदन्त प्रत्यय - अक्कड़, आ, आऊ, आक, आकू, आप, आपा, आव, आवना, आवा, इयल, इया, ऊ, एरा, ऐया, ऐत, औता, औना, औवल, क, का, न, वाला, वैया, सार, हा इत्यादि हिन्दी कृदन्त प्रत्यय जिन धातु - शब्दों में लगे हैं, वे पुंलिंग होते हैं। जैसे—पियक्कड़, घेरा, तैराक, लड़ाकू, मिलाप, पुजापा, घुमाव, छलावा, लुटेरा, कटैया, लड़ैत, समझौता, खिलौना, बुझौवल, घालक, छिलका, खान-पान, खानेवाला, गवैया ।
द्रष्टव्य – (१) क और न कृदन्त-प्रत्यय उभयलिंग हैं। इन दो प्रत्ययों और स्त्रीलिंग प्रत्ययों को छोड़ शेष सभी पुंलिंग हैं । (२) 'सार' उर्दू का कृदन्त प्रत्यय है, जो हिन्दी में फारसी से आया है मगर काफी प्रयुक्त है ।
स्त्रीलिंग तद्धित-प्रत्यय – आई, आवट, आस, आहट, इन, एली, औड़ी, औटी, औती, की, टी, ड़ी, त, ती, नी, री, ल, ली इत्यादि हिन्दी तद्धित-प्रत्यय जिन शब्दों में लगे होते हैं, वे स्त्रीलिंग होते हैं। जैसे- भलाई, जमावट, हथेली, टिकली, चमड़ी।
पुंलिंग तद्धित प्रत्यय – आ, आऊ, आका, आटा, आना, आर, इयल, आल, आड़ी, आरा, आलू, आसा, ईला, उआ, ऊ, एरा, एड़ी, ऐत, एला, ऐला, ओटा, ओट, औड़ा, ओला, का, जा, टा, ड़ा, ता, पना, पन, पा, ला, वन्त, वान, वाला, वाँ, वा, सरा, सों, हर, हरा, हा, हारा इत्यादि हिन्दी तद्धित प्रत्यय जिन शब्दों में लगे होते हैं वे शब्द पुंलिंग होते हैं। जैसे—धमाका, खर्राटा, पैताना, भिखारी, हत्यारा, मुँहासा, मछुआ, सँपेरा, गँजेड़ी, डकैत, अधेला, चमोटा, लँगोटा, हथौड़ा, चुपका, दुखड़ा, रायता, कालापन, बुढ़ापा, गाड़ीवान, टोपीवाला, छठा, दूसरा, खण्डहर, पीहर, इकहरा, चुड़िहारा । द्रष्टव्य - १. इया, ई, एर, एल, क तद्धित प्रत्यय उभयलिंग हैं। जैसे—

प्रत्यय         पद           तद्धितपद          लिङ्ग  
।।।।।       ।।।।।            ।।।।                ।।।।
इया           मुख            मुखिया           पुलिङ्ग
 ई             डोर             डोरी               स्त्रीलिंग
एर            मूँड              मुँडेर               स्त्रीलिंग
एल           फूल             फुलेल             पुलिङ्ग
क             पंच              पंचक             पुलिङ्ग

२. विशेषण अपने विशेष्य के लिंग के अनुसार होता है। जैसे—'ल' तद्धित-प्रत्यय संज्ञा - शब्दों में लगने पर उन्हें स्त्रीलिंग कर देता है, मगर विशेषण में— 'घाव+ल=घा- यल' - अपने विशेष्य के अनुसार होगा, अर्थात् विशेष्य स्त्रीलिंग हुआ तो 'घायल' स्त्रीलिंग और पुंलिंग हुआ तो पुंलिंग ।
३. 'क' तद्धित प्रत्यय स्त्रीलिंग है, किन्तु संख्यावाचक के आगे लगने पर उसे पुंलिंग कर देता है । जैसे–चौक, पंचक (पुंलिंग) और ठण्डक, धमक (स्त्रीलिंग) । 'आन' प्रत्यय भाववाचक होने पर शब्द को स्त्रीलिंग करता है, किन्तु विशेषण में विशेष्य के अनुसार । जैसे-लम्बा+आन = लम्बान (स्त्रीलिंग) ।
४. अधिकतर भाववाचक और ऊनवाचक प्रत्यय स्त्रीलिंग होते हैं।
उर्दू-शब्दों का लिंगनिर्णय
उर्दू से होते हुए हिन्दी में अरबी-फारसी के बहुत-से शब्द आये हैं, जिनका व्यवहार हम प्रतिदिन करते हैं। इन शब्दों का लिंगभेद निम्नलिखित नियमों के अनुसार किया जाता है—
पुंलिंग उर्दू शब्द
१. जिनके अन्त में 'आब' हो, वे पुंलिंग हैं। जैसे—गुलाब, जुलाब, हिसाब,
जवाब, कबाब |
अपवाद - शराब, मिहराब, किताब, ताब, किमखाब इत्यादि ।
२. जिनके अन्त में 'आर' या 'आन' लगा हो। जैसे—बाजार, इकरार, इश्तिहार, इनकार, अहसान, मकान, सामान, इम्तहान इत्यादि ।
अपवाद - दूकान, सरकार, तकरार इत्यादि ।
३. आकारान्त शब्द पुंलिंग हैं। जैसे—परदा, गुस्सा, किस्सा, रास्ता, चश्मा, तमगा । (मूलतः ये शब्द विसर्गात्मक हकारान्त उच्चारण के हैं। जैसे—परदः, तम्गः । किन्तु, हिन्दी में ये 'परदा', 'तमगा' के रूप में आकारान्त ही उच्चरित होते हैं ।)
अपवाद - दफा ।
१.
स्त्रीलिंग उर्दू शब्द
ईकारान्त भाववाचक संज्ञाएँ स्त्रीलिंग होती हैं । जैसे— गरीबी, गरमी, सरदी, बीमारी, चालाकी, तैयारी, नवाबी इत्यादि ।
२. शकारान्त संज्ञाएँ स्त्रीलिंग होती हैं। जैसे-नालिश, कोशिश, लाश, तलाश, वारिश, मालिश इत्यादि ।
,
अपवाद - ताश, होश आदि ।
३. तकारान्त संज्ञाएँ स्त्रीलिंग होती हैं। जैसे-दौलत, कसरत, अदालत, इजाजत, कीमत, मुलाकात इत्यादि ।
अपवाद - शरबत, दस्तखत, बन्दोबस्त, वक्त, तख्त, दरख्त इत्यादि ।
४. आकारान्त संज्ञाएँ स्त्रीलिंग होती हैं । जैसे—हवा, दवा, सजा, दुनिया, दगा इत्यादि ।
अपवाद - मजा इत्यादि ।
५. हकारान्त संज्ञाएँ स्त्रीलिंग होती हैं। जैसे—सुबह, तरह, राह, आह, सलाह, सुलह इत्यादि ।
६. 'तफईल' के वजन की संज्ञाएँ स्त्रीलिंग होती हैं। जैसे-तसवीर, तामील, जागीर, तहसील इत्यादि ।
अँगरेजी शब्दों का लिंगनिर्णय
विदेशी शब्दों में उर्दू (फारसी और अरबी) - शब्दों के बाद अँगरेजी शब्दों का प्रयोग भी हिन्दी में कम नहीं होता। जहाँ तक अँगरेजी शब्दों के लिंग-निर्णय का प्रश्न है, मेरी समझ से इसमें कोई विशेष कठिनाई नहीं है; क्योंकि हिन्दी में अधिकतर अँगरेजी शब्दों का प्रयोग पुंलिंग में होता है । इस निष्कर्ष की पुष्टि नीचे दी गयी शब्दसूची से हो जाती है । अतः, इन शब्दों के तथाकथित 'मनमाने प्रयोग' बहुत अधिक नहीं हुए हैं । मेरा मत है कि इन शब्दों के लिंगनिर्णय में रूप के आधार पर अकारान्त, आकारान्त और ओकारान्त को पुंलिंग और ईकारान्त को स्त्रीलिंग समझना चाहिए। फिर भी, इसके कुछ अपवाद तो हैं ही। अँगरेजी के 'पुलिस' (Police) शब्द के स्त्रीलिंग होने पर प्रायः आपत्ति की जाती है। मेरा विचार है कि यह शब्द न तो पुंलिंग है, न स्त्रीलिंग। सच तो यह है कि 'फ्रेण्ड' (Friend) की तरह उभयलिंग है। अब तो स्त्री भी 'पुलिस' होने लगी है। ऐसी अवस्था में जहाँ पुरुष पुलिस का काम करता हो, वहाँ 'पुलिस' पुंलिंग में और जहाँ स्त्री पुलिस का काम करेगी, वहाँ उसका व्यवहार स्त्रीलिंग में होना चाहिए । हिन्दी में ऐसे शब्दों की कमी नहीं है, जिनका प्रयोग दोनों लिंगों में अर्थभेद के कारण होता है। जैसे—टीका, हार, पीठ इत्यादि । ऐसे शब्दों की सूची आगे दी गयी है ।
लिंगनिर्णय के साथ हिन्दी मे प्रयुक्त होनेवाले अँगरेजी शब्दों की सूची निम्नलिखित है-
अकारान्त

अँगरेजी के पुंलिंग शब्द

-ऑर्डर, आयल, ऑपरेशन, इंजिन, इंजीनियर, इंजेक्शन, एडमिशन, एक्सप्रेस, एक्सरे, ओवरटाइम, क्लास, कमीशन, कोट, कोर्ट, कैलेण्डर, कॉलेज, कैरेम, कॉलर, कॉलबेल, काउण्टर, कारपोरेशन, कार्बन, कण्टर', केस, क्लिनिक, क्लिप, कार्ड,
क्रिकेट, गैस, गजट, ग्लास, चेन, चॉकलेट, चार्टर, टॉर्च, टायर, ट्यूब, टाउनहाल, टेलिफोन, टाइम, टाइमटेबुल, टी-कप, ट्रांजिस्टर, टेलिग्राम, ट्रैक्टर, टेण्डर, टैक्स, टूथपाउडर, टिकट, डिवीजन, डान्स, ड्राइंग-रूम, नोट, नम्बर, नेकलेस, थर्मस, पार्क, पोस्ट, पोस्टर, पिंगपौंग, पेन, पासपोर्ट, पार्लियामेण्ट, पेटीकोट, पाउडर, पेंशन, परमिट, प्रोमोशन, प्रोविडेण्ट फण्ड, पेपर, प्रेस, प्लास्टर, प्लग, प्लेग, प्लेट, पार्सल, प्लैटफार्म, फुटपाथ, फुटबॉल, फार्म, फ्रॉक, फर्म, फैन, फ्रेम, फुलपैण्ट, फ्लोर, फैशन, बोर्ड, बैडमिण्टन, बॉर्डर, बाथरूम, बुशशर्ट, बॉक्स, बिल, बोनस, ब्रॉडकास्ट, बजट, बॉण्ड, बोल्डर, ब्रश, ब्रेक, बैंक, बल्ब, बम', मैच, मेल, मीटर, मनिआर्डर, रोड, रॉकेट, रबर, रूल, राशन, रिवेट, रिकार्ड, रिबन, लैम्प, लौंगक्लॉथ, लेजर, लीज, लाइसेन्स, वाउचर, वार्ड, स्टोर, स्टेशनर, स्कूल, स्टोव, स्टेज, स्लीपर, स्टील, स्विच, स्टैण्डर्ड, सिगनल, सेक्रेटैरियट, सैलून, हॉल, होलडॉल, हैंगर, हॉस्पिटल, हेयर, ऑयल, हैण्डिल, लाइट, लेक्चर, लेटर ।
आकारान्त-कोटा, कैमरा, वीसा, सिनेमा, ड्रामा, प्रोपैगैण्डा, कॉलरा, फाइलेरिया, मलेरिया, कारवाँ र ।
ओकारान्त-रेडिओ, स्टूडिओ, फोटो, मोटो, मेमो, वीटो, स्त्रो ।

अँगरेजी के स्त्रीलिंग शब्द

ईकारान्त – एसेम्बली, कम्पनी, केतली, कॉपी, गैलरी, डायरी, डिग्री, टाई, ट्रेजेडी, ट्रेजरी, म्युनिसिपैलिटी, युनिवर्सिटी, बार्ली, पार्टी, लैबोरेटरी ।

हिन्दी के उभयलिंगी शब्द

हिन्दी के कुछ ऐसे अनेकार्थी शब्द प्रचलित हैं, जो एक अर्थ में पुंलिंग और दूसरे अर्थ में स्त्रीलिंग होते हैं। ऐसे शब्द 'उभयलिंगी' कहलाते हैं। 






                                      

कफन – मुंशी प्रेमचन्द्र

कफन - मुंशी प्रेमचन्द्र

झोपडे के द्वार पर बाप और बेटा दोनों एक बुझे हुए अलाव के सामने चुपचाप बैठे हुए हैं और अन्दर बेटे की जवान बीबी बुधिया – प्रसव – वेदना में पछाड खा रही थी । रह – रहकर उसके मुँह से ऐसी दिल हिला देने वाली आवाज निकलती थी , कि दोनों कलेजा थाम लेते थे । जाडों की रात थी , प्रकृति सन्नाटे में डूबी हुई , सारा गाँव अन्धकार मे लय था ।

घीसू ने कहा – मालूम होता है , बचेगी नही । सारा दिन दौडते हो गया , जा देख तो आ ।

माधव चिढकर बोला – मरना हि तो है जल्दी मर क्यों नहीं जाती ? देखकर क्या करूँ ?

तू बडा बेदर्द है बे ! साल भर जिसके साथ सुख चैन से रहा , उसी के साथ इतनी बेवफाई !’

तो मुझसे तो उसका तडपना और हाथ पाँव पटकना नही देखा जाता ।’

चमारों का कुनबा था और सारे गाँव में बदनाम । घीसू एक दिन काम करता तो तीन दिन आराम करता । माधन इतना कामचोर था कि आध घण्टे काम करता तो घण्टे भर चिलम पीता । इसलिए उन्हे कहीं मजदूरी नही मिलती थी । घर में मुठ्ठी भर भी अनाज मौजूद हो तो उनके लिए काम करने की कसम थी । जब दो- चार फाके हो जाते तो घीसू पेड पर चढकर लकडियाँ तोड लाता और माधव बाजार से बेच लाता और जब तक वह पैसे रहते , दोनों इधर – उधर मारे – मारे फिरते । गाँव में काम की कमी न थी । किसानों का गाँव था , मेहनती आदमी के लिए पचास काम थे । मगर इन दोनों को उसी वक्त बुलाते , जब दो आदमियों से एक का काम पाकर भी सन्तोष कर लेने के सिवा और कोई चारा न होता । अगर दोनों साधु होते , तो उन्हें सन्तोष और धैर्य के लिए , संयम और नियम की बिलकुल जरूरत न होती । यह तो इनकी प्रकृति थी । विचित्र जिवन था इनका ! घर में मिट्टी के दो – चार बर्तन के सिवा कोई समपत्ति नहीं । फटे चिथडों से अपनी नग्नता को ढाँके हुए जिये जाते थे । संसार की चिन्ताओं से मुक्त कर्ज से लदे हुए । गालियाँ भी खाते , मार भी खाते , मगर कोई गम नहीं । दीन इतने कि वसूली की बिलकूल आशा न रहने पर भी लोग इन्हें कुछ – न कुछ कर्ज दे देते थे । मटर आलू के फसल में दूसरों के खेतों से मटर या आलू उखाड लाते और भून ड भानकर खा लेते या दस – पाँच ऊख उखाड लाते और रात को चूसते । घीसू ने इसी आकाश – वृत्ति से साठ साल की उम्र काट दी और माधव भी सपूत बेटे की तरह बाप ही के पद – चिह्नों पर चल रहा था , बल्कि उसका नाम और भी उजागर कर रहा था । इस वक्त भी दोनों अलाव के सामने बैठकर आलू भून रहे थे , जो कि किसी खेत से खोद कर लाये थे । घीसू की स्त्री का तो बहुत दिन हुए , देहान्त हो गया था । माधव का ब्याह पिछले साल हुआ था । जब से यह औरत आयी थी , उसने इस खानदान में व्यवस्था की नींव डाली थी और इन दोनों बे- गैरतों का दोजख भरती रहती थी । जब से वह आयी , यह दोनों और भी आरामतलब हो गये थे । बल्कि कुछ अकडऩे भी लगे थे । कोई कार्य करऩे को बुलाता , तो निब्र्याज भाव से दुगुनी मजदूरी माँगते । वही औरत आज प्रसव – वेदना से मर रही थी और यह दोनों इसी इन्तजार में थे कि वह मर जाए , तो आराम से सोयें । घीसू ने आलू निकालकर छीलते हुए कहा-जाकर देख तो, क्या दशा है उसकी ? चुडैल का फिसाद होगा , और क्या ? यहाँ तो ओझा भी एक रूपया माँगता है । माधव को भय था , कि वह कोठरी में गया , तो घीसू आलूओं का बडा भाग साफ कर देगा । बोला – मुझे वहाँ जाते डर लगता है ।
डर किस बात की है , मैं तो यहाँ हूँ ही । तो तुम्ही जाकर देखों न ?’
मेरी औरत जब मरी थी , तो मैं तीन दिन तक उसके पास से हिला नही; फिर मुझसे लजाएगी कि नहीं ? जिसका कभी मुँह नहीं देखा , आज उसका उघडा हुआ बदन देखूँ! उसे तन की सुध भी तो न होगी? मुझे देख लेगी तो खुलकर हाथ-पाँव भी न पटक सकेगी’ मैं सोचता हूँ की कोई बाल-बच्चा हुआ तो क्या होगा? सोंठ , गुड, तेल , कुछ भी तो नही है घर में!.
‘सब कुछ आ जाएगा । भगवाने दें तो! जो लोग अभी एक पैसा नहीं दे रहे हैं वे ही कल बुलाकर रूपये देंगे । मेरे नौ लडके हुए , घर में कभी कुछ न था; मगर भगवान् ने किसी -न किसी तरह बेडा पार ही लगाया ।’ जिस समाज में रात दिन मेहनत करनें वालों की हालत उनकी हालत से कुछ बहुत अच्छी न थी, और किसानों के मुकाबले में वे लोग , जो किसानों की दुर्बलताओं से लाभ उठाना जानते थे , कही ज्यादा सम्पन्न थेे , वहाँ इस तरह की मनोंवृत्ति का पैदा हो जाना कोई अचरज की बात न थी । हम तों कहेगें घीसू किसानों से कहीं ज्यादा विचारवान् था और किसानो के विचार -शून्य समुह में शामिल होने के बदले बैठकबाजों की कुत्सित मण्डली में जामिला था । हाँ उसमें यह शक्ति न थी, कि बैठकबाजो के नियम और नीति का पालन करता । इसलिए जहाँ उसकी मण्डली के और लोग गाँव के सरगना और मुखिया बने हुए थे, उस पर सारा गाँव उँगली उठाता था । फिर भी उसे यह तसकीन तो थी ही कि अगर वह फटेहाल है तो कम-से-कम उसे किसानों की-सी जी -तोड मेहनत तो नहीं करनी पडती , और उसकी सरता और निरीहता से दूसरे लोग बे-वजह फायदा तो नही उठाते! दोनों आलू निकाल-निकालकर जलते-जलते खाने लगे । कल से कुछ नहीं खाया था । इतना सब्र न था कि ठण्डा हो जाने दें । कई बार दोनों की जबानें जल गयीं । छिल जाने पर आलू का बाहरी हिस्सा जबान, हलक और तालू को जला देता था और उस अंगारे को मुँह मे रखने से ज्यादा खैरियत इसी में थी कि वह अन्दर पहुँत जाए । वहाँ उसे ठण्डा करने के लिए काफी समान थे । इसलिए दोनों जल्द-जल्द निगल जाते । हालाँकि इस कोशिश मे उसकी आखों से आँसू निकल आते । घीसू को उस वक्त ठाकुर की बरात याद आयी, जिसमें बीस साल पहले वह गाया था। उस दावत में उसे जो तृप्ति मिली थी, वह उसके जीवन में एक याद रखने लायक़ बात थी, और आज भी उसकी याद ताजी थी, बोला- वह भोज नहीं भूलता। तब से फिर उस तरह का खाना और भरपेट नहीं मिला। लडक़ी वालों ने सबको भर पेट पूडिय़ाँ खिलाई थीं, सबको ! छोटे-बड़े सबने पूडियाँ खायीं और असली घी की ! चटनी, रायता, तीन तरह के सूखे साग, एक रसेदार तरकारी, दही, चटनी, मिठाई, अब क्या बताऊँ कि उस भोज में क्या स्वाद मिला, कोई रोक-टोक नहीं थी, जो चीज़ चाहो, माँगो, जितना चाहो, खाओ। लोगों ने ऐसा खाया, ऐसा खाया, कि किसी से पानी न पिया गया। मगर परोसने वाले हैं कि पत्तल में गर्म-गर्म, गोल-गोल सुवासित कचौडियाँ डाल देते हैं | मना करते हैं कि नहीं चाहिए, पत्तल पर हाथ रोके हुए हैं, मगर वह हैं कि दिये जाते हैं। और जब सबने मुँह धो लिया, तो पान – इलायची भी मिली। मगर मुझे पान लेने की कहाँ सुध थी? खड़ा हुआ न जाता था। चटपट जाकर अपने कम्बल पर लेट गया। ऐसा दिल दरियाव था वह ठाकुर ! माधव ने इन पदार्थों का मन-ही-मन मजा लेते हुए कहा- अब हमें कोई ऐसा भोज नहीं खिलाता।
‘अब कोई क्या खिलाएगा? वह जमाना दूसरा था। अब तो सबको किफायत सूझती है। सादी-ब्याह में मत खर्च करो, क्रिया-कर्म में मत खर्च करो। पूछो, गरीबों का माल बटोर-बटोरकर कहाँ रखोगे? बटोरने में तो कमी नहीं है। हाँ, खर्च में किफायत सूझती है!’
‘तुमने एक बीस पूरियाँ खायी होंगी?’
‘बीस से ज़्यादा खायी थीं!’
‘मैं पचास खा जाता!’
‘पचास से कम मैंने न खायी होंगी। अच्छा पका था। तू तो मेरा आधा भी नहीं है।’
आलू खाकर दोनों ने पानी पिया और वहीं अलाव के सामने अपनी धोतियाँ ओढ़कर पाँव पेट में डाले सो रहे। जैसे दो बड़े-बड़े अजगर गेंडुलिया मारे पड़े हों।
और बुधिया अभी तक कराह रही थी। सबेरे माधव ने कोठरी में जाकर देखा, तो उसकी स्त्री ठण्डी हो गयी थी। उसके मुँह पर मक्खियाँ भिनक रही थीं। पथराई हुई आँखें ऊपर टँगी हुई थीं। सारी देह धूल से लथपथ हो रही थी। उसके पेट में बच्चा मर गया था।
माधव भागा हुआ घीसू के पास आया। फिर दोनों जोर- जोर से हाय-हाय करने और छाती पीटने लगे। पड़ोस वालों ने यह रोना-धोना सुना, तो दौड़े हुए आये और पुरानी मर्यादा के अनुसार इन अभागों को समझाने लगे।
मगर ज़्यादा रोने-पीटने का अवसर न था। कफ़न की और लकड़ी की फ़िक्र करनी थी। घर में तो पैसा इस तरह गायब था, जैसे चील के घोंसले में माँस ?
बाप-बेटे रोते हुए गाँव के जमींदार के पास गये। वह इन दोनों की सूरत से नफ़रत करते थे। कई बार इन्हें अपने हाथों से पीट चुके थे। चोरी करने के लिए, वादे पर काम पर न आने के लिए। पूछा- क्या है बे घिसुआ, रोता क्यों है? अब तो तू कहीं दिखलाई भी नहीं देता! मालूम
होता है, इस गाँव में रहना नहीं चाहता। घीसू ने ज़मीन पर सिर रखकर आँखों में आँसू भरे हुए कहा-सरकार! बड़ी विपत्ति में हूँ । माधव की घरवाली रात को गुजर गयी। रात-भर तड़पती रही सरकार! हम दोनों उसके सिरहाने बैठे रहे। दवा-दारू जो कुछ हो सका, सब कुछ किया, मुदा वह हमें दगा दे गयी। अब कोई एक रोटी देने वाला भी न रहा मालिक! तबाह हो गये। घर उजड़ गया। आपका ग़ुलाम हूँ, अब आपके सिवा कौन उसकी मिट्टी पार लगाएगा। हमारे हाथ में तो जो कुछ था, वह सब तो दवा-दारू में उठ गया। सरकार ही की दया होगी, तो उसकी मिट्टी उठेगी। आपके सिवा किसके द्वार पर जाऊँ । जमींदार साहब दयालु थे। मगर घीसू पर दया करना काले कम्बल पर रंग चढ़ाना था। जी में तो आया, कह दें, चल, दूर हो यहाँ से। यों तो बुलाने से भी नहीं आता, आज जब गरज पड़ी तो आकर खुशामद कर रहा है। हरामखोर कहीं का, बदमाश! लेकिन यह क्रोध या दण्ड देने का अवसर न था। जी में कुढ़ते हुए दो रुपये निकालकर फेंक दिए। मगर सान्त्वना का एक शब्द भी मुँह से न निकला। उसकी तरफ ताका तक नहीं। जैसे सिर का बोझ उतारा हो । जब जमींदार साहब ने दो रुपये दिये, तो गाँव के बनिये- महाजनों को इनकार का साहस कैसे होता? घीसू जमींदार के नाम का ढिंढोरा भी पीटना जानता था। किसी ने दो आने दिये, किसी ने चारे आने। एक घण्टे में घीसू के पास पाँच रुपये की अच्छी रकम जमा हो गयी। कहीं से अनाज मिल गया, कहीं से लकड़ी। और दोपहर को घीसू और माधव बाज़ार से कफ़न लाने चले। इधर लोग बाँस-वाँस काटने लगे।
गाँव की नर्मदिल स्त्रियाँ आ-आकर लाश देखती थीं और उसकी बेकसी पर दो बूँद आँसू गिराकर चली जाती थीं।
3
बाज़ार में पहुँचकर घीसू बोला- लकड़ी तो उसे जलाने- भर को मिल गयी है, क्यों माधव!
माधव बोला- हाँ, लकड़ी तो बहुत है, अब कफ़न चाहिए।
‘तो चलो, कोई हलका-सा कफ़न ले लें।’ ‘हाँ, और क्या! लाश उठते-उठते रात हो जाएगी। रात को कफ़न कौन देखता है?’
‘कैसा बुरा रिवाज है कि जिसे जीते जी तन ढाँकने को चीथड़ा भी न मिले, उसे मरने पर नया कफ़न चाहिए।’
‘कफ़न लाश के साथ जल ही तो जाता है । ‘
‘और क्या रखा रहता है? यही पाँच रुपये पहले मिलते, तो कुछ दवा-दारू कर लेते।’
दोनों एक-दूसरे के मन की बात ताड़ रहे थे। बाज़ार में इधर-उधर घूमते रहे। कभी इस बजाज की दूकान पर गये, कभी उसकी दूकान पर ! तरह-तरह के कपड़े, रेशमी और सूती देखे, मगर कुछ जँचा नहीं । यहाँ तक कि शाम हो गयी। तब दोनों न जाने किस दैवी प्रेरणा से एक मधुशाला के सामने जा पहुँचे। और जैसे किसी पूर्व निश्चित व्यवस्था से अन्दर चले गये। वहाँ जरा देर तक दोनों असमंजस में खड़े रहे। फिर घीसू ने गद्दी के सामने जाकर कहा-साहूजी, एक बोतल हमें भी देना । उसके बाद कुछ चिखौना आया, तली हुई मछली आयी और दोनों बरामदे में बैठकर शान्तिपूर्वक पीने लगे।
कई कुज्जियाँ ताबड़तोड़ पीने के बाद दोनों सरूर में आ गये। घीसू बोला-कफ़न लगाने से क्या मिलता ? आखिर जल ही तो जाता। कुछ बहू के साथ तो न जाता । , माधव आसमान की तरफ देखकर बोला, मानों देवताओं को अपनी निष्पापता का साक्षी बना रहा हो- दुनिया का दस्तूर है, नहीं लोग बाँभनों को हजारों रुपये क्यों दे देते हैं? कौन देखता है, परलोक में मिलता है या नहीं! ‘बड़े आदमियों के पास धन है, फूँके। हमारे पास फूँकने को क्या है?’ ‘लेकिन लोगों को जवाब क्या दोगे? लोग पूछेंगे नहीं, कफ़न कहाँ है?’ घीसू हँसा-अबे, कह देंगे कि रुपये कमर से खिसक गये। बहुत ढूँढ़ा, मिले नहीं। लोगों को विश्वास न आएगा, लेकिन फिर वही रुपये देंगे। माधव भी हँसा – इस अनपेक्षित सौभाग्य पर । बोला- बड़ी अच्छी थी बेचारी! मरी तो खूब खिला-पिलाकर! आधी बोतल से ज़्यादा उड़ गयी। घीसू ने दो सेर पूडियाँ मँगाई | चटनी, अचार, कलेजियाँ। शराबखाने के सामने ही दूकान थी। माधव लपककर दो पत्तलों में सारे सामान ले आया। पूरा डेढ़ रुपया खर्च हो गया। सिर्फ थोड़े से पैसे बच रहे। दोनों इस वक्त इस शान में बैठे पूडियाँ खा रहे थे जैसे जंगल में कोई शेर अपना शिकार उड़ा रहा हो। न जवाबदेही का खौफ था, न बदनामी की फ़िक्र। इन सब भावनाओं को उन्होंने बहुत पहले ही जीत लिया था। घीसू दार्शनिक भाव से बोला- हमारी आत्मा प्रसन्न हो रही है तो क्या उसे पुन्न न होगा? माधव ने श्रद्धा से सिर झुकाकर तसदीक़ की जरूर-से- जरूर होगा। भगवान्, तुम अन्तर्यामी हो। उसे बैकुण्ठ ले जाना। हम दोनों हृदय से आशीर्वाद दे रहे हैं। आज जो भोजन मिला वह कभी उम्र भर न मिला था। एक क्षण के बाद माधव के मन में एक शंका जागी। बोला- क्यों दादा, हम लोग भी एक न एक दिन वहाँ जाएँगे ही? घीसू ने इस भोले-भाले सवाल का कुछ उत्तर न दिया । वह परलोक की बातें सोचकर इस आनन्द में बाधा न डालना चाहता था। ‘जो वहाँ हम लोगों से पूछे कि तुमने हमें कफ़न क्यों नहीं दिया तो क्या कहोगे?’ ‘कहेंगे तुम्हारा सिर!’ ‘पूछेगी तो जरूर !’ ‘तू कैसे जानता है कि उसे कफ़न न मिलेगा? तू मुझे ऐसा गधा समझता है? साठ साल क्या दुनिया में घास खोदता रहा हूँ? उसको कफ़न मिलेगा और बहुत अच्छा मिलेगा!’ माधव को विश्वास न आया। बोला- कौन देगा? रुपये तो तुमने चट कर दिये। वह तो मुझसे पूछेगी। उसकी माँग में तो सेंदुर मैंने डाला था। ‘कौन देगा, बताते क्यों नहीं?’ ‘वही लोग देंगे, जिन्होंने अबकी दिया। हाँ, अबकी रुपये हमारे हाथ न आएँगे।’ ‘ज्यों-ज्यों अँधेरा बढ़ता था और सितारों की चमक तेज होती थी, मधुशाला की रौनक भी बढ़ती जाती थी। कोई गाता था, कोई डींग मारता था, कोई अपने संगी के गले लिपटा जाता था। कोई अपने दोस्त के मुँह में कुल्हड़ लगाये देता था। वहाँ के वातावरण में सरूर था, हवा में नशा । कितने तो यहाँ आकर एक चुल्लू में मस्त हो जाते थे। शराब से ज़्यादा यहाँ की हवा उन पर नशा करती थी। जीवन की ज़्यादा यहाँ की हवा उन पर नशा करती थी। जीवन की बाधाएँ यहाँ खींच लाती थीं और कुछ देर के लिए यह भूल जाते थे कि वे जीते हैं या मरते हैं। या न जीते हैं, न मरते हैं। और यह दोनों बाप-बेटे अब भी मजे ले-लेकर चुसकियाँ रहे थे। सबकी निगाहें इनकी ओर जमी हुई थीं। दोनों कितने भाग्य के बली हैं! पूरी बोतल बीच में है। भरपेट खाकर माधव ने बची हुई पूडिय़ों का पत्तल उठाकर एक भिखारी को दे दिया, जो खड़ा इनकी ओर भूखी आँखों से देख रहा था। और देने के गौरव, आनन्द और उल्लास का अपने जीवन में पहली बार अनुभव किया। घीसू ने कहा-ले जा, खूब खा और आशीर्वाद दे! जिसकी कमाई है, वह तो मर गयी। मगर तेरा आशीर्वाद उसे ज़रूर पहुँचेगा। रोयें- रोयें से आशीर्वाद दो, बड़ी गाढ़ी कमाई के पैसे हैं! माधव ने फिर आसमान की तरफ देखकर कहा-वह बैकुण्ठ में जाएगी दादा, बैकुण्ठ की रानी बनेगी। घीसू खड़ा हो गया और जैसे उल्लास की लहरों में तैरता हुआ बोला-हाँ, बेटा बैकुण्ठ में जाएगी। किसी को सताया नहीं, किसी को दबाया नहीं। मरते-मरते हमारी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी लालसा पूरी कर गयी। वह न बैकुण्ठ जाएगी तो क्या ये मोटे-मोटे लोग जाएँगे, जो गरीबों को दोनों हाथों से लूटते हैं, और अपने पाप को धोने के लिए गंगा में नहाते हैं और मन्दिरों में जल चढ़ाते हैं? श्रद्धालुता का यह रंग तुरन्त ही बदल गया । अस्थिरता नशे की ख़ासियत है। दुःख और निराशा का दौरा हुआ। माधव बोला-मगर दादा, बेचारी ने ज़िन्दगी में बड़ा दुःख भोगा। कितना दुःख झेलकर मरी! वह आँखों पर हाथ रखकर रोने लगा। चीखें मार- मारकर। घीसू ने समझाया-क्यों रोता है बेटा, खुश हो कि वह माया-जाल से मुक्त हो गयी, जंजाल से छूट गयी। बड़ी भाग्यवान थी, जो इतनी जल्द माया-मोह के बन्धन तोड़ दिये। और दोनों खड़े होकर गाने लगे- ‘ठगिनी क्यों नैना झमकावे! ठगिनी। पियक्कड़ों की आँखें इनकी ओर लगी हुई थीं और यह दोनों अपने दिल में मस्त गाये जाते थे। फिर दोनों नाचने लगे। उछले भी, कूदे भी। गिरे भी, मटके भी। भाव भी बताये, अभिनय भी किये । और आखिर नशे में मदमस्त होकर वहीं गिर पड़े। 

मध्यकालीन हिन्दी कविता

मध्यकालीन हिन्दी कविता

हिन्दी कविता की एक हजार वर्षो की विकास-यात्रा में मध्यकालीन काव्य को साहित्य की प्रवृत्तियों के आधार पर भक्तिकाल और रीतिकाल के रूप में अभिहित किया जाता हैं । कालक्रम की दृष्टि से भक्तिकाल पूर्वमध्य काल और रीतिकाल उत्तर मध्यकाल कहा जाता है ।

मध्यकाल भारत में सामाजिक राजनीतिक दृष्टि से उथल पुथल भरा और संघर्षो का काल रहा है । मध्य-पूर्व एशिया के देशों से शासन के रूप में एक विभिन्न जाति के आगमन से भारत में परिवर्तन की तेज लहर दृष्टिगत होती है ।

राजनीतिक पटल पर मुस्लिम और हिन्दू शासकों और सामंतों के बीच राजनीतिक सत्ता के लिए संघर्ष चला । सामाजिक सत्ता पारम्परिक वर्णाश्रम व्यवस्था के अनुसार तथोक्त ऊँची जातियों के पास थी ।

सामाजिक रूप से निम्न स्तर पर जीवन जिनें वाली जातियों की बडी संख्या थी । वर्ण व्यवस्था से बाहर पडी हुई दलित जातियाँ भी थी । मुस्लिम धर्म आने के बाद मुस्लिम धर्म एक विकल्प के रूप में इन जातियों के लोगों को सुलभ हो गया ।

बहुत सी अस्पृश्य या दलित जातियों ने धर्मान्तरण कर स्लाम को स्वीकार कर लिया था । समाज में सामाजिक दृष्टि से नए ढंग की गतिशीलता दिखाई पडती है । इनमें नया सामाजिक आत्मविश्वास दिखाई देता है ।

इस काल के कविता के भावबोध में अपनी पूर्ववर्ती कविता की तुलना में आए परिवर्तन को लक्ष्य करते हुए ग्रियर्सन ने लिखा है , कोई भी मनुष्य जिसे प्रन्द्रहवीं तथा बाद की शताब्दियों का साहित्य पढने का मौका मिला है , उस भारी व्यवधान को लक्ष्य किए बिना नही रह सकता , जो पुरानी और नई धार्मिक भावनाओॆ में विद्यमान है ।

हम अपने को ऐसे धार्मिक आंदोलन के सामने पाते हैं , जो उन सब आंदोलनों से कहीं अधिक व्यापक और विशाल है , क्योकि इसका प्रभाव आज भी विद्यमान है । इस युग में धर्म ज्ञान का नहीं बल्कि भावावेश का विषय गो गया था ।

हिन्दी कविता के भाव-बोध में आए इस बदलाव को चिह्नित करते हुए चिन्तकों – आलोचकों ने इसे भक्तिकाल नाम दिया । उत्तर भारत में इस भक्तिकाल के उद्भव और विकास को लेकर आलोचकों में मैतक्य नहीं है ।

भक्ति के उदय के सम्बन्ध में आ.रामचन्द्र शुक्ल देश में इस्लामी राज्य सत्ता की प्रतिष्ठा को मानते है । इससे हिन्दू जनता के हृदय में हताशा , निराशा फैल गई थीं । इस हताश-निराश जाति के सामने ईश्वर के सामनें जाने के सिवा रास्ता क्या था ? जबकि आ,हजारी प्रसाद द्विवेदी का मत है कि भारत में इस्लाम नहीं भी आया होता तों भी भक्तिकाल अपनी स्वाभाविक गति से आता । वह इसे भारतीय चिंता की प्राणधारा का सामाजिक विकास मानते है ।

हिन्दी के भक्ति काल के साहित्य की शुरूआत इसी नीची समझने जाने वाली जातियों में जन्मे लोगों के सांस्कृतिक विकास से हुई । इनके ऊपर नए इस्लाम धर्म के साथ साथ पूर्व के सिद्ध और नाथ कवियों व सन्तों का प्रभाव पडा ।

उत्तर भारत में भक्ति का प्रारम्भ निर्गुण भक्तों / सन्तों से माना जाता है । ये सभी सन्त प्रायः सामाजिक रूप से पिछडीं जातियों में उत्पन्न थे । इन सन्तों ने समाज में व्याप्त सामाजिक स्तर भेद , असमानता और ऊँच – नीच की भावना को धर्म – विरूद्ध माना । वेद और धर्मशास्त्रों के नाम पर प्रचलित धार्मिक- सामाजिक मान्यताओं और रूढियों का तीव्र खण्डन किया सन्तों ने । ब्राह्मण और शूद्र की मानवीय समानता की घोषणा भक्त सन्तों ने की । इन्होनें रहनी अर्थात् आचार व्यवहार री शुद्धता को प्रमुखता दी । ईश्वर उनके लिए त्राता के रूप में नहीं बल्कि मित्र या प्रियतम के रूप में काम्य है । इन सन्तों के द्वारा रचित दोहों या पदों को निर्गुण भक्ति – काव्य के अन्तर्गत गिना जाता है ।

भक्तिकाल को राम विलास शर्मा ‘लोक जागरण’ कहते हैं तो नामवर सिंह इसे ‘सांस्कृतिक आंदोलन’ मानते हैं। नामवर सिंह के अनुसार – “भक्तिकाल एक व्यापक सांस्कृतिक आन्दोलन था, जिसके मूल में यह धारणा निहित थी कि विद्यमान व्यवस्था में कहीं कोई भारी गड़बड़ी हो गई है। सभी भक्त कवियों की रचनाओं में इस प्रकार के भाव मिलते हैं। इस गड़बड़ी के कारणों और इनसे उबरने के उपायों के संबंध में मतभेद है। निर्गुण शाखा के कवि इसमें परिवर्तन चाहते थे और धार्मिक बाह्याचार को इसका कारण समझते थे। सगुण मत वालों के अनुसार इस बुराई की जड़ यह है कि वर्णाश्रम व्यवस्था में शिथिलता आ गई है, सभी वर्णों के लोग अपने कर्त्तव्य से च्युत हो गए हैं। इसलिए इसको सुधारने का तरीका यह है कि इस व्यवस्था को फिर से पुराने आदर्श के अनुसार ढाला जाए।

भक्ति काल के साहित्य को प्रायः दो कोटियों में विभाजित किया जाता है “निर्गुण भक्ति साहित्य और सगुण भक्ति साहित्य। निर्गुण भक्ति साहित्य को भी सन्त काव्य और सूफी काव्य में विभाजित किया जाता है। सन्त साहित्य में सामाजिक असन्तोष का स्वर बहुत तीव्र है। वर्णाश्रम व्यवस्था और जाति-पाँति आधारित समाज-व्यवस्था सन्त कवियों को स्वीकार नहीं थी। सूफी साहित्य में लोक में प्रचलित प्रेम कथानकों को आधार बनाकर प्रेमाख्यानों की रचना की गई। भक्ति आन्दोलनों की शुरुआत निर्गुण मत वालों के साथ हुई और सगुण मत के भक्तों ने उसे पर्याप्त विकसित किया।

सगुण भक्ति को राम और कृष्ण के साकार रूप की आराधना के आधार पर राम भक्ति और कृष्ण भक्ति शाखा के रूप में पहचान मिली। इसके मूल में अवतारवाद की कल्पना और पुनर्जन्म में विश्वास है। राम के प्रति वैधीभक्ति और कृष्ण के प्रति रागानुगा भक्तिपूरित रचनाएं लिखी गईं। ये भगवान के रूप को मानवीय और उनसे सम्बन्ध को व्यक्तिगत रूप में स्वीकारते हैं। सूरदास, मीरा, रसखान आदि कृष्णभक्ति के प्रमुख कवि हैं। कृष्ण भक्ति शाखा के सूरदास की भक्ति में ‘भावाकुल व्यक्तिवाद’ मिलता है। रामभक्ति शाखा के तुलसीदास प्रमुख कवि हैं। इनमें ‘मर्यादावाद’ प्रमुख है (आचार्य रामचंद्र शुक्ल सूरदास को ‘लोकमंगल की सिद्धावस्था’ और तुलसीदास को ‘लोकमंगल की साधनावस्था’ का कवि मानते हैं ।

ढाई-तीन सौ वर्षों के भक्तिकाल को हिन्दी का स्वर्ण-युग कहा जाता है। इसी काल में कबीर ने कहा “संस्कीरत कूप जल भाखा बहता नीर”। लगभग सभी भक्त-कवि इस बात पर सहमत हैं। सभी ने लोकभाषा या देशभाषा की श्रेष्ठता को स्वीकारा। संस्कृत की श्रेष्ठता के बाद भी भक्त कवियों ने लोकभाषा में रचनाएं कीं। कबीर ने पंचमेल सधुक्कड़ी, जायसी और तुलसी ने अवधी, मीराँ ने राजस्थानी और सूरदास ने ब्रजभाषा में काव्य लिखा।

इस समय तक ब्रजभाषा काव्यभाषा के रूप में सर्वस्वीकृत हो चुकी थी। अवधी में ‘रामचरित मानस जैसा महाकाव्य रचने वाले तुलसीदास को भी अपनी निपुणता दिखाने के लिए ब्रजभाषा में काव्य रचना करनी पड़ी। भक्तिकाल पर टिप्पणी करते हुए नामवर सिंह कहते हैं “यह एक ऐसा दौर था, जिसमें पहली बार आम जनता सांस्कृतिक मोर्चे पर सक्रिय हुई। उसने पहली बार अपने संत और कवि पैदा किए। चमार (रैदास), जुलाहे (कबीर), डोम (नाभादास), धुनिया (दाइ), छीपी (नामदेव), नाई (सेन), कसाई (सधना) आदि ने अपनी आशाओं और आकांक्षाओं को वाणी दी।

भक्ति काल का आरम्भिक उल्लास और जीवंतता प्रायः मंद पड़ने लगी। सामाजिक असंतोष को वाणी देने वाली ऊर्जा धीरे-धीरे शिथिल पड़ने लगी। भक्ति की लौ मंद पड़ने लगी। ऐहिकता बढ़ने लगी। संघर्ष का दौर खत्म हो चुका था। राजनीति में भी संघर्ष की जगह ऐश्वर्य-विलास ने ले ली थी। इस प्रवृत्ति पर टिप्पणी करते हुए नामवर सिंह कहते हैं – “साहित्य जहाँ उत्पादक वर्ग से सम्बन्धित था, वहाँ अब उपभोक्ता वर्ग के विलास की वस्तु बनने लगा। कवि झोंपड़ी छोड़कर राजमहलों में पहुँचने लगे। इससे हिन्दी कविता में एक नई प्रवृत्ति शुरू हुई।”

भक्तिकाल की कविता के केन्द्र में ईश्वर था, यद्यपि ईश्वर की लीलाभूमि यह जगत् था। इसलिए भक्तिकालीन काव्य के ईश्वरोन्मुख होने के कारण ‘प्राकृत जनों का गुणगान करने से काव्य-कर्म के सांसारिक होने का भय था। कवियों के लिए यह देस ‘बिराना’ था अर्थात् संसार त्याज्य था। संसार सुन्दर होते हुए भी त्याग की वस्तु था। पर जैसे ही ईश्वर के प्रति आस्था क्षीण हुई, काव्य-विषय भी बदला। ‘राधा-कन्हाई’ कविता के केन्द्र में होते हुए सुमिरन के बहाने हो गए। राधा-कृष्ण के प्रेम की आड़ में कवियों ने लौकिक श्रृंगार के फुटकर पदों की रचना प्रारम्भ कर दी।

उत्तर-मध्यकाल के आते आते राजनीतिक संघर्ष सीमित होने लगा था। मुगल साम्राज्य का वैभव स्थापित हो चुका था। यह समृद्धि और विकास का समय है। भक्तिकाल से यह इसी अर्थ में भिन्न है कि इसमें विलासिता ही मुख्य कर्म हो गया। नवाब, सामंत, मनसबदार, जागीरदार सभी आकंठ भोगविलास में डूबे हुए थे ।

हिन्दी में रीति-काव्य के विकसित होने के बहुत से कारण बताए जाते हैं। हला है – संस्कृत में इसकी लम्बी परंपरा, दूसरा है – भाषा कवियों को मिलने वाला राज्याश्रय। काव्य-रचना भी इस विलासतापूर्ण जीवन में शामिल हो गई। कुछ राजा भी स्वयं काव्य-रचना का शौक रखते थे। जो शासक स्वयं कवि-कर्म न कर पाते, वे कवियों को आश्रय देते। राज्याश्रय प्राप्त कर कवि उन्हें रिझाने के लिए काव्य रचने लगे। इससे इस काल में काव्य-सृजन स्वयं उद्देश्य बन गया। काव्य के बाहर काव्य का प्रयोजन सीमित हो जाने से काव्य के विषय-वस्तु और काव्य-उपादान भी सीमित हो गए। कविता लोक जीवन से कटकर दरबारों की सजावट की वस्तु बन गई। आश्रयदाता को संतुष्ट करना कवियों का उद्देश्य बन गया। इस काल की कविता पर नामवर सिंह कहते हैं – “इस दौर में दरबारी कवियों को फारसी की प्रेमपूर्ण कविता का भी मुकाबला करना था।

रीतिकाल के कवियों के सामने फारसी के कवि आदर्श और चुनौती थे। इन सब का परिणाम यह निकला कि सीमित उपादानों में कवि-प्रतिभा कुंठित होने लगी।” इस युग की कविता पर टिप्पणी करते हुए ठाकुर ने लिखा कि – “मीन मृग खंजन कमल नैन’ और ‘जस और प्रताप की कहानी’ सीखकर ‘लोगन कवित्त कीबो खेल करि जानो है।”

केशवदास की ‘कवि प्रिया’ और ‘रसिक प्रिया’ से रीतिकालीन कविता का प्रारम्भ माना जाता है। लक्षण ग्रन्थों की रचना-परंपरा चिंतामणि त्रिपाठी से चली। इसके बाद तो लक्षण ग्रन्थों की बाढ़ सी आ गई। इससे कविता लिखने की एक विशिष्ट रूढ़ि बन गई। लक्षण ग्रन्थकर्त्ता पहले एक छंद में किसी रस, छंद या अलंकार के लक्षण बता देते फिर उसी के उदाहरण रूप में मुक्तक कविता लिख देते। कहने की जरूरत नहीं कि संस्कृत साहित्य में कवि और शास्त्रकार दो भिन्न व्यक्ति हुआ करते थे । प्रायः आचार्य अपने सिद्धांत की स्थापना के लिए प्रसिद्ध कवियों की रचनाओं से उदाहरण दिया करते थे। लेकिन हिन्दी में यह अन्तर समाप्त हो गया । एक ही व्यक्ति साहित्य-सिद्धान्तों की स्थापना और कवि-रचना दोनों कर रहा था। इससे हिंदी में संस्कृत काव्य शास्त्र के चिंतन की संक्षिप्त उद्धरिणी ही प्रस्तुत हो गई। उदाहरण देने के लिए काव्य-रचने के कारण इस दौर के कवियों में उस स्वच्छंद कल्पना और मौलिक उद्भावना के दर्शन नहीं मिलते।

रीतिकाल को आलोचकों और इतिहासकारों ने दो प्रमुख श्रेणियों में बाँटा है. – रीतिबद्ध और रीतिमुक्त । रीतिबद्ध श्रेणी की पहचान रीति सिद्ध के रूप में भी होती है। ये कवि लक्षण ग्रन्थों के रूप में काव्य-सृजन कर रहे थे। रीति भक्त कवि रीतिबद्ध लक्षणों से मुक्त थे।
रीतिकाल का मूल्याङ्कन करते हुए आ. रामचन्द्र शुक्ल का मत है, ‘ग्रन्थों के कर्त्ता भावुक, सहृदय और निपुण कवि थे। उनका उद्देश्य कविता करना था, न कि काव्यांगों का शास्त्रीय विवेचन करना । अतः उनके द्वारा बड़ा भारी कार्य यह हुआ कि रसों (विशेषत: शृंगार रस) और अलंकार के बहुत ही सरल और हृदयग्राही उदाहरण अत्यंत प्रचुर परिमाण में प्रस्तुत हुए। ऐसे सरस और मनोहर उदाहरण संस्कृत के सारे लक्षण-ग्रन्थों से चुनकर इकट्ठे करें तो भी उनकी इतनी अधिक संख्या न होगी।’ रीतिकाल के महत्त्वपूर्ण कवियों में केशवदास, बिहारी, देव, मतिराम, भिखारीदास पद्माकर आदि हैं। इनके अतिरिक्त कुछ कवि रीति-मुक्त भी थे।

इस समय रीतिबद्ध परिपाटी पर रचना करने वाले कवियों से अलग कुछ कवि रीति-मुक्त रचनाएं भी करते थे। इनमें घनानन्द, बोधा, ठाकुर आदि हैं। इनमें रूढ़ि पालन कम और स्वच्छंदता अधिक मिलती है। इसीलिए इन्हें रीतिमुक्त की संज्ञा से अभिहित किया जाता है। ये कवि शृंगारी हैं पर इनके यहाँ रूढ़ियों का पालन नहीं मिलता है। इनमें नायिका भेद का रूढ़ि विधान नहीं है, प्रेमी और प्रिय के बीच दूती की भी कोई भूमिका नहीं है। रीतिबद्ध काव्य बहिर्जगत को ही देखता-दिखाता है जबकि रीतिमुक्त काव्य बहुत हद तक अन्तर्मुखी है।
रीति काल का मूल्याङ्कन करते हुए नामवर सिंह कहते हैं, “हिंदी का रीतिकाव्य सामंती विलास का सुन्दर दर्पण है।”… काव्य भाषा के रूप में ब्रजभाषा का एकछत्र शासन स्थापित हो गया और यह ब्रजभाषा भी वाक्सिद्ध कवियों के हाथों सज-सँवर कर अत्यन्त लोचयुक्त, ललित और व्यंजक काव्यभाषा बन गई। रीतिकाव्य ने हिन्दी में एक बहुत बड़े काव्य-रसिक सहृदय समाज का निर्माण किया, जिसका प्रभाव आधुनिक दिनों तक परिलक्षित होता रहा। अनेक सीमाओं के बावजूद रीतिकाल ने हिन्दी साहित्य में में भी बहुत युग काव्य-कला और शब्द-साधना की चेतना जगाई, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।”

सूरदास की कथा

सूरदास की कथा

सर्वाधिक प्राचीन स्रोत ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ और ‘अष्टसखान की वार्ता’ के अनुसार सूर का जन्म सं० 1535 में दिल्ली के निकट सीही नामक गांव में बसने वाले एक गरीब ब्राह्मण परिवार में हुआ। सूरदास जन्मांध थे या बाद में अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवि मिल्टन की तरह अंधे हुए – इस बात को लेकर बड़ा विवाद है। लेकिन सूरदास ने बार-बार अपने पदों में स्वयं को अंधा कहा है- ‘सूर कहा कहौं द्विविध आंधरो । ‘


माता-पिता की निर्धनता और अपनी अंधता के कारण सूरदास को परिवार का स्नेह नहीं मिल सका और बचपन में ही विरक्त होकर घर से निकल पड़े। मथुरा और आगरा के बीच यमुना नदी के तीर गऊघाट पर सूरदास वैराग्यभाव से विनय के पद रचते और गाकर भक्तों के हृदय को आनंद विभोर कर देते थे। एक बार बल्लभाचार्य ब्रज जाते हुए गऊघाट पर रुक गए। सूरदास ने उन्हें विनय के पद सुनाये। बल्लभाचार्य मुग्ध हो गए और उधर सूरदास बल्लभाचार्य जैसे गुरु को प्राप्त कर कृतकृत्य हो उठे।


बल्लभाचार्य ने सूरदास को पुष्टिमार्ग में दीक्षित करते हुए कहा कि सूर होकर अपने पदों में इतनी दीनता क्यों प्रकट करते हो, कुछ भगवत – लीला का वर्णन करो – ‘सूर ह्वै के ऐसो काहे को घिघियातु है कछु भगवत लीला वर्णन करि’। तब से सूरदास दीन-भाव के पद बनाना छोड़कर लीला के पद रचने लगे।


सूरदास बल्लभाचार्य द्वारा स्थापित पुष्टिसम्प्रदाय (वैष्णव भक्ति की एक शाखा जिसमें भगवान की कृपा को सब कुछ माना जाता है और भगवान को सखा भाव से भजा जाता है) के सर्वश्रेष्ठ भक्त कवि थे। बल्लभाचार्य के बाद उनके सुपुत्र विट्ठलनाथ ने पुष्टि सम्प्रदाय के सर्वश्रेष्ठ आठ कवियों की एक मंडली बनाई, जो अष्टछाप के नाम से प्रसिद्ध है। सूरदास इसी अष्टछाप के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भक्त कवि थे ।


सगुण शाखा के अंतर्गत कृष्ण भक्तिधारा के अनन्य भक्त कवि सूरदास के पच्चीस ग्रंथ कहे जाते हैं, पर इनमें से अनेक प्रामाणिक सिद्ध नहीं होते और कुछ (सूरसागर) के अंश मात्र हैं। सूरदास की प्रामाणिक रचनाएँ हैं ( सूरसागर, सूर-सारावली, साहित्य-लहरी, सूरपंच्चीसी, सूरसाठी तथा सूरदास के विनय के पद आदि ।

सूरदास की कविता में वात्सल्य और शृंगार का मणिकांचन योग देखने को मिलता है। आचार्य सूरदास शुक्ल ने लिखा है “ शृंगार और वात्सल्य के क्षेत्र में जहाँ तक इनकी दृष्टि पहुँची वहाँ तक और किसी कवि की नहीं।” इन दोनों क्षेत्रों में तो इस महाकवि ने मानो औरों के लिए कुछ छोड़ा ही नहीं। बाल मनोदशाओं और बाल-क्रीड़ाओं के सूक्ष्म-से-सूक्ष्म हर पहलू का जैसा रूपांकन सूर के काव्य में उपलब्ध होता है, अन्यत्र दुर्लभ है। सूक्ष्म निरीक्षणों से भरा हुआ सूर का बालवर्णन मनोविज्ञान की अनेक प्रक्रियाओं को दरसाता है। माता जसोदा कान्हा को पालने में झुला रही है और आनंदित हो रही है – ‘जसोदा हरि पालनै झुलावै’। मुँह में दही लेपे बाल कृष्ण अद्भुत सुंदर दिख रहे हैं – ‘सोभित कर नवनीत लिए । ‘


श्रृंगार के दोनों पक्ष संयोग और वियोग में सूर का काव्योत्कर्ष देखते ही बनता है। सूर की गोपियों का प्रेम कोई सीमा नहीं जानता। वह कोई बंधन नहीं मानता, न संयोग में न वियोग में। उसका लक्ष्य है – तन्मयता । कृष्ण के वियोग में गोपियों के साथ व्रज की पूरी प्रकृति वियोग में जल रही है ‘विरह वियोग श्याम सुंदर के ठाढ़े क्यों न जरे।’ मैनेजर पाण्डेय के शब्दों में” सूर का प्रेम आज भी रूढ़ि मुक्त समाज और प्रेम के लिए संघर्ष में प्रेरणाप्रद है।”


भ्रमरगीत’ की वाग्विदग्धता विलक्षण है। आचार्य शुक्ल गोपियों के वाक् चातुर्य पर रीझकर लिखते हैं, “सूर का सबसे मर्मस्पर्शी वाग्विदग्धपूर्ण अंश ‘ भ्रमरगीत’ है जिसमें गोपियों की वचनवक्रता अत्यंत मनोहारिणी है। ऐसा सुंदर उपालंभ काव्य और कहीं नहीं मिलता।” उद्धव का ज्ञान धरा का धरा रह जाता है जब गोपियाँ उन्हें असफल व्यापारी की संज्ञा देती हैं- “आयो घोष बड़ो व्यापारी” गोपियाँ अपने वाक्चातुर्य से निर्गुण भक्ति की धज्जियां उड़ा देती हैं। वे कहती हैं कि यह निर्गुण निराकार कृष्ण कौन है, किस देश का वासी है, मुझे नहीं मालूम – निर्गुन कौन देस को वासी’। जिस भक्ति में भगवान का कोई रूप-रंग ही न हो, वह भक्ति किस काम की – ‘अविगत-गति कछु कहत न आवै।”

विनय के पद [1]

अविगत-गति कछु कहत न आवै ।

ज्यों गूँगे मीठे फल कौ रस अंतरगत ही भावै ।

परम स्वाद सबही सु निरंतर अमित तोष उपजावै ॥

मन-बानी कौं अगम अगोचर, सो जानै जो पावै ।

रूप-रेख – गुन-जाति-जुगति-बिनु निरालंब कित धावै ॥

सब बिधि अगम बिचारहि ताते सूर सगुन-पद गावै ॥

विनय के पद [2]

हमारे प्रभु औगुन चित न धरौ ।

समदरसी है नाम तुम्हारौ, सोई पार करौ ।

इक लोहा पूजा मैं राखत, इक घर बधिक परौ।

सो दुबिधा पारस नहिँ जानत, कंचन करत खरौ ।

इक नदिया इक नार कहावत, मैलौ नीर भरौ ।

जब मिलि गए तब एक बरन है, गंगा नाम परौ ।

तन माया, ज्यौं ब्रह्म कहावत, सूर सु मिलि बिगरौ ।

कै इनकौ निरधार कीजिये, कै प्रन जात टरौ ।

बाल लीला के पद [3]

जसोदा हरि पालनै झुलावै ।

हलरावै, दुलराइ मल्हावै, जोइ सोइ कछु गावै ।

मेरे लाल कौं आउ निँदरिया, काहँ न आनि सुवावै ।

तू काहै नहिँ बेगहिँ आवै, तोकौं कान्ह बुलावै ।

कबहुँ पलक हरि मूँदि लेत हैं, कबहुँ अधर फरकावै ।

सोवत जानि मौन है कै रहि, करि करि सैन बतावै ।

इहिँ अन्तर अकुलाइ उठे हरि, जसुमति मधुरैं गावै ।

सुख सूर अमर-मुनि दुरलभ, सो नँद – भामिनि पावै ।

बाल लीला के पद [4]

सोभित कर नवनीत लिए ।

घुटुरुनि चलन रेनु-तन-मंडित, मुख दधि लेप किए।

लैन्दर चारु कपोल, लोल लोचन, गोरोचन- तिलक दिए ।

लट-लटकनि मनु मत्त मधुप गन मादक मधुहिँ पिए ।

कठुला कंठ, बज्र केहरि नख, राजत रुचिर हिए।

धन्य सूर एको पल इहिँ सुख को सत कल्प जिए ॥

वियोग श्रृंगार [5]

मधुबन तुम कत रहत हरे ।

बिरह वियोग स्याम सुंदर के ठाढ़े क्यौं न जरे ।

मोहन बेनु बजावत तुम तर, साखा टेकि खरे

मोहे थावर अरु जड़ जंगम, मुनि जन ध्यान टरे ।

वह चितवनि तू मन न धरत है, फिरि फिरि चुहुप धरे ।

पुष्पा ‘सूरदास’ प्रभु बिरह दवानल, नख सिख लौं न जरे ॥

वियोग श्रृंगार [6]

आयो घोष बडों ब्यापारी ।

लादि खेप गुन ज्ञान – जोग की ब्रज में आय उतारी ।

फाटकी दै कर हाटत माँगत भौरै निपट तु भारी ।

धुर ही तें खोटो खायो है लये फिरत सिर भारी ।

इनके कहे कौन डहकावै ऐसी कौन अजानी ?

अपनो दूध छाँडि को पीवै खार कूप को पानी ।

ऊधो जाहु सबार यहाँ तें बेगि गहरु जनि लावो ।

मुँहमाग्यो पैंहो सूरज प्रभु साहुहि आनि दिखावौ ।

वियोग श्रृंगार [7]

हरि हैं राजनीति पढि आए ।

समुझी बात कहत मधुकर जो ? समाचार कछु पाए ?

एक अति चतुर हुते पहिले ही , अरु करि नेह दिखाए ।

जानी बुद्धि बडी , जुवतिन को जोग सँदस पठाए ।

भले लोग आगे के , सखि री ! परहित डोलत धाए ।

वे अपने मन केरि पाइए जे हैं चलत चुराए ।।

ते क्यों नीति करत आपनु जे औरनि रीति छुडाए ।

राजधर्म सब भए सूर जहँ प्रजा न जायँ सताए ।।

निर्गुन कौन देस को बासी ?

मधुकर ! हँसि समुझाय , सौंह दै बूझति साँच , न हाँसि ।।

को है जनक , जननि को कहियत , कौन नारि को दासी ?

कैसौ बरन भेस है कैसौ केहि रस में अभिलासी ।

पावैगो पुनी कियो आपने जो रे ! कहैगो गाँसी ।

सुनत मौन ह्वै रह्यो ठग्यो सो सूर सबै मति नासी ।।  

कबीरदास की गाथा

कबीर नें धर्म और समाज के संघटन के लिए समस्त बाह्याचारों का अंत करने और प्रेम से समान धरातल पर रहने का एक सर्वमान्य सिद्धान्त प्रतिपादित किया । पंरपराओं के उचित संचयन तथा परिस्थितियों की प्रेरणा में कबीर ने ऐसे विश्वधर्म की स्थापना की जो जन - जीवन की व्यवहारिकता में उतर सके और अन्य धर्मों के प्रसार में समानता रखते हुए अपना रूप सुरक्षित रख सके ।


जाके मुँह माथा नहीं , नहीं रूपक रूप । पुहुप वास ते पातला , ऐसा तत्व अनूप ।।

नाम के अनुसार कबीर एक महान भक्त हुए । अरबी भाषा में कबीर का अर्थ महान होता है तभी तो भक्त माल आइन-ए-अकबरी ,परचई,खाजीनत -उलआसफिया तथा दाबिस्तान ई-तवारीख सरीखे प्राचीन ग्रंन्थों मे कबीर की महानता दर्शायी गई है । आधुनिक युग में रवीन्द्र नाथ टैगोर , श्यामसुन्दर दास , पीताम्बर दत्त , बडथ्वाल , परशुराम चतुर्वेदी , हरप्रसाद शास्त्री , गोविन्द त्रिगुणायत तथा हजारी प्रसाद द्विवेदी आदि विद्वानों ने कबीर की महत्ता की पडताल की वर्तमान में कबीर पर डाॅ पुरूषोत्तम अग्रवाल की पुस्तक ' अकथ कहानी प्रेम की ' काफी चर्चा हो रही है

उत्तर भारत के प्रथम भक्त कवि कबीरदास के जन्म वर्ष , स्थान , एवं उनकी जाति - धर्म - आदि के बारे में विद्वानों के बीच काफी मतभेद है । इसका कारण यह है कि उन्होने स्वयं अपने बारे में स्पष्टतया कुछ नही लिखा है । सन् 1600 ई. में अनन्तदास रचित , श्री कबीर साहबजी परचई के अनुसार

"कबीर जुलाहे थे और काशी में निवास करते थे । वे गुरू रामानंद के शिष्य थे । इन्होनें 120 वर्ष की आयु पायी । अधिकांश शोध कबीर का जन्म संवत् 1455 में होना मानते हैं । नीरू और नीमा नामक जुलाहे दंपति के घर कबीर पले-बढे ।

कबीर पर उपनिषद् के अद्वैतवाद और इस्लाम के ऐकेश्वरवाद का प्रभाव था । साथ ही कबीर पर वैष्णव भक्ति का गहरा प्रभाव है । कबीर नें रामनन्द के सगुण राम को निर्गुण और वर्णनातीत बना दिया ।

कबीर की कविता में गुरू महिमा , संत - महिमा , सत्संगति के लाभ तथा ईश - विनय - आदि की प्रमुखता है । उनका समस्त साहित्य धर्म , समाज , आचरण , नैतिकता तथा व्यवहार संबंधी विषयों का भंडार है । कबीर ने कटु आलोचना पद्धति को अपनाकर बडी निर्भीकता एवं तेजस्विता के साथ पंडित , पुजारी , मौलवी , अवधूत , वैरागी , सभी को फटकारा है । सभी धर्मों के बाह्याडंबरों में व्याप्त अनैतिक आचरणों की घोर निंदा की है । अपनी स्पष्टवादिता एवं निष्पक्षता के कारण ही कबीर का साहित्य जनसाधारण की दृष्टि में अत्यन्त महान एवं प्रभावशाली है ।

कबीर के साहित्य में उच्चकोटि के समन्वयवाद की झाँकी मिलती है । इसमें हिन्दू - धर्म तथा इस्लाम धर्म में समता स्थापित करने का प्रयत्न हुआ है । वर्ण - भेद एवं वर्ग भेद को दूर करके जाति - पाति एवं छुआछूत की भावना को नष्ट करने का प्रयास है । कबीर में हृदय की सच्चाई एवं अनुभूति का प्राधान्य है , जिसे कबीर नें प्रतीकों के माध्यम से बडी सजीवता एवं मार्मिकता के साथ प्रस्तुत किया है ।

कबीर में दर्शन एवं रहस्यानुभूति के तत्व भी मिलते है । इनकी दार्शनिक अभिव्यक्तियों में हंस , सती , इडा , नाडी , पिङ्गला , गङ्गा , सुन्दरी , विरहिणी स सूर्य आदि प्रतीक शब्दों का प्रयोग हुआ है । काव्य अभिव्यक्ति में स्त्री मायारूपा होती है , फलस्वरुप नारी के प्रति निंदा भाव भी कहीं - कहीं मिल जाते है । प्रेम की महिमा कबीर साहित्य का वैशिष्ट्य है । जब वें परम तत्व से दिव्य - प्रेम की मस्ती में होते है - तब उनकी सर्वश्रेष्ठ कविता फूटती है ।

भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था । कबीर के मर्मज्ञ विद्वान पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी नें उन्हें वाणी का डिक्टेटर कहा है । उनकी भाषा में कई भाषाओं का मिश्रण था , इसलिए उनकी भाषा सधुक्कडी भाषा कहलाती है । कई स्थानों पर उन्होनें उलटबासी भाषा का प्रयोग किया है , जो बाह्य रूप से नितान्त असंगत प्रतीत होती है किन्तु गहराई से देखने पर उसमें खास तरह की संगती होती है ।

साखी , सबद और रमैनी कबीर की रचनाएं मानी जाती हैं तथा , इनका संकलन ,, बीजक ,, कहलाता है ।।

।। कबीर के दोहे ।।

गुरुदेव कौ अङ्ग

1. सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपगार । लोचन अनँत उघाड़िया, अनँत दिखावण वार ॥

2. पीछें लागा जाइथा, लोक वेद के साथि । आगें थैं सतगुरु, मिल्या दीपक दीया हाथि ॥

सुमिरण कौ अंग

3. लंबा मारग दूरि घर, विकट पंथ बहुमार । । कहौ संतौ क्यूँ पाइये दुर्लभ हरि दीदार ॥

बिरह कौ अंग

4. हँसि हँसि कंतन पाइए, जिनि पाया तिनि रोइ । जो हाँसें ही हरि मिलै, तौ नहीं दुहागनि कोइ ॥

ग्यान बिरह कौ अंग

5. आहेड़ी दौं लाइया, मिरग पुकारे रोइ । जा बन में क्रीला करी, दाझत है बन सोइ ॥

साखियाँ

6. हाथी चढ़िए ज्ञान कौ, सहज दुलीचा डारि । स्वान रूप संसार है, भूँकन दे झख मारि ॥

7. पखापखी के कारनै, सब जग रहा भुलान । निरपख होइ कै हरि भजै, सोई संत सुजान ॥

पद

जतन बिन मिरगन खेत उजारे

टारे टरत नहीं निस बासुरि, बिडरत नहीं बिडारे ॥ टेक ॥

अपने-अपने रस के लोभी, करतब न्यारे न्यारे ।

अति अभिमान बदत नहीं काहू, बहुत लोग पचि हारे ।

बुधि मेरी किरषी, गुर मेरौ विझका, अखिर दोइ रखवारे ।

कहै कबीर अब खान न दैहूँ, बरियाँ भली सँभारे ॥

लोका मति के भोरा रे ।

जो कासी तन तजै कबीरा, तौ राँमहि कहा निहोरा रे ॥ टेक ॥

तब हम वैसे अब हम ऐसे, इहै जनम का लाहा

ज्यूँ जल मैं जल पैंसि न निकसै, यूँ दुरि मिलै जुलाहा ।।

राँम भगति परि जाकौ हित चित, ताकौ अचिरज काहा ।

गुरु प्रसाद साध की संगति, जग जीते जाइ जुलाहा ॥

कहै कबीर सुनहु रे संतो भ्रमि परें जिनि कोई ।

जस कासी तस मगहर कैंसर हिरदै राँम सति होई ॥

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